'हिंदुत्‍व' की काट के लिए सामाजिक न्‍याय के नाम पर 2019 में होगा जाति युद्ध
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'हिंदुत्‍व' की काट के लिए सामाजिक न्‍याय के नाम पर 2019 में होगा जाति युद्ध

जिस तरह से अखिलेश यादव, मायावती से मिलने पहुंचे, कमोबेश उसी अंदाज में 26 साल पहले 1992 में मुलायम सिंह यादव, कांशीराम से मिलने पहुंचे थे. उस वक्‍त 'राम मंदिर' आंदोलन चरम पर था. उस मुलाकात के एक साल के भीतर ही 1993 में दोनों दलों ने गठबंधन बनाकर चुनावी जीत हासिल की थी.

सीएम योगी आदित्‍यनाथ ने गोरखपुर-फूलपुर में हार के बाद कहा कि सपा-बसपा तालमेल को समझने में चूक हुई.(फाइल फोटो)

अपने मुख्‍यमंत्री कार्यकाल के दौरान हमेशा विकास की बात करने वाले सपा नेता अखिलेश यादव ने गोरखपुर और फूलपुर में पार्टी की जीत के तुरंत बाद प्रेस कांफ्रेंस में सामाजिक न्‍याय की बात कही. उन्‍होंने दरअसल बसपा के साथ तालमेल के संदर्भ में यह बात कही. इसके साथ ही जोड़ा कि जातिगत संख्‍याबल में हम ज्‍यादा हैं, हम पिछड़े, गरीब लोग हैं लेकिन हमारे तालमेल को साप-छंछूदर की संज्ञा दी गई. उनकी इस बात के गंभीर सियासी निहितार्थ हैं.

  1. गोरखपुर और फूलपुर में सपा ने जीत हासिल की
  2. सपा और बसपा के तालमेल को बताया जा रहा वजह
  3. इनके संभावित गठबंधन से बीजेपी को तगड़ी चुनौती मिलना तय

दरअसल इसके असल मायने ये हैं कि अब सपा-बसपा की जोड़ी ने 'मोदी लहर' के साथ बीजेपी के 'हिंदुत्‍व' कार्ड की काट के रूप में जातिगत गठजोड़ तैयार करने की रणनीति बनाई है. जीत के बाद शाम को जिस ढंग से अखिलेश यादव, मायावती से मिलने के लिए गए, उससे अब इसमें ज्‍यादा शंका नहीं रह गई कि 2019 में यूपी में सपा-बसपा के संभावित गठबंधन के रूप में बीजेपी के लिए पहाड़ जैसी चुनौती खड़ी होने वाली है.

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जातिगत गठजोड़
जिस तरह से अखिलेश यादव, मायावती से मिलने पहुंचे, कमोबेश उसी अंदाज में 26 साल पहले 1992 में मुलायम सिंह यादव, कांशीराम से मिलने पहुंचे थे. उस वक्‍त 'राम मंदिर' आंदोलन चरम पर था. उस मुलाकात के एक साल के भीतर ही 1993 में दोनों दलों ने गठबंधन बनाकर चुनावी जीत हासिल की थी. उसी तरह के समीकरण एक बार फिर उभर रहे हैं, जब बीजेपी के समग्र 'हिंदुत्‍व' के कार्ड की काट के लिए सपा-बसपा एक बार फिर हाथ मिलाने पर विवश हुए हैं. इसका सीधा मतलब यादव-मुस्लिम(MY) और जाटव वोट बैंक का गठजोड़ है. इसमें बीजेपी का विरोध करने वाले अगड़े और यदि कांग्रेस को भी जोड़ दें तो यह संभावित गठबंधन बीजेपी के सामने बड़ी तगड़ी चुनौती पेश करने वाला है.  

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हिंदुत्‍व कार्ड रहा विफल
इस जीत से यह भी संकेत मिलते हैं कि इनमें बीजेपी का हिंदुत्‍व कार्ड विफल रहा. इसके विपरीत पिछड़ों-अति पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों और सरकार विरोधी सवर्णों ने सपा प्रत्‍याशी के पक्ष में गोलबंदी दिखाई. इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि गोरखपुर में 29 साल बाद पहली बार गोरक्षपीठ का वर्चस्‍व टूट गया. पिछले तीन दशकों से गोरखपुर की सियासत इसी पीठ के इर्द-गिर्द घूमती रही है. यहां 1989 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब मंदिर का प्रभाव नहीं दिखा. हालांकि इसी सीट से सीएम योगी आदित्‍यनाथ पांच बार बीजेपी के सांसद रहे हैं और हर बार उनकी जीत का अंतर बढ़ता ही गया.

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इसकी बानगी इस बात से समझी जा सकती है कि फूलपुर से मैदान में उतरे बाहुबली निर्दलीय प्रत्‍याशी अतीक अहमद भी मुसलमानों का ज्‍यादा वोट नहीं काट पाए. इसी तरह गोरखपुर में कांग्रेस प्रत्‍याशी डॉ सुरहिता करीम के वोट भी सिमट गए.

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