BJP की सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना ने नाता तोड़ने का फैसला क्‍यों किया? जानें वजहें
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BJP की सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना ने नाता तोड़ने का फैसला क्‍यों किया? जानें वजहें

इसको सियासी लिहाज से बीजेपी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है लेकिन इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि हालिया दौर में जिस तरह दोनों दलों के बीच तल्‍खी बढ़ी, उसके मद्देनजर इस कदम को अप्रत्‍याशित नहीं माना जाना चाहिए.

शिवसेना और बीजेपी के बीच पिछले तीन सालों से रिश्‍ते सहज नहीं रहे.(फाइल फोटो)

नई दिल्‍ली: तीन साल की तल्‍खी के बाद बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना ने उससे नाता तोड़ने का फैसला कर लिया है. शिवसेना की राष्‍ट्रीय कार्यकारिणी में यह फैसला लिया गया है कि पार्टी 2019 का चुनाव बिना किसी गठबंधन के अकेले अपने दम पर लड़ेगी. इसको सियासी लिहाज से बीजेपी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है लेकिन इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि हालिया दौर में जिस तरह दोनों दलों के बीच तल्‍खी बढ़ी, उसके मद्देनजर इस कदम को अप्रत्‍याशित नहीं माना जाना चाहिए. इस पूरे घटनाक्रम में इन दोनों दलों के बीच बढ़ती दूरी की मुख्‍य वजहों पर आइए डालते हैं एक नजर:

  1. महाराष्‍ट्र की सियासत में शिवसेना का जनाधार घटा
  2. बीजेपी को इसका सीधा फायदा मिला
  3. घटते जनाधार को बचाना शिवसेना की सबसे बड़ी चुनौती

2014 का लोकसभा चुनाव
मोदी लहर के चलते आम चुनाव में महाराष्‍ट्र की 48 लोकसभा सीटों में से बीजेपी को 23 और शिवसेना को 18 सीटें मिली थीं. उसके बाद महाराष्‍ट्र की सियासत में पहली बार शिवसेना का दबदबा थोड़ा कमजोर हुआ और बीजेपी को सबसे ज्‍यादा सीटें मिलीं. इससे पहले महाराष्‍ट्र की सियासत में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन में से शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में रहा करती थी. लेकिन उसका रुतबा कमजोर हुआ.

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सुरेश प्रभु का मामला
जब 2014 आम चुनावों के बाद पीएम मोदी के नेतृत्‍व में शिवसेना नेता सुरेश प्रभु को मंत्रिमंडल में लेने का फैसला किया गया तो शिवसेना ने इसका मुखर विरोध किया. इस विरोध के बावजूद सुरेश प्रभु को केंद्रीय कैबिनेट में जगह दी गई. इससे पहले प्रभु को बीजेपी पार्टी की सदस्‍यता दिलाई गई.  

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महाराष्‍ट्र विधानसभा चुनाव
2014 के आखिर में जब महाराष्‍ट्र में विधानसभा चुनाव हुए तो इस गठबंधन को बहुमत मिला और पहली बार बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. इस तरह सूबे की सियासत में बीजेपी सबसे अहम किरदार बनकर उभरी. पिछले 25 सालों में पहली बार शिवसेना का रसूख घट गया. नतीजतन शिवसेना को जूनियर पार्टनर के रूप में संतोष करना पड़ा.

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घटता जनाधार
उसके बाद निकाय चुनावों में बीएमसी को छोड़कर पूरे महाराष्‍ट्र में बीजेपी का परचम लहराया. यह शिवसेना के लिए स्‍पष्‍ट संकेत था कि उनका जनाधार घट गया है. इस जनाधार को बचाना शिवसेना के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. दरअसल जिस हिंदुत्‍व और राष्‍ट्रवाद का मुद्दा शिवसेना का केंद्रीय एजेंडा रहा है, राष्‍ट्रीय स्‍तर पर बीजेपी उसी विमर्श को प्रोत्‍साहित करती रही है. जबकि शिवसेना का यह एजेंडा केवल महाराष्‍ट्र भर में सीमित रहा है. इन वजहों से दोनों के बीच तल्‍खी बढ़ती रही है. कई बार सूबे की सरकार से शिवसेना ने बाहर निकलने की धमकी भी दी. मुख्‍यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी दो टूक जवाब देते हुए कहा कि यदि शिवसेना को दिक्‍कत हो रही है तो वह राज्‍य की सत्‍ता को छोड़कर बाहर जा सकती है. शिवसेना ने इसको अपमान की तरह लिया. इसीलिए शिवसेना ने गठबंधन तोड़ने की घोषणा करने के साथ ही कहा है कि 2019 का चुनाव शिवसेना सम्‍मान के साथ लड़ेगी.

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