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नई दिल्ली: हिंदू धर्म में कई संस्कार होते है जिसमें यज्ञोपवीत संस्कार का बड़ा महत्व है। यज्ञोपवीत संस्कार को जनेऊ संस्कार भी कहते है। जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं।
'उपनयन' का अर्थ है, 'पास या सन्निकट ले जाना।' यानी ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में से एक 'उपनयन संस्कार' के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहा जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता।
जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिन्दू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। अविवाहित व्यक्ति तीन धागों वाला जनेऊ पहनेते है जबकि विवाहित व्यक्ति छह धागों वाला जनेऊ।
जनेउ में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में 'यज्ञोपवित संस्कार' यानी जनेऊ की परंपरा है। जनेऊ एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। जनेऊ को मूत्र विसर्जन और मल विसर्जन करने के दौरान पर चढाकर दो से तीन बार बांधा जाता है। यह भी माना जाता है कि इसके धारण करने के सेहत संबंधी भी कई फायदे होते है और कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।