केंद्र सरकार के मुखर आलोचक यशवंत सिन्हा ने कहा कि विदेश नीति इवेंट मैनेजमेंट नहीं है, पिछले चार साल से हम अमेरिका की चापलूसी में लगे रहे, जबकि अमेरिका हमारे राष्ट्रीय हित रौंदने को तैयार है.
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नई दिल्ली: देश के पूर्व वित्त मंत्री और विदेश मंत्री होने के साथ ही मौजूदा केंद्र सरकार के मुखर आलोचक यशवंत सिन्हा से देश के आर्थिक और विदेश मामलों पर जी न्यूज डिजिटल के ओपीनियन एडीटर पीयूष बबेले ने लंबी बातचीत की. इस दौरान 2019 के चुनावी रण पर भी बात हुई. पेश है बातचीत के खास अंश:
सवाल: आज आप सक्रिय राजनीति छोड़ चुके हैं, लेकिन आज से 34 साल पहले इसी राजनीति में आने के लिए आपने प्रशासनिक सेवा छोड़ी थी. तब किस चीज ने प्रेरित किया था और अब किस वजह से छोड़ी है.
जवाब: उस समय सबसे बड़ा कारण था जयप्रकाश जी का आदर्श. उन्हीं से प्रेरित होकर मैं राजनीति में तो नहीं, सोशल वर्क में आना चाहता था. लेकिन उस समय कुछ विलंब हुआ. जब 1984 में मैंने नौकरी छोड़ी, तब 12 साल की मेरी नौकरी बाकी थी. लेकिन जब मैंने नौकरी छोड़ी तब जेपी जा चुके थे. फिर चंद्रशेखर जी से मुलाकात हुई, वे मुझे राजनीति में लाए.
सवाल: और अब...
जवाब: मैं हमेशा यह कहता था कि मैंने कोई जीवन भर राजनीति करने का ठेका नहीं लिया है. जब लगेगा कि राजनीति में रहने से कोई लाभ नहीं है तब राजनीति छोड़ दूंगा. चार साल पहले मैंने चुनावी राजनीति छोड़ी और अब पार्टी की राजनीति छोड़ दी है.
सवाल: लेकिन जब से आपने राजनीति छोड़ी है, तब से आप ज्यादा ही मुखर राजनेता हो गए हैं. अब भारतीय राजनीति पर सबसे ज्यादा छाए रहने वाले नेताओं में शामिल हो गए हैं.
जवाब: मैंने यही तय किया कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर देश के मुद्दे पर खुलकर अपने विचार रखूं. दल में रहता तो कई बार बंदिशें रहतीं.
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सवाल: आपको अपने दल से दिक्कत थी या दल के नेता से.
जवाब: 2014 के बाद से जो पूरी व्यवस्था कायम हुई उससे मैं बहुत संतुष्ट नहीं था. पिछले चार साल में मुझे ऐसा लगा कि देश गलत दिशा में जा रहा है और उसके विरोध में आवाज उठानी है. पहले तो मैंने पार्टी में रहकर इसके खिलाफ आवाज उठाई, फिर स्वतंत्र होकर काम शुरू किया.
सवाल: पहले अर्थनीति की चर्चा करते हैं. रुपये की कीमतें सबसे निचले स्तर पर चली गई हैं. इस दौरान कई बड़े आर्थिक फैसले जैसे जीएसटी और नोटबंदी भी लिए गए. यह देश को किस तरफ ले जा रहे हैं.
जवाब: रुपये का मामला तात्कालिक है. मैं नहीं कह सकता कि सरकार में बैठे लोग इसको कितना समझ पा रहे हैं. मैं यह समझता हूं कि भारतीय जनता पार्टी में अर्थव्यवस्था को समझने वाले लोग नहीं हैं. पहले भी नहीं थे. रुपया क्या है, हमारी करेंसी है. इसका बाजार में व्यापार हो रहा है. इसकी कीमत डिमांड-सप्लाई पर निर्भर करती है. अभी कुछ तात्कालिक परिस्थिति है, ट्रेड वार है, तेल की कीमतें बढ़ी हैं, ऐसे में रुपये पर प्रेशर बनता है. आरबीआइ के पास फॉरेन करेंसी का स्टॉक है. आरबीआई मार्केट की हलचल रोकता है. रुपये की कीमत को तय करना आरबीआई का काम नहीं है. आरबीआई का काम है कि बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव न हो सके. कीमत तय करना आरबीआई का काम नहीं है. आज की सरकार में लोग यह बात नहीं समझते हैं, पहले भी नहीं समझते थे. आज के प्रधानमंत्री महोदय ने 2013 में एक बयान दिया था, वह बहुत अटपटा था. सुषमा स्वराज जी ने जो बयान दिया था वह भी बहुत अटपटा था. डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत गिरने से देश कमजोर नहीं होता.
सवाल: देश की समग्र अर्थव्यवस्था के हालात क्या हैं.
जवाब: भारत की आवश्यकता क्या है. भारत को आठ से 10 फीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब से आगे बढ़ना चाहिए. तभी हम देश की गरीबी-मुफलिसी की समस्या दूर कर सकेंगे. लेकिन 2014 के बाद से हम सात से आठ फीसदी के बीच हैं. वह भी तब जब 2015 में हमने ग्रोथ रेट निकालने का फॉर्मूला बदल दिया. पुराने फॉर्मूला से तो यह ग्रोथ रेट 5 फीसदी ही होगी. इसमें भी असंगठित क्षेत्र के आंकड़े शामिल नहीं हैं. इस सेक्टर को नोटबंदी से बहुत नुकसान पहुंचा है. ये आंकड़े भी सामने आएं तो भारत की असली विकास दर 3.5 फीसदी ही निकलेगी. इसकी वजह यह है कि हमारे दूसरे संकेतक ग्रोथ रेट से मैच नहीं कर रहे. निर्यात और रोजगार के फिगर विकास दर के आंकड़ों से मेल नहीं खा रहे.
सवाल: क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि डाटा कुकिंग हो रही है.
जवाब: मैं यह तो नहीं कह रहा कि डाटा कुकिंग हो रही है, लेकिन आंकड़े जुटाने का हमारा तरीका दोषपूर्ण है.
सवाल: आपके समय में भी तरीके तो यही रहे होंगे.
जवाब: तरीके पहले भी यही थे, लेकिन सामान्य परिस्थितियां नहीं हैं. जैसे एक सेक्टर के आंकड़े दूसरे सेक्टर से मैच नहीं कर रहे हैं. नोटबंदी से असंगठित क्षेत्र पर असर पड़ा है. इसलिए उसके आंकड़े अब सामान्य नहीं होंगे. इन सबका मिलाजुला असर है. आज हमें कॉर्पोरेट घरानों के कारोबार के आंकड़ों से अपनी विकास दर 7.7 फीसदी दिख रही है.
सवाल: इसकी वजह अंतरराष्ट्रीय है या घरेलू.
जवाब: इंटरनेशनल बाजार में कच्चे तेल की कीमत 105 डॉलर प्रति बैरल से घटकर 26 डॉलर प्रति बैरल तक आ गई थी. सरकार का बहुत पैसा बचा. हमारा करंट अकाउंट डेफिसिट, हमारा राजकोषीय घाटा कम हो गया. सरकार के बजट से सब्सिडी में जो पैसे जाते थे, वह पैसे बच गए. सरकार ने नौ बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई, जो पैसा लोगों को मिलना चाहिए था, वह सरकार के पास आ गया.
सवाल: लेकिन सरकार तो यही कहती है कि अगर पैसा सरकार के खजाने में आया तो भी देश के विकास के लिये ही आया है, इससे देश के विकास कार्य होंगे.
जवाब: विकास की बात कर रहे हैं तो यह बताइये कि इस सरकार की कौन सी बड़ी योजना है. अटलजी की सरकार में हमने राजमार्ग योजना बनाई, ग्रामीण सड़क बनाई, टेलीकॉम में बड़ा बदलाव किया, ऐसी कोई योजना मोदी सरकार की हो तो बताइये.
सवाल: लेकिन आपके समय की ये सारी योजनाएं तो अभी चल ही रही हैं. इसके अलावा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, स्मार्ट सिटी, ररबन मिशन, ग्रामीण विद्युतीकरण, किसानों के लिए फसल बीमा योजना, बहुत सी योजनाएं हैं. अब ये कितना काम कर रही हैं, यह आप ही बताएं.
जवाब: इस समय देश के प्रधानमंत्री के नाम से 97 योजनाएं चल रही हैं, जबकि तय यह हुआ था कि राज्य ज्यादा योजनाएं बनाएंगे और केंद्र उसका सहयोग करेगा.
सवाल: हम 2018 के मध्य में बैठे हैं और 2019 में चुनाव है, ऐसे में क्या सरकार के खजाने में इतना पैसा है कि वह कर्ज माफी या किसानों को बड़ी राहत देने की कोई योजना शुरू कर सके
जवाब: कर्ज माफी होनी चाहिए, लेकिन अकेले कर्ज माफी से किसानों की समस्या का समाधान नहीं होगा. पिछले चार साल में सरकार ने किसानों के लिए कुछ नहीं किया. किसानों को लागत का मूल्य....
सवाल: लेकिन सरकार तो कह रही है कि 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी कर देंगे.
जवाब: 2022 किसने देखा.
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सवाल: लेकिन सरकार तो कह रही है कि एमएसपी अभी डेढ़ गुना कर देंगे.
जवाब: सरकार का सबसे बड़ा वादा था स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक किसानों को फसल का डेढ़ गुना मूल्य देना. सरकार ने यह फैसला अपने अंतिम बजट में किया है, जबकि यह काम पहले बजट में होना चाहिए था. अभी धान की बुआई होनी है और सरकार ने अब तक तय नहीं किया कि एमएसपी क्या होगा. फसल बोने के पहले तय होना चाहिए.
सवाल: लेकिन सरकार तो फसल बीमा योजना भी किसानों को दे रही है.
जवाब: जरा फसल बीमा योजना के बारे में पता करिए. किसान जितना पैसा बीमा प्रीमियम के रूप में दे रहे हैं उसका 15-20 फीसदी पैसा ही किसानों को बीमा के रूप में मिल रहा है. बाकी सारा पैसा कंपनियों के खाते में चला गया.
सवाल: किसानों के मुद्दे पर सरकार को कितने प्वाइंट देंगे.
जवाब: प्वाइंट देने का काम मैं नहीं करता. आप पूरे देश की मंडियों में देखिए, फसल की कीमत क्रैश कर गई है. पिछले साल मंदसौर में किसान प्याज को लेकर परेशान थे, इस बार लहसुन को लेकर परेशान हैं. पूरे देश में यही हाल है. किसानों को लाभ तो छोड़िये लागत मूल्य नहीं मिल रहा है. इसलिए किसान परेशान है और किसान सरकार से नाराज है.
सवाल: लेकिन देश का किसान वोट कहां डालता है. किसान जब वोट डालने जाता है तो वह भी जाति और धर्म के नाम पर ही वोट डालता है. इसी तरह देश में चुनाव लड़े जाते हैं.
जवाब: सामान्य परिस्थिति होती है तो जाति, धर्म, क्षेत्र इन सब चीजों का चुनाव पर असर होता है. यह विषम परिस्थिति है. किसान बहुत परेशान है, इस समय वह अपने दर्द को देखेगा, जाति धर्म को नहीं देखेगा.
सवाल: अब तक आर्थिक नीति की बात हो रही है, जरा विदेश नीति की बात करें. नेहरू जी के जमाने से हम गुटनिरपेक्ष रहे हैं और हमारी अपनी स्वायत्तता है. अब अमेरिका जो कर रहा है, खासकर ईरान के मामले में, क्या वह स्वायत्तता को चुनौती नहीं है.
जवाब: बिलकुल है. अमेरिका हमसे कैसे कह सकता है कि ईरान से तेल खरीदें या नहीं. क्या हम अमेरिका को आदेश देते हैं. यह हमारा अधिकार क्षेत्र है और हम इसे तय करेंगे. ईरान हमारा महत्वपूर्ण पड़ोसी है. अफगानिस्तान और सेंट्रल एशिया में जाने का रास्ता हमारे पास ईरान से होकर है. ईरान हमारे लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. लेकिन सरकार आज यह कहने से बच रही है, यह अच्छी बात नहीं है.
सवाल: क्या अमेरिका के सामने हमारा इस तरह का रुख राष्ट्रहित के खिलाफ नहीं है.
जवाब: बिलकुल खिलाफ है.
सवाल: अगर आपको याद हो तो कुछ महीने पहले अमेरिका के राष्ट्रपति ने हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल पर एक्साइज ड्यूटी का मुद्दा उठाया था. उसके बाद हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी तरफ से ड्यूटी हटा दी. क्या यह संकेत नहीं देता कि हम शुरू से ही सबमिसिव तरीका अपना रहे हैं.
जवाब: बिलकुल अपना रहे हैं. वर्तमान प्रधानमंत्री ने शुरू से ऐसा समां बांधा कि हमारी बहुत मजबूत विदेश नीति है. अगर आप देश में पूछें तो लोग यही कहेंगे कि विदेश नीति में सरकार ने बहुत अच्छा काम किया, लेकिन असलियत इसके उलट है. हम शुरू से अमेरिका की चापलूसी में लगे रहे. ट्रंप के आने के बाद से अमेरिका अपने हितों को साधने में लगा है, जरूरत पड़ेगी तो अमेरिका, भारत के हितों को रौंदने के लिए तैयार है. इस मामले में हम कमजोर पड़ रहे हैं. यही हाल चीन के साथ हुआ. चीन जो करता है, उसे हम स्वीकार करते जा रहे हैं.
सवाल: मालदीव में जब 1980 के दशक में संकट आया था तब हमने सेना भेजकर चीजों को सामान्य कर दिया था, क्या अब उस तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता.
जवाब: मिलिट्री हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है. लेकिन हमारा प्रभाव इतना होना चाहिए कि हमारे पड़ोसी हमारी बात मानें. इसी तरह हमारे रिश्ते मालदीव से बुरी तरह बिगड़ गए हैं.
सवाल: और श्रीलंका के हम्मनटोटा पोर्ट को चीन के पास जाने में क्या देखते हैं.
जवाब: चीन को लीज पर मिल गया है. बड़ा खतरा है.
सवाल: लेकिन चीन के राष्ट्रपति हमारे यहां आ चुके है, अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति भी आए थे. संबंध इतने मधुर दिखते हैं तो फिर यह सब क्यों.
जवाब: बाइस्कोप दिखाने से काम नहीं चलता. व्यक्तिगत दोस्ती का कोई मतलब नहीं होता. ओबामा आए थे, अब वे कहां हैं. राष्ट्रों के संबंधों में राष्ट्रहित सबसे ऊपर है. सिर्फ गले मिलने से फॉरेन पॉलिसी कामयाब नहीं होती. विदेश नीति इवेंट मैनेजमेंट से नहीं चलती.
सवाल: एक हमारा पड़ोसी बच गया, पाकिस्तान. उस पर तो हमने सर्जिकल स्ट्राइक भी की. वहां तो विदेश नीति को कामयाब मानेंगे. आपको तो सर्जिकल स्ट्राइक पर शक नहीं है
जवाब: मुझे सर्जिकल स्ट्राइक पर कोई शक नहीं है. इसलिए नहीं है क्योंकि इसकी घोषणा सेना के अधिकारियों ने की थी. लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक के नाम पर देश को बांटना मेरी समझ में नहीं आता. जो सर्जिकल स्ट्राइक का समर्थन करे वह देशभक्त और जो इसके बारे में सवाल करे वह देशद्रोही. मुझे यह समझ नहीं आता कि सर्जिकल स्ट्राइक के दो साल बाद उसके वीडियो जारी किए गए और जारी नहीं किए गए बल्कि लीक हुए.
सवाल: क्या इतने महत्वपूर्ण सुरक्षा वीडियो का लीक होना राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा नहीं है.
जवाब: बिलकुल खतरा है. इससे बढ़कर तो कोई दूसरा कानफिडेंशियल डाक्यूमेंट हो ही नहीं सकता, यह कैसे लीक हो गया. इसकी जांच होनी चाहिए.
सवाल: 2019 में मोदी के सामने कौन.
जवाब: यह कोई सवाल नहीं है. देश में संसदीय लोकतंत्र है, राष्ट्रपति प्रणाली नहीं है. इसमें नेता घोषित करने की कोई बाध्यता नहीं है. पार्टियां अपने हित के हिसाब से नेता घोषित करती हैं या नहीं करतीं हैं. जैसे भाजपा को ही लें तो 2014 में मोदी को घोषित करना उनके फायदे में था. लेकिन उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने सीएम प्रत्याशी कहां घोषित किया. उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले योगी आदित्यनाथ क्या सीएम फेस थे, वे चुनाव जीतने के बाद बने. हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर, झारखंड में रघुवर दास, महाराष्ट्र और बाकी राज्यों में चुनाव के बाद सीएम तय किए गए. तो असल में यह एक जाल बिछाया जा रहा है बीजेपी की तरफ से कि 2019 में हमारी तरफ से मोदी तो तुम्हारी तरफ से कौन.
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सवाल: अच्छा यह बताइये की 2019 में बीजेपी की कितनी सीटें आएंगी.
जवाब: इस पर मैं कुछ नहीं कहना चाहता...
सवाल: मैं इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि 2014 में आडवाणी जी ने कहा था कि कांग्रेस दहाई के अंकों में आ जाएगी. आप भी सब करीब से देख रहे हैं तो कुछ तो आकलन होगा.
जवाब: देश के चार राज्यों से देश की 182 लोकसभा सीटें आती हैं. ये चार राज्य हैं, यूपी, बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड. इन चारों राज्यों में बीजेपी के खिलाफ गठबंधन बन चुके हैं. विपक्षी एकता हो चुकी है.
सवाल: 2019 में आपकी क्या भूमिका होगी, कृष्ण की तरह मैदान में खड़े रहेंगे या बलराम की तरह दूर से देखेंगे.
जवाब: मैं देश के मुद्दों के साथ खड़ा हूं.