आज़ादी के 70 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज भी हमारे देश में ऐसे बहुत से गांव और कस्बे हैं जहां छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने के लिए नावों पर सफर करके नदियों को पार करते हैं.
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हमारे देश में अक्सर महापुरुषों के संघर्ष के बारे में ये कहा जाता है कि वे बचपन में स्कूल जाने के लिए नदी को तैर कर पार करते थे. कई किलोमीटर पैदल चलते थे. ये उस दौर का संघर्ष था, जब हमारा देश अंग्रेज़ों का गुलाम था, तब देश में विकास नहीं हुआ था. तब ना तो बिजली की व्यवस्था थी और ना ही शिक्षा का स्वराज था. लेकिन आज देश अंग्रेज़ों का गुलाम नहीं है. आज़ादी के 70 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन आज भी हमारे देश में ऐसे बहुत से गांव और कस्बे हैं जहां छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जाने के लिए नावों पर सफर करके नदियों को पार करते हैं. कई किलोमीटर पैदल चलते हैं और अपनी जान जोखिम में डालकर किसी तरह पढ़ाई पूरी करते हैं.
आपने कभी ये कल्पना भी नहीं की होगी कि देश की राजधानी दिल्ली में कोई ऐसी जगह भी हो सकती है, जहां स्कूल जाने के लिए बच्चे नाव से नदी को पार करते हैं. दिल्ली में कुछ ऐसी बस्तियां हैं जहां रहने वाले बच्चे, हर रोज़ स्कूल जाने के लिए कम से कम 2 किलोमीटर पैदल चलते हैं और फिर उन्हें नाव में सफर करना पड़ता है. जब दिल्ली का ये हाल है, तो सोचिए कि देश के ग्रामीण इलाक़ों और कस्बों का क्या हाल होगा?
हमारे देश में गरीबों के कल्याण की बातें तो खूब होती हैं. कई ऐसे पत्रकार हैं जो प्राइम टाइम में गरीबी पर लंबे-चौड़े प्रवचन देते हैं. लेकिन उन्हें ज़मीनी हकीकत का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि वे कभी गरीबों के पास जाकर रिपोर्टिंग नहीं करते.
Zee News की टीम ने गरीबों की बस्तियों में जाकर रिपोर्टिंग की है. इन बच्चों के मां-बाप से बात की है और उस टूटी हुई नाव पर बैठकर सफर भी किया है, जिससे बच्चे स्कूल जाते हैं. ये सफर बहुत ही डरावना था. ये बच्चे जिस स्कूल में पढ़ते हैं उसे एक एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) चलाता है. जब हमने वहां के शिक्षकों से बातचीत की तो पता चला कि ये सभी बच्चे पिछले 10 वर्षों से स्कूल जाने के लिए इसी तरह की नाव का इस्तेमाल कर रहे हैं.
वैसे पूरे देश में ऐसे कई सरकारी स्कूल हैं जहां पढ़ने वाले बच्चे अपने भविष्य को संवारने के लिए, अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं. सुनने में ये ख़बरें आपको छोटी लगेंगी. लेकिन ये स्कूल में पढ़ने वाले मासूम बच्चों की ज़िंदगी का सवाल है.
हमारे पास उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के कुछ सरकारी स्कूलों की तस्वीरें आई हैं, जहां बच्चों की जान खतरे में है. उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़िले के एक सरकारी स्कूल में पानी की टंकी के अंदर गंदगी का अंबार है. बच्चे इसी टंकी का पानी पी रहे हैं. तस्वीरें देखकर लगता है कि कई वर्षों से इस टंकी की सफाई नहीं हुई है. ऐसा दूषित जल किसी भी बच्चे की जान ले सकता है. लेकिन हमारा सिस्टम तभी जागता है जब किसी की मौत हो जाती है. जब तक किसी की मौत नहीं होती और कोई केस नहीं बनता, तब तक पूरा सिस्टम सोता रहता है.
हमारे पास उत्तराखंड में उत्तरकाशी के एक सरकारी स्कूल की तस्वीरें हैं जिसकी दीवारें बहुत गंदी हैं. ये स्कूल, खंडहर बन चुका है और इस जर्जर भवन में पढ़ने वाले बच्चों की जान, हर वक़्त खतरे में है. हमारे पास छत्तीसगढ़ से भी कुछ तस्वीरें आई हैं. वहां एक सरकारी स्कूल की छत टूटी हुई है. जो कभी भी बच्चों पर गिर सकती है. हमारे देश में हर वर्ष शिक्षा पर 4 लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा की रकम खर्च की जाती है. लेकिन इसके बाद भी देश के स्कूलों का ये हाल है.
Right to Education Act के मुताबिक कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों के लिए, उनके घर से एक किलोमीटर के दायरे में एक स्कूल ज़रूर होना चाहिए और छठी कक्षा से 8वीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए 3 किलोमीटर के दायरे में स्कूल ज़रूर होने चाहिए, लेकिन इन नियमों का पालन कोई नहीं करता. अगर इन नियमों का पालन किया जाता तो दिल्ली सहित देश के तमाम इलाक़ों में बच्चों को स्कूल जाने के लिए, नाव से सफर नहीं करना पड़ता. नेशनल सेंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़ों के मुताबिक एक हज़ार छात्राओं में से 34 छात्राएं दूरी की वजह से स्कूल जाना छोड़ देती हैं. ये सर्वे 5 वर्ष से 29 वर्ष की उम्र के छात्रों और छात्राओं पर किया गया था.
देश की शिक्षा व्यवस्था को आईना दिखाने के लिए आज हमने एक स्पेशल रिपोर्ट तैयार की है. हमें उम्मीद है कि ये रिपोर्ट देखने के बाद सरकार और सिस्टम के आलस्य में कमी आएगी, और बच्चों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी कार्रवाई की जाएगी.