जिंदगी मौत ना बन जाए संभालो यारों...
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जिंदगी मौत ना बन जाए संभालो यारों...

पिछले दिनों जिया खान की मौत को लेकर बहुत कुछ पढ़ा, देखा, सुना तब एक ही ख्याल रह-रह कर मन में आया कि आखिर क्या वजह हो सकती है कि हमारी युवा पीढ़ी इतनी संवेदनशील या शायद यहां कमजोर शब्द का इस्तेमाल करना ज्यादा ठीक होगा, हो गयी है।

पल्लवी सक्सेना
पिछले दिनों जिया खान की मौत को लेकर बहुत कुछ पढ़ा, देखा, सुना तब एक ही ख्याल रह-रह कर मन में आया कि आखिर क्या वजह हो सकती है कि हमारी युवा पीढ़ी इतनी संवेदनशील या शायद यहां कमजोर शब्द का इस्तेमाल करना ज्यादा ठीक होगा, हो गयी है। ज़रा सी बात उनके दिलो दिमाग पर इस कदर असर करने लगी है कि उन्हें अपनी कठिनाइयों से संघर्ष करने से ज्यादा आसान, मौत नज़र आती है। जबकि मेरी नज़र में तो आत्महत्या अगर एक प्रकार की कायरता है, तो दूसरी और बड़े ही हिम्मत का काम भी है।
क्यूंकि आसान नहीं है खुद मरना, और यह सोचना कि ऐसा कौन सा तरीका अपनाया जाये जिससे एक ही बार में काम तमाम हो जाये। यक़ीनन यह कदम उठाने के लिए भी बहुत हिम्मत चाहिए। हां यह बात अलग है कि यही हिम्मत यदि जीवन के संघर्ष में दिखाई जाये, तो शायद आत्महत्या करने की नौबत ही नहीं आएगी। मगर यदि इतनी ही सोच और समझ या यूं कहें, कि होश उस आत्महत्या करने वाले इंसान को कहीं से मिल जाये या मिल पाये, तो वह भला आत्महत्या करे ही क्यूं। मगर सवाल यह उठता है कि आख़िर कहां कमी है, जो लोग अपना दुख और समस्या अपने अपनों के साथ बांटने से ज्यादा मौत को गले लगाना आसान समझने लगे हैं।
क्या लोग क्या कहेंगे, या क्या सोचेंगे जैसी बातें इस कदर हावी होने लगी है कि लोग सामना करने के बजाए मर जाना ज्यादा आसान समझ रहे हैं ? इसी सिलसिले में पिछले दिनों मैंने एक और ख़बर कहीं पढ़ी थी कि एक पत्नी ने स्काइप पर अपने पति से बात करते-करते आत्महत्या कर ली। जब तक वह अपनी बहन या माता पिता को फोन कर के बता पता, उसके पहले ही उसकी पत्नी के जीवन का खेल ख़त्म हो चुका था। अब भला यह कौन सा तरीका हुआ बात को सुलझाने या ख़त्म करने का, मेरी समझ में तो यह नहीं आता कि लोग इस सिद्धांत को क्यूं भूलते जा रहे हैं कि जान है तो जहान है ।
मेरी नज़र में तो ऐसी कोई समस्या नहीं है, जिसे आपस में बात करके सुलझाया नहीं जा सकता। बस ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत होती है। कम से कम मेरे माता-पिता ने मुझे यही सिखाया है और यही शिक्षा दी है कि दर्द हमेशा बांटने से कम होता है और खुशी हमेशा बांटने बढ़ती है।
शायद अब यह बातें हम अपने बच्चों को सिखा ही नहीं पा रहे हैं। इसलिए शायद आजकल के बच्चे अंदरूनी तौर पर अत्यधिक संवेदनशील होते जा रहे है। आख़िर इस सब का जिम्मेदार कौन है हमारी परवरिश, आजकल का माहौल, समाज, कानून व्यवस्था, नयी तकनीक, प्रशासन, या फिर रुपहला पर्दा, मुझे नहीं लगता इन में से किसी भी एक कारण को दोषी ठहरा कर हम इस समस्या से निजात पा सकते है। क्यूंकि यदि हम ऐसा करते है, तो यह तो वही बात हुई कि अपने किए का घड़ा दूसरों के सर फोड़ना हुआ, ऐसा ही एक और किस्सा सुना मैंने, पिछले दिनों जब परीक्षा परिणाम आना प्रारंभ हुए थे। एक पिता ने अपनी बेटी से कहा था हम एक साथ बैठकर इंटरनेट पर तुम्हारा परिणाम देखेंगे, बस एक मिनट रुको। मगर बच्चों में इतना सब्र कहां, उस बच्ची से रुका नहीं गया। पिता के जाते ही उसने कम्पूटर पर अपना परिणाम देखा और नतीजा अच्छा न होने कि वजह से सातवी मंज़िल की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर डाली।
यह सब सुन-सुनकर मेरे मन में यही सावल उठता है कि आत्महत्या करने वाला व्यक्ति केवल अपने बारे में ही क्यूँ सोचता है हमेशा? क्यूं उसे यह खयाल नहीं आता कि उसकी ज़िंदगी केवल उसकी नहीं उससे और भी बहुत सी ज़िंदगियां जुड़ी है, जो उसके जाने के बाद उसकी याद में घुट-घुट कर स्वतः ही ख़त्म हो जाएंगी। इन सब किस्सों को मद्दे नज़र रखते हुए मुझे ऐसा लगता है कि कुछ भी हो। आज की तारीख़ में हमें अपने बच्चों को यह समझाना बहुत ज़रूरी हो गया है कि ज़िंदगी कैसी भी हो मौत से हसीन हैं।
यह बात अपने बच्चों को समझाना सभी अभिभावकों के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना उन्हें संस्कार देना। हमें उनके मन में यह बात बिठाना ही चाहिए कि जब कभी हमें ऐसा लगे कि हमारे दुख दर्द से बड़ा और किसी का दुख दर्द नहीं है। तब वह एक बार, सिर्फ एक बार अपने दुख दर्द को भूल कर औरों की तकलीफ़ों को खुद अपनी आंखों से देखे, समझे, उन्हें महसूस करने कि कोशिश करे। तब कहीं जाकर उसे इस बात का एहसास होगा कि दुनियां में केवल वह अकेला ही एक ऐसा इंसान नहीं है जो दुखी है।
मैं जानती हूं यह सब बातें किताबी बातों के जैसी है और ज़्यादातर मामलो में किताबी बातें आम जन जीवन में लागू नहीं हो पाती। क्यूंकि कहना करने से ज्यादा आसान होता है। मगर हम कोशिश तो कर ही सकते हैं ना, इन्हें अपने निजी जीवन में लाने की औरों का तो मुझे पता नहीं, मगर मेरी कोशिश हमेशा यही रहती है। जब कभी मेरा छोटा सा बेटा किसी विशेष खिलौने को लेकर गुस्से में यह कहता है कि काश मेरी ज़िंदगी कुछ और होती। काश मेरे पास यह होता, वो होता, तब हमेशा मैं उसे यही समझाती हूँ, कि काश की उम्मीद रखना अच्छी बात है क्यूंकि उम्मीद पर दुनिया कयाम है। उम्मीद होगी तभी लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। मगर जो है उसमें भी इंसान को खुश रहना आना चाहिए। जिनके पास यह भी नहीं ज़रा उनके बारे में तो सोचो उन्हें कैसा लगता होगा। तुम्हारे पास आज जो नहीं है, वो कल हो सकता है। मगर जिनके पास कुछ भी नहीं है उनका क्या ज़िंदगी बहुत छोटी है, जब जो मिले हंस कर लेते चलो क्या पता कल हो ना हो, भविष्य के बारे में सोचो, मगर वर्तमान को भी पूर्णतः जियो।
क्या यही सच नहीं है ज़िंदगी का, जिसे हमें अपने बच्चों में पौधों को धरती में रोपने के समान, उनके जीवन में रोपने की जरूरत है। मुझे तो ऐसा ही लगता है दोस्तों। आपका क्या ख्याल है।
(इस आलेख में लेखिका के निजी विचार हैं।)

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