कश्मीर में आपदा से क्या सीखा?
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कश्मीर में आपदा से क्या सीखा?

सदियों से कश्मीर को धरती का स्वर्ग माना जाता रहा है, और यहां आए जल-प्रलय ने इस बात को साबित कर दिया कि स्वर्ग भी नरक बनने का सामर्थ्य रखती है। बड़ा सवाल यह कि धरती के इस स्वर्ग को नरक बनने का सामर्थ्य किसने दिया? कश्मीर में जल-प्रलय के पीछे आखिर कौन सी शक्ति काम कर रही है? हमें इन सवालों से जूझना होगा और इससे सबक सीखना होगा।
 
जम्मू-कश्‍मीर में आई बाढ़ यहां बीते करीब छह दशकों में आई सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि धरती का स्वर्ग कहलाने वाले इस इलाके को नरक जैसे हालात का सामना करना पड़ रहा है? जानकारों का मानना है कि मानते हैं कि श्रीनगर और आसपास के इलाकों के अधिकारियों ने स्‍थानीय झीलों और जलाशयों के संरक्षण में बेहद लापरवाही बरतकर इस तरह की आपदा को दावत दी। राज्‍य सरकार की ओर से कराए गए कई अध्ययन और कुछ वैज्ञानिक रिपोर्ट्स में इस बारे में सचेत भी किया गया, लेकिन इस खतरनाक आहट के संकेत को न ही समझा और न ही कोई कदम उठाया गया। जलप्रलय के नतीजे हमारे सामने हैं।
 
प्राकृतिक संसाधनों के लगातार दोहन की वजह से जलवायु में आ रहा परिवर्तन इस तरह की आपदाओं को बल प्रदान करता है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 110 साल में देश में प्राकृतिक आपदाओं का सालाना औसत करीब 140 गुना बढ़ा है। जीआईएस लैब और जम्‍मू-कश्‍मीर स्‍टेट रिमोट सेन्‍स‍िंग सेंटर के अध्ययन के मुताबिक, श्रीनगर में मौजूद 50 प्रतिशत से ज्‍यादा झील और अन्य जलाशय बीती शताब्‍दी में लुप्त हो गए। ये जलाशय बाढ़ का बहुत सारा पानी अपने अंदर समा सकते थे। ज्यादा नहीं, एक शताब्‍दी पहले श्रीनगर शहर का बहुत सारा इलाका जलाशयों, झीलों से घिरा हुआ था। वैज्ञानिकों ने 1911 से 2004 के बीच झीलों के सिकुड़ने की सैटेलाइट स्‍टडी की। इसके मुताबिक, श्रीनगर में जलाशयों के सूखने की वजह से शहर की आबोहवा पर बुरा असर पड़ा है।
 
रिपोर्ट के मुताबिक, बाढ़ के दौरान जलाशयों में रेत खनन के साथ बढ़ते अतिक्रमण, मिट्टी पाटे जाने, पौधरोपण, निर्माण कार्य की वजह से श्रीनगर में मौजूद जलाशय लगातार खत्‍म होते गए। इनके खत्‍म होने से जो सबसे बड़ी समस्‍या शहर के सामने आई, वह ड्रेनेज या जल निकासी की समस्या पैदा हुई। वैज्ञानिकों का कहना है कि हाल के सालों में घाटी में दो-तीन दिन की बारिश से झेलम नदी में बाढ़ का खतरा मंडराने लगता है, लेकिन दो-तीन दशक पहले ऐसा नहीं होता था।
 
पहले नदी के करीब के इलाकों में वही रहते थे, जिनकी आजीविका नदी से जुड़ी होती थी। ऐसे में बाढ़ आदि की चेतावनी मिलने पर उन्हें तुरंत इलाका छोड़ने के लिए कहा जाता था। रिहाइशी इलाके ऊंचे जगह पर बनाए जाते थे। पहले जो जमीनें प्राकृतिक ढंग से नदी का पानी सोखते थे, उन पर अब इंसानी कॉलोनियां बस गई हैं। इसके अलावा, पानी निकासी की जगहों पर पक्की सड़कें बन गई हैं। इसके अलावा इलाके में लगे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट भी इस आपदा के लिए जिम्मेदार हैं। इन परियोजना की वजह से नदियों पर बांध बनाने, वनों की कटाई, नदियों के दिशा मोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ी। इन्हीं प्रक्रियाओं की वजह से भूस्खलन और अचानक बाढ़ आने की घटनाओं में वृद्धि हुई है।
 
जल प्रलय के पीछे एक प्रमुख वजह यह भी माना जा रहा है कि मानसूनी बारिश के स्तर का अंदाजा लगाना मौसम वैज्ञानिकों के लिए लगातार मुश्किल होता जा रहा है। उदाहरण के तौर पर, श्रीनगर में 5 सितंबर को होने वाली औसत बारिश का स्तर 0.4 मिमी होता है, लेकिन इस साल यह 49 मिमी रही जो औसत से करीब 122 गुना ज्यादा है। अब इतने बड़े अंतर का आंकलन कोई कैसे कर सकता है। कहने को तो कह दिया जाता है कि यह सब जलवायु परिवर्तन की वजह से हो रहा है, लेकिन इस जलवायु परिवर्तन के पीछे जो मानवीय अतिक्रमण की कहानी लगातार फल-फूल रही है उसको दफन करना ही होगा।
 
वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वर्तमान हालात के मद्देनजर तत्‍काल प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो बहुत देरी हो जाएगी। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की मानें तो सरकार बस यह कहकर खानापूर्ति कर रही है कि इस तरह की घटनाएं असंतुलित मानसून और पश्चिमी विक्षोभ का नतीजा हैं, लेकिन यह मानकर सरकार हालात की गंभीरता को नजरअंदाज कर रही है। सरकार प्राकृतिक त्रासदि‍यों के पीछे की सही वजह जानने की कोशिश नहीं कर रही है। पर्यावरण मंत्रालय पारिस्थितिकी तंत्र और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की दिशा में पर्याप्‍त ध्‍यान नहीं दे रही है।
 
यहां हमें कुछ और चीजें समझनी जरूरी है। हम भारतीय कितनी निर्दयता से पीड़ा से छटपटाती अपनी धरती पर घाव पर घाव बना रहे हैं। स्थान-स्थान पर उसे काट रहे हैं। वनों का विनाश कर उसे नंगा कर रहे हैं। नदी-नालों के अविरल प्रवाह में बाधा पर बाधा डाले जा रहे हैं। क्लाउड बर्स्ट के कारण बृहद हिमालय की तलहटी की पट्टी के हजारों गांव बार-बार प्राकृतिक विदाओं की त्रासदी भोग रहे हैं, झेल रहे हैं। यही वह पट्टी है, जो जब-जब भूकंपों से डोलने लगती है, कांपने लगती है तो पहाड़ टूटते हैं, ढालें सरकती हैं और धरती धंसती है।
 
मौसम विज्ञानी सालों साल से कहते आ रहे हैं कि जलवायु परिवर्तनों के कारण अब देश में मानसूनी वर्षा असमान रूप से होगी और अतिवृष्टि या अनावृष्टि का दुष्चक्र चला करेगा। हिमालय के उत्तराखंडी अंचल हों या हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी वादियों हो या फिर जम्मू कश्मीर में जल प्रलय का जो नजारा हमने हाल में देखा, इस खतरे का अनुमान पहले से ही जताया जा रहा था। लंबे-लंबे समय तक सूखा पडने के बाद जब वर्षा होती है तो अनवरत मूसलाधार पानी बरसता है। और तब उफनती-उमड़ती नदियां विनाशकारी बन जाती हैं।
 
वर्ष 2009 में जिला पिथौरागढ़ के मुन्स्यारी-तेजम क्षेत्र में और 2010 तथा 2012 में गढ़वाल की भागीरथी और अलकनंदा घाटियों में प्रकृति के अकल्पनीय प्रकोप को कभी भुलाया नहीं जा सकता। जम्मू कश्मीर में जिस तरह का जल प्रलय हमने सितंबर महीने के शुरू में देखा, सदियों तक लोग इसे जेहन में रखेंगे। लेकिन जेहन में रखने से क्या? मूसलाधार वर्षा के आघात और उमड़ती-उन्मादिनी सरिताओं एवम् नदियों के कटाव के कारण पर्वतीय ढालें टूट-टूट कर फिसल रही हैं, धंस रही हैं। भूस्खलनों की विभीषिका थमती ही नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, भारतीय हिमालय के अलग-अलग क्षेत्रों में साल 2008 तक करीब 2,10, 000 कि.मी. लंबी सड़कों का निर्माण किया जा चुका है। सड़कों का जाल बिछाने का एक परिणाम यह हुआ है कि हिमालय की धरती के प्रभावित क्षेत्रों में कटाव-घिसाव सामान्य से डेढ़-दो हजार गुना बढ़ गया है।
 
यथार्थ की परवाह किए बिना हम नदियों के प्राकृतिक मार्गों में अवरोध खड़े कर रहे हैं, उनके प्रवाह में बाधा डाल रहे हैं, घर बना रहे हैं, ऊंचे-ऊंचे होटल खड़े कर रहे हैं, दुकानों की कतारें लगा रहे हैं। जब उफनती-उमड़ती नदी अपने पूरे जोश में होती है, उफान में होती है तब अपने मार्ग की बाधाओं को हटाती-मिटाती बहती है। यही हुआ है जम्मू कश्मीर में झेलम और चिनाब नदी में जल प्रलय, उत्तराखंड के मंदाकिनी, अलकनंदा, पिंडर, सरयू, रामगंगा, धौली (दारमा) और काली की घाटियों में। उनके प्राकृतिक मार्गों में बने गांव, मकान, होटल, पुल सभी बह गए। क्या गांव, क्या शहर सभी उजड़ गए। आक्रांत, असहाय, बेसहारा लोगों का सर्वस्व नष्ट हो गया। निश्चित रूप से हमें इन सब मानवजनित विकृतियों से पार पाना होगा। समय रहते अगर नहीं सुधरे तो वो दिन जरूर आएगा जब पूरी मानव जाति के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा हो जाएगा।
 

 

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