कांग्रेस-बीजेपी का साझा संकट
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कांग्रेस-बीजेपी का साझा संकट

देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा एक बार फिर अपने-अपने जनाधार विहीन नेताओं के कुचक्र के शिकार होते दिखाई दे रहे हैं। महज कुछ हफ्तों में लोकसभा चुनाव शुरू हो जाएंगे। ऐसे में दोनों ही राष्ट्रीय दलों के कुछ चुने हुए नेताओं के फैसले, बयानों के चलते एक बार फिर ऐसा लगता है कि ये आम चुनाव भी सकारात्मक मुद्दों के बजाय जाति, मज़हब और क्षेत्रीयता के मकड़जाल में उलझ जाएगा।

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वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दल एक बार फिर अपने-अपने जनाधार विहीन नेताओं के कुचक्र के शिकार होते दिखाई दे रहे हैं। महज कुछ हफ्तों में लोकसभा चुनाव शुरू हो जाएंगे। ऐसे में दोनों ही राष्ट्रीय दलों के कुछ चुने हुए नेताओं के फैसले, बयानबाजियों के चलते एक बार फिर ऐसा लगता है कि ये आम चुनाव भी सकारात्मक मुद्दों के बजाय जाति, मज़हब और क्षेत्रीयता के मकड़जाल में उलझ जाएगा।
शुरुआत बीजेपी में चल रहे आंतरिक द्वन्द से करना मुनासिब होगा। इस बार चुनाव को लेकर बड़े सकारात्मक संकेत मिल रहे थे। देश की जनता को इस बात का अहसास हो रहा था कि एक बार फिर Positive Issues को लेकर चुनावी राजनीति हो रही है और इस बार यही सकारात्मक मुद्दे फोकस में हैं। ऐसा लग रहा था कि कि एक बार फिर डेवलेपमेंट, एंटी करप्शन और एंटी माफिया पॉलिटिक्स का दौर आ रहा है। जनता को लगने लगा था कि इस बार इन्ही मुद्दों पर अपने वोट के अधिकार का इस्तेमाल करना है। लेकिन ठीक ऐसे वक्त में दोनों ही दलों के नेताओं ने फिर एक बार निजी स्वार्थों के लिए चुनावी रणनीति को derail करने की कोशिश शुरु कर दी हैं।
नरेंद्र मोदी के सवालों में घिरे अतीत को दरकिनार करते हुए बीजेपी ने पूरे देश में उनकी छवि एक विकास पुरुष, सफल प्रशासक, दूरदर्शी और युवाओं को साथ लेकर चलने वाले नेता की बनाई है। ऐसा इसीलिए भी किया है क्योंकि देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जब इसकी जनता एक ऐसे ही नेता की तलाश में है जो ना सिर्फ अनुभवी हो बल्कि उसकी साफ सुथरी छवि भी हो और जो समाज के हर वर्ग को एक साथ विकास की राह पर आगे ले सके। साफ है कि ऐसे वक्त में बीजेपी के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी कि इन मुद्दों से ध्यान हटाकर बहस को जाति और संप्रदाय की ओर ले जाया जाए। लेकिन पिछले 3-4 दिनों में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कुछ ऐसी घटनाएं हुई है जिससे ऐसा अहसास होने लगा है कि पार्टी के ही कुछ नेता ऐसे भी हैं जो नहीं चाहते है कि देश में positive issues पर चुनावी बहस हो। ये जानते हुए भी इस तरह के मुद्दों पर आगे बढ़कर पार्टी को अतीत में भी कभी कामयाबी नहीं मिल पाई है।
नरेंद्र मोदी के लिए एक दौर राजनैतिक Untouchability का रहा है। यहां तक कि मोदी के अतीत की वजह से पहले ही कुछ दल NDA से कन्नी काट चुके हैं। ऐसे में पार्टी के कुछ शीर्ष नेताओं की ही तरफ से गुजरात दंगों के गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिश की जा रही है। वो भी तब जब अपनी कोशिशों की बदौलत नरेंद्र मोदी माहौल को बदलने में काफी हद तक कामयाबी हासिल कर चुके हैं। ऐसे में पार्टी के शीर्ष नेताओं की ओर से जो किया जा रहा है उससे पार्टी को फायदे की जगह नुकसान ही हो रहा है।
भारतीय जनता पार्टी एक तरफ ये दावा कर रही है कि वो जाति मजहब संप्रदाय से ऊपर उठकर इंसान को सिर्फ इंसान समझती है। विकास की बात करती है तो वहीं दूसरी तरफ अलग-अलग वर्गों और संप्रदायों की संगोष्ठियों का आयोजन किया जाता है। ऐसा क्यो? क्यों पार्टी ने अलग-अलग वर्गों, समुदायों और संप्रदायों के प्रकोष्ठ बनाए हैं और उन्हें अभी तक चला रही है ? अगर पार्टी जाति और मजहब के नाम पर वोट नहीं मांगने का दावा करती है, धर्म संप्रदाय की सियासत नहीं करने का दावा करती है पार्टी में बने इस तरह के सभी मोर्चे खत्म क्यों नहीं किए जाते और ऐसे में बाकी दलों और बीजेपी में फर्क क्या रह जाता है?
विकास की बात करके आगे बढ़ रही बीजेपी को अचानक उदित राज अच्छे लगने लगते हैं। वही उदित राज जो पिछले एक दशक से उत्तर प्रदेश में दलितों के नेता बनने की विफल कोशिश करते रहे हैं। उनके जरिए बीजेपी मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने के ख्वाब देख रही है। उदित राज जो अपने प्रत्याशियों को नहीं जिता पाए वो बीजेपी की कितनी मदद कर पाएंगे इसका जवाब बीजेपी के उन नेताओं के पास ही होगा जिन्होंने खुली बांहों से पार्टी में उदित राज का स्वागत किया है। वहीं बिहार की राजनीति में बीजेपी को राम विलास पासवान में उम्मीद नज़र आने लगी है।
ये वही रामविलास पासवान हैं जो पिछले चुनाव में अपनी सीट भी नहीं बचा पाए, जिन्हें लालू यादव ने राज्यसभा पहुंचाया, शायद इसीलिए कि राजनैतिक दोस्ती बनी रहे। वही रामविलास पासवान अब बीजेपी से गठबंधन कर बिहार में लोकसभा का चुनाव लड़ने जा रहे हैं। शायद इसलिए कि सीबीआई का शिकंजा कसते ही एक चतुर अवसरवादी की तरह उन्हें मोदी से प्यार हो गया है। उन्हें हवा का रुख मोदी की तरफ बहता दिखाई दे रहा है। ये वही राम विलास पासवान हैं जिन्होंने मोदी के मुद्दे पर ही NDA को तलाक दिया था और मोदी के लिए ही Reunion के लिए तैयार हैं। साफ है कि एक बार फिर बीजेपी के नेता जो प्रयोग कर रहे हैं उससे ना सिर्फ मोदी को भारी नुकसान होने जा रहा है बल्कि देश में जो डेवलेपमेंट पॉलिटिक्स और एंटी करप्शन पॉलिटिक्स का माहौल बना है उसे भी धूमिल करने की कोशिश की जा रही है और ऐसे नेताओं से मोदी के साथ-साथ देश के लोगों को भी जागरूक रहने की जरूरत है।
बीजेपी में जो मुहिम अटल बिहारी वाजपेयी जी ने शुरू की थी मोदी अब जिसे आगे बढ़ाने की बातें कर रहे हैं पासवान के आने के बाद उस मुहिम का क्या होगा? उनके साथ समझौते के बाद बिहार में पासवान को दी जाने वाली सीटों पर कौन से उम्मीदवार खड़े किए जाएंगे ये तो जनता भी देखेगी। दरअसल बीजेपी के ऐसे ही नेताओं की ओर से यूपी में पहले भी ऐसा प्रयोग हो चुका है जब साझा सरकार के नाम पर 18 दागी लोगों को मंत्री बना दिया गया था और उसके बाद यूपी में पार्टी का क्या हाल हुआ...ये किसी से छिपा नहीं है।
ठीक इसी तरह कांग्रेस में भी कुछ ऐसे नेता हैं जो चुनाव के समय बरसाती मेंढक की तरह बाहर निकल आते हैं। जुबानी जमाखर्च करके गैर जिम्मेदाराना बयान देते हैं और उससे विरोधियों को तो कम लेकिन अपनी ही पार्टी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। ये वही नेता हैं जो अपने दम पर अपनी सीट जीतने में ही नाकाम साबित होते रहे हैं। जो 10 सालों तक सत्ता सुख भोगने के बाद अचानक ये ऐलान करने लगते हैं कि यूपीए 2 के तौर पर गठबंधन की सरकार बनाना कांग्रेस की भूल थी और जिन्हे आजादी के 6 दशकों बाद ये याद आता है कि जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था गलत है ऐसे नेता जो अपनी ही सरकार की जांच एजेंसियों के कामकाज पर सवाल उठाते हैं, मंत्रिमंडल के फैसलों के खिलाफ बोलना जारी रखते हैं। ऐसे नेताओं से कांग्रेस आलाकमान को भी कई बार शर्मिंदगी उठानी पड़ चुकी है। तो क्या अब आलाकमान ऐसे नेताओं पर लगाम लगाने की कोशिश करेगा।
ऐसा लगता है कि दोनों ही राष्ट्रीय़ दलों के जनाधार विहीन नेता अपने-अपने नेतृत्व को ब्लैकमेल करके , डराकर, सियासी कुचक्र में फंसाकर अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखना चाहते हैं। ऐसे नेता नहीं चाहते हैं कि देश में राजनीति सकारात्मक मुद्दों पर हो क्योंकि ये नेता जानते हैं कि अगर एक बार देश की राजनीति इन सकारात्मक मुद्दों पर चल पड़ी तो ऐसे नेताओं का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा और शायद इसीलिए ये नेता अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए अपनी अपनी पार्टियों को इस तरह की असहज स्थितियों में ढकेलने की कोशिश करते रहते हैं।
क्षेत्रीय दलों की तो बुनियाद ही सांप्रदायिक, जातीय भेदभाव पर टिकी है। क्षेत्रीयता को बढ़ावा देकर इन सियासी क्षेत्रीय दलों ने अपना अपना वजूद बनाया है और आगे भी अपना वजूद बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन देश के 2 बड़े राष्ट्रीय दलों से तो कम से कम इस तरह की संकीर्ण विचारधारा से ऊपर उठकर देशहित और समाजहित में राजनीति करने की अपेक्षा देश की जनता कर ही सकती है।

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