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बिमल कुमार
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने बीते हफ्ते कोयला ब्लॉक आवंटन, रिलायंस पावर को अतिरिक्त कोयले की आपूर्ति और दिल्ली एयरपोर्ट से संबंधित डायल को लेकर एक ऑडिट रिपोर्ट पेश की। इनमें कुल मिलाकर सरकारी खजाने को 3.81 लाख करोड़ रुपये की चपत लगने की बात सामने आई है।
भ्रष्टाचार और घोटाले को लेकर सरकार तो पहले से ही घिरी थी और अब कैग के इस नए ‘विस्फोट’ ने सरकार के समक्ष एक ‘महासंकट’ खड़ा कर दिया है।
यानी संकट पहले से काफी बड़ा है और निशाने पर सीधे प्रधानमंत्री हैं, जिनकी छवि अब तक बेदाग रही है। जिन कोयला ब्लॉक के आवंटन को लेकर सवाल उठाए गए हैं, वह साल 2006 से 2009 के बीच आवंटित हुए। इस दौरान कोयला महकमा प्रधानमंत्री के अधीन था। दरअसल कोयला आवंटन और टूजी स्पेक्ट्रम मामले में कमोबेश समान तरीके से गोरखधंधे को अंजाम दिया गया। नीलामी के बजाय पहले आओ और पहले पाओ की नीति को अमल में लाया गया। इससे साफ है कि घोटाले को सियासी मिलीभगत करके अंजाम दिया गया। जबकि कानून मंत्रालय ने उस वक्त साफ कहा था नीलामी ही सबसे बेहतर रास्ता है। पर इसकी राय को अनदेखा कर दिया गया। जबकि सरकार की यह सफाई कि राज्य सरकारों के विरोध के चलते केंद्र को प्रतिस्पर्धी बोली की प्रक्रिया टालनी पड़ी, गले से नीचे नहीं उतरती।
यानी मनमाने तरीके से नियमों को तोड़-मरोड़कर कर पसंदीदा कंपनियों को फायदा पहुंचाया गया। इतनी बड़ी रकम के गोलमोल होने के बाद भी यदि सरकार इसे ‘डकारने’ में जुटी है तो समझा जा सकता है कि भ्रष्टाचार मुक्त देश का सपना, कहीं सपना ही बनकर ही न रह जाए। हैरत तो उस समय हुई जब सरकार के आला मंत्री कैग रिपोर्ट को खारिज करते हुए इसे आधारहीन और तथ्यों से परे बताने में जुट गए। ऐसा लगा मानो कि कैग ने कुछ भारी गलतियां कर दी हो और आंखें तरेरते हुए सरकार उसकी कान खींचने में लग गई। सवाल यह पैदा होता है कि कैग तो एक संवैधानिक संस्था है, तो फिर किस हक से पूरी सरकार अमला उसके अस्तित्व पर सवाल उठाने लगा। इस रिपोर्ट पर चौतरफा हंगाम मचने के बाद चिदंबरम साहब ने सफाई देते-देते इस ‘महाघोटाले’ को जीरो लॉस तक करार दे डाला। तर्क भी ऐसा जो हजम ही न हो।
हैरतअंगेज तर्क यह था कि जब आवंटित खदानों में से एक को छोड़कर किसी में खनन कार्य हुआ ही नहीं हो तो फिर नुकसान कैसा। जाहिर सी बात है, जब कोई खदान किसी को आवंटित कर दिया गया तो मालिकाना हक तो उसका ही है। ऐसे में खनन के बाद जब कमाई होगी तो तिजोड़ी उसकी भरेगी, पर सरकारी खजाने में क्या जाएगा। हालांकि बाद में चिदंबरम सफाई देते नजर आए कि जीरो लॉस का उनका आशय यह नहीं था।
गौर हो कि कोयला ब्लाक आवंटन में कथित घोटाले को लेकर संसद में बीते हफ्ते से ही जोरदार हंगामे का क्रम अभी तक जारी है। न विपक्ष को कुछ स्वीकार है और न सरकार की सेहत पर कोई असर है। सरकार एवं विपक्ष के अपने-अपने रुख पर अड़े रहने से इस स्थिति के लंबा खिंचने के आसार बने हुए हैं। इसमें किसका कितना फायदा और कितना नुकसान है, इसका खुलासा शायद ही हो, लेकिन दलों के बीच आरोपों-प्रत्यारोपों में एक-दूसरे के ऊपर जो कीचड़ उछाले जा रहे हैं, उससे यह साफ है कि केंद्र और राज्यों के स्तर पर खनन क्षेत्र में जमकर लूट को अंजाम दिया गया है। यानी दामन किसी के भी साफ नहीं हैं। इन घोटालों के पीछे सियासी मिलीभगत को कतई अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
सरकार ने अपने पलटवार में यह भी कह डाला कि कैग रिपोर्ट में कोयला ब्लॉक आवंटन से राजस्व नुकसान की बात सही नहीं है। उस दौरान जो प्रक्रिया अपनाई गई थी, वह पारदर्शी थी। सरकार के एक मंत्री तो अपने बचाव में यहां तक कहा कि नीतियां बनाना सरकार की जिममेदारी है। कैग अपने दायरे में काम नहीं कर रहा है। वहीं, भाजपा का कहना है कि कोयला धांधली मामला टूजी आवंटन घोटाले से भी बड़ा है। कैग की इस रिपोर्ट से महाघोटाले की पोल खुल गई है।
कैग रिपोर्ट पर कोई स्पष्ट जवाब देने के बजाय कांग्रेस ने अपना रुख और हमलावर बना लिया। कांग्रेस अध्यक्ष के खुले संकेत के बाद तो इस `महासंग्राम` के और लंबा खिंचने के आसार हैं। पर नुकसान तो हर हाल में देश का ही है। चाहे वह `महालूट` हो या संसद में कार्यवाही का स्थगन। पर इन सियासी खींचतान में असल मुद्दा गौण होता नजर आ रहा है। मुद्दा यह कि सरकारी खजाने को हुए लाखों करोड़ों के नुकसान की भरपाई कैसे होगी और कौन करेगा। इसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को कानून की दहलीज तक लेकर कौन जाएगा। घोटालों का अनवरत दौर कब थमेगा। क्या कभी कोई सरकार अपने दामन साफ रखकर देश के सही और असली विकास की नींव रखेगी। ये सवाल तो तूफानी वेग से कौंधते हैं, पर वास्तव में कभी उम्मीद की कोई किरण नजर आएगी।
विपक्ष केवल प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग पर अडिग है, वहीं सरकार का रुख भी अडि़यल बना है। इस गतिरोध से आखिर क्या और किसका फायदा होगा। क्या इसके पीछे की वजह कुछ और है। सियासी लाभ और अपना दामन बचाने की कवायद तो नहीं हो रही है। खैर गतिरोध तो टूटना ही है, लेकिन चिंता इस बात की है कि टूजी प्रकरण का जो हश्र हुआ, वही कोयले की इस धांधली में भी न हो। और सभी दागदार बाद में `बेदाग` होकर बाहर निकल आएंगे। टूजी घोटाला सामने आने के बाद भी सरकार ने कैग को लताड़ा था और कहा था कि यह संस्था अपनी लक्ष्मण रेखा को पार गई है। कैग के प्रति वैसा ही आक्रामक रवैया इस बार भी अपनाया गया। यदि कैग जैसी संस्था के साथ इस तरह का रुख जारी रहा तो देश में घोटाले दर घोटाले होते रहेंगे और जनता को भनक तक नहीं लगेगी। यहां सवाल घोटालों पर गंभीर रुख अपनाने का है और इसे किसी भी स्तर पर रोकने का है। नहीं तो देश की खस्ता माली हालत से जनता को बेहाल होते देर नहीं लगेगी।
कोयला आवंटन और टूजी मामले में कैग ने जिस रकम की ओर इशारा किया है, वह काफी बड़ा व भयानक है। यदि दोनों घोटालों के कुल रकम को मिला दिया जाए तो देश की शक्ल और सूरत दोनों ही बदल जाएगी। इन रिपोर्टों में कैग ने साफ कहा है कि सरकार ने निविदा प्रणाली को ताक पर रख तमाम कोयला ब्लॉक का आवंटन किया। सच्चाई यह है कि सरकार सात साल तक नीलामी प्रक्रिया पर विचार करती रही, लेकिन इसे लागू नहीं किया गया। अब सवाल यह उठता है कि क्या सरकार की मंशा इसे कभी लागू करने की थी ही नहीं। इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद तमाम पूरी सरकार ही इसे झुठलाने पर तुल गई और इसे जीरो लॉस करार देकर बेबुनियाद और खोखले दावे का तर्क देने लगी। जबकि कैग ने सरकारी खजाने को नुकसान का अनुमान साल 2010-11 में कोल इंडिया की ओपनकास्ट खदानों से कोयले के उत्पादन की लागत तथा बिक्री मूल्य के आधार पर लगाया है।
गौर करने वाली बात यह है कि मार्च, 2011 तक सरकारी और निजी कंपनियों को 194 कोयला ब्लॉक आवंटित किए गए। आवंटन पर सवाल यह है कि सरकार ने बिना नीलामी के ही कोयला ब्लॉक आवंटित कर दिए। आवंटन प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता का घोर अभाव रहा। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग पर कितने दिन अडिग रहता है, यह तो कुछ दिनों में पता चल जाएगा। पर सिर्फ सियासी लाभ के लिए पहले विरोध मकसद नहीं होना चाहिए। इस मसले पर बहस के बजाय केवल हंगामा कर गतिरोध बनाए रखने का एक और पहलू यह हो सकता है कि विपक्ष कैग रिपोर्ट को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहता है और नजरें आम चुनाव पर हो। शायद सरकार को घेरने और परास्त करने का यह सुनहरा मौका विपक्ष अपने हाथ नहीं जाने देना चाहता हो क्योंकि सरकार इस समय भ्रष्टाचार, महंगाई, मंदी जैसे गंभीर मसलों से जूझ रही है। और सरकार की खराब हुई छवि का वह जनता के बीच जाकर लाभ ले सके। संसद में हंगाम कर कार्यवाही को बाधित करने का एक उद्देश्य सरकार को कठघरे में खड़ा करना भी है।
1993 तक देश में कोयला ब्लॉक आवंटन की कोई तय नीति नहीं थी। इसके बाद अंतर मंत्रालयी स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिशों के आधार पर निजी कंपनियों को कोयला आवंटन शुरू किया गया। नीलामी के आधार पर कोयला आवंटन की प्रक्रिया 2004 में विचार में आई, जिसे सरकार अब तक अंतिम रूप नहीं दे पाई है। इसे विडंबना ही कहा जाए कि विपुल खनिज संपदा के लिए अब तक कोई कारगर नीति नहीं बनाई गई।
अब देखना यह होगा कि कैग रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में पेश करने के बाद इसे लोक लेखा समिति के पास कब तक भेजा जाता है। कैग रिपोर्ट के समिति के पास आने के बाद ही इसका विस्तार से अध्ययन संभव होगा और इस मामले में किसी ठोस कार्रवाई की आधारशिला तैयार हो सकेगी। पर सबसे ज्यादा जरूरत सरकारी संपदा के आवंटन को लेकर एक पारदर्शी प्रक्रिया बनाने की है ताकि इस तरह के `महालूट` पर पूरी तरह रोकथाम लग पाए।