शुरुआती दौर में पटेल और क्षत्रिय हर दल में प्रभावी थे. बाद में कांग्रेस के नेता माधवसिंह सोलंकी और झीनाभाई दारजी ने गठबंधन ने एक नया सामाजिक गठबंधन दिया जिसका नाम रहा- क्षाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम).
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गुजरात में जो चुनाव इस बार लड़ा गया उसमें नफरत, जातिवाद, कीचड़ उछालने जैसी बातों ने कहीं न कहीं विकास की बातों को पीछे कर दिया. किसान भी हाशिये पर था और व्यापारी भी नुकसान से उबरने की कोशिश में लगा हुआ है. ऐसा नहीं है कि पीएम नरेंद्र मोदी के आने के बाद या दिल्ली जाने के बाद गुजरात में ऐसा माहौल बना है बल्कि देखा जाए तो गुजरात की नींव ही इस अस्मिता वाले मुद्दे पर खड़ी हुई है.
महागुजरात आंदोलन और उसके बाद का सच
लेखक कन्हैयालाल मुंशी और किसान नेता इंदुलाल याग्निक उर्फ इंदु चाचा ने मिलकर ‘गुजरात नी अस्मिता’ नाम से जो गुहार लगाई थी उसने गुजरात के राज्य बनने की नींव रखी थी. मुंबई (उस वक्त के बंबई) में गुजरात जुड़ा हुआ था लेकिन 8 अगस्त 1956 में अहमदाबाद से इंदु चाचा के नेतृत्व में शुरू हुआ महागुजरात आंदोलन लगातार तीन साल नौ महीने तक चला. इस आंदोलन के बाद 1960 में गुजरात को अलग राज्य का दर्जा मिला जिसके बाद महागुजरात जनता परिषद का निर्माण हुआ. उस समय गुजरात में कुल 132 विधानसभा क्षेत्र आते थे. 1962 में विधानसभा सीट की संख्या बढ़कर 154 हुई, 1967 में सीटों की संख्या बढ़कर 168 हुई और 1975 में ये संख्या बढ़कर 182 तक जा पहुंची.
1962 में पहला चुनाव राज्य की अस्मिता के नाम पर ही लड़ा गया था जिसमें कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी. लेकिन किसान आंदोलन के अगुवा भाईलाल पटेल उर्फ भाई काका की स्वतंत्र पक्ष ने उन्हें कड़ी टक्कर दी थी. बाद में 1969 में कांग्रेस के दिग्गज नेता मोरारजी देसाई ने इंदिरा गांधी से अपना नाता तोड़ते हुए 1969 में उनसे अपनी राह अलग कर ली थी. 1967-68 में बांसकाठा में आए अकाल के चलते हालात बहुत खराब हुए. आगे चलकर 1969 में भड़के सांप्रदायिक दंगों की वजह से अहमदाबाद में 500 लोगों की जान चली गई थी. 1971 में यहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. 1972 में हुए चुनाव में इंदिरा कांग्रेस ने 168 में से 140 सीटें हासिल करके बड़ी जीत पाई थी.
आपातकाल और अकाल
1968 में आए अकाल ने गुजरात में एक आक्रोश का माहौल खड़ा कर दिया था. जिसकी वजह से तात्कालीन चिमनभाई की सरकार पर भी रोष उबरने लगा था. सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. 1973 में जो छात्र आंदोलन भड़क रहा था उसने पूरे गुजरात को अपनी चपेट में ले लिया था. लगभग 100 शहरों में कर्फ्यू लगाने की नौबत आ गई थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ब्लॉग 'नरेंद्र मोदी.इन' में इस बात का जिक्र किया है कि वह भी इस छात्र आंदोलन का हिस्सा रहे थे. इसके कुछ समय बाद ही आपातकाल लागू हो गया है. 1976 में आपातकाल के हटाए जाने के बाद हुए लोकसभा चुनाव में शंकर सिंह वाघेला और मोरारजी देसाई भारतीय लोकदल पर विजयी हुए और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने थे. 1980 में कांग्रेस ने 26 में से 25 सीट हासिल करके सभी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया था. 1970 से 1975 तक मुस्लिमों की विधानसभा में अहम भागीदारी थी. आयशा बेगम सोमनाथ से विधायक चुनी गईं थी और मंत्री भी बनीं.
जातिवाद का गणित
शुरुआती दौर में पटेल और क्षत्रिय हर दल में प्रभावी थे. बाद में कांग्रेस के नेता माधवसिंह सोलंकी और झीनाभाई दारजी ने गठबंधन ने एक नया सामाजिक गठबंधन दिया जिसका नाम रहा- क्षाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम). इस तरह से उस वक्त पटेल को अलग थलग कर दिया गया था. बाबूभाई पटेल की सरकार में 1978 में 82 जातियों को पिछड़ा में शामिल करने और उन्हें कृषि, चिकित्सा, पशु चिकित्सा, और तकनीकी शिक्षा में दस फीसदी का आरक्षण देना स्वीकार किया था. बाद में सोलंकी सरकार ने न्यायधीश सी.वी.राणे के आयोग की अनुशंसा को मानते हुए अन्य पिछ़ड़ा वर्ग का कोटा बढ़ाकर 28 फीसदी कर दिया था. इसके बाद कांग्रेस ने 1985 में 182 में से 149 सीट पर फतह हासिल की थी. जो किसी भी दल की सबसे बड़ी जीत थी.
राम रथयात्रा ने रोका कांग्रेस का विजय रथ
1990 में सोमनाथ से शुरू हुई लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा ने गुजरात में राजनीति की सूरत को बदल दिया. 25 सितंबर को यह यात्रा शुरू हुई और 30 अक्टूबर को आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया था जिसके बाद भाजपा ने तात्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के दल के साथ नाता तोड़ते हुए समर्थन वापस ले लिया था. लेकिन कांग्रेस के सहयोग की वजह से उनकी सरकार गिरी नहीं. हालांकि इसके बाद जो हिंदुत्व की लहर उठी थी उसने भाजपा की गुजरात में स्थिति को बदलकर रख दिया. 1991 के लोकसभा चुनाव में 20 सीटों पर जीत हासिल करके भाजपा ने अपने तेवर दिखा दिए थे. चिमनभाई पटेल की आकस्मिक मौत के बाद छबीलादास मेहता को यहां का मुख्यमंत्री बनाया गया देखा जाए तो कायदे में यही कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे.
गुजरात में हिंदुत्व रही भाजपा की यूएसपी
रामजन्म भूमि विवाद के दौरान गुजरात हिंदुत्व का गढ़ बनकर उभरा, इसका ही नतीजा था कि 1995 में भाजपा ने 121 सीटों पर जीत हासिल की थी. जिसमें पाटीदारों का भी अहम योगदान रहा था. 2001 वह साल था जो गुजरात के लिए बहुत अहम साल रहा. कच्छ में भूकंप आया और केशुभाई पटेल पर भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा. अक्टूबर 2001 वो वक्त था जिसके बाद भाजपा की भारतीय राजनीति में स्थिति बदल गई. नरेंद्र मोदी को केशुभाई पटेल की जगह गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया. 2002 में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद गुजरात के हालात पूरी तरह बदल गए और हिंदुत्व का मुद्दा उभरकर सामने आया. भाजपा ने चुनाव में 127 सीट के साथ बड़ी जीत दर्ज की. बाद में यही नरेंद्र मोदी गुजरात का गर्व बनकर उभरे. 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बने, तो उसके बाद उनकी शख्सियत इस कदर बढ़ी कि वह आज पार्टी से ऊपर हो गए हैं. आज भाजपा भारत के किसी भी कोने के किसी भी तरह के चुनाव को मोदी का चेहरा लगाकर लड़ रही है और जीत रही है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)