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तेजी से बढ़ रही जनसंख्या और महानगरों की ओर हो रहे पलायन दोनों कई बड़ी समस्याओं की जड़ है। बीते दिनों, दिल्ली सरकार ने प्रदूषण और ट्रैफिक जाम के समाधान के लिये सम-विषम नंबर का ऐसा फॉर्मूला लागू किया जिसने दिल्ली ही नहीं पूरे हिंदुस्तान में सुर्खियां बटोरीं। 15 दिन के ट्रायल पीरियड में काफी हद तक इसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले। लेकिन दिल्ली जैसे महानगरों में बढ़ता प्रदूषण और आनुपातिक रूप से सार्वजनिक परिवहन साधनों की कमी तो समस्या का प्रत्यक्ष रूप है। दरअसल, दिल्ली जैसे शहरों में क्षमता से कई गुना ज्यादा लोग रह रहे हैं। इससे ना तो दिल्ली खुश है ना अपना घर-परिवार छोड़कर यहां आने वाले लोग खुश हैं। इससे प्रदूषण बढ़ रहा है, जीवनयापन महंगा और गुणवत्ताविहीन हो रहा है, अपराध का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, भीड़भाड़ के चलते बदलती जीवनशैली कई बीमारियों का कारण बन रही है, ना पीने को साफ पानी उपलब्ध है ना खाने को शुद्ध-स्वच्छ खाना। करोड़ों लोग खुले में बिकने वाला धूल से सना खाना खाने को मजबूर हैं। इन तमाम समस्याओं का मूल कारण यह है कि हम समस्या के मूल तक जाना ही नहीं चाहते। यदि महानगरों का बोझ कम करना है और छोटे शहरों का भी समान रूप से विकास करना है तो कुछ बेहद जरूरी कदम उठाने पर ध्यान देना चाहिये।
सबसे पहला कदम औद्योगिक विकास का विकेंद्रीकरण (डीआईडी- डिसेंट्रलाइजेशन ऑफ इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट) हो सकता है। जब हम डीआईडी की बात करते हैं तो पहली व्यावहारिक समस्या आती है कि कोई भी मैनुफेक्चरिंग कंपनी उसी जगह अपना कारखाना स्थापित करना चाहती हैं जहां उसे कच्ची सामग्री (रॉ मटेरियल) आसानी से उपलब्ध हो सके और प्रोडक्ट बनने के बाद उसे कम खर्चे में उपभोक्ता तक पहुंचाया जा सके। फिलहाल बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी की जरूरत के चलते छोटे शहर इसके लिये ज्यादा अनुकूल नहीं माने जाते हैं। ऐसे में डीआईडी की शुरुआत उन उद्योगों से की जा सकती है जिनमें प्रोडक्ट को लाने-ले जाने के लिये ट्रांसपोर्ट कनेक्टिविटी की जरूरत नहीं होती। ऐसे उद्योगों को अपेक्षाकृत कम विकसित इन्फ्रास्ट्रक्चर वाले स्थानों पर शिफ्ट किया जा सकता है। इनमें टेलिकॉम, बीपीओ आदि जैसे सर्विस सेक्टर को महानगरों से दूर करने में प्राथमिकता दी जानी चाहिये, क्योंकि इनका संचालन छोटे शहरों में भी किया जा सकता है। साथ ही ये उद्योग उन शहरों के राजस्व में भी वृद्धि करेंगे, जिससे वहां भी वे तमाम सुविधाएं और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने में मदद मिलेगी जो आज नहीं हैं।
औद्योगिक विकास के विकेंद्रीकरण से दो फायदे होंगे। पहला महानगरों का बोझ घटाने के लिये इन उद्योगों के छोटे शहरों में जाने से स्थानीय लोगों के लिये रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी, उन्हें अपना घर-परिवार छोड़कर ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा और संपूर्ण देश का विकास समान गति से करने में मदद मिलेगी। गांवों से सब्जियां, फल आदि जैसे प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादों को शहरों तक लाने का खर्च और श्रम भी बचेगा क्योंकि उनकी ज्यादा खपत छोटे क्षेत्रों में ही होने लगेगी। उद्योगों के स्थानांतरण के इस कदम के लिये प्रशासनिक तौर पर भी कदम उठाए जा सकते हैं। जैसे छोटे शहरों में उद्योग लगाने पर टैक्स में छूट देना, बड़े शहरों में उद्योग लगाने पर ज्यादा टैक्स वसूलना आदि कारगर हो सकते हैं। वैसे सरकार इस क्षेत्र में मुद्रा बैंक जैसे तमाम नुस्खे आजमा रही है, उम्मीद है आगे भी इस दिशा में प्रयास किए जाते रहेंगे। अब जरूरत है कि उद्यमी वर्ग और आम आदमी इस दिशा में कदम बढ़ाने के प्रयास करें।
इसके बाद लगातार बढ़ रही जनसंख्या भी तमाम समस्याओं की जननी है। इस महासमस्या से निपटने के लिये क्या अब ये जरूरी नहीं कि भारत में भी ‘हम दो, हमारे दो’ के नारे को कानूनी रूप दे देना चाहिये, ताकि संभवतः करीब 20 साल बाद हमारे पास देश की जनसंख्या के अनुपात में संसाधन भी उपलब्ध होंगे। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या कई समस्याओं की जड़ है; चाहे वो सड़कों पर दौड़ती भीड़ हो या भयानक जाम हो या एक नौकरी के लिये हजारों आवेदन जैसी गंभीर समस्या हो। जनसंख्या नियंत्रण के नुस्खे में हम चीन से काफी कुछ सीख सकते हैं। चीन ने अपने यहां ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ लागू की थी, जिसे 30 साल बाद हाल ही में ‘टू चिल्ड्रन पॉलिसी’ में तब्दील किया गया है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो दो लोग मिलकर बच्चे को जन्म देते हैं, इसलिये एक की बजाय दो बच्चों की नीति ज्यादा कारगर साबित हो सकती है इससे जन्म-मृत्यु दर का अंतर संतुलित होगा अचानक आबादी में युवाओं का अनुपात कम होने की समस्या का सामना भी नहीं करना पड़ेगा।
भले ही हम सीना तानकर आज यह बात कह रहे हैं कि हम विश्व के सबसे युवा देश के निवासी हैं और युवा हमारी ताकत हैं। लेकिन देश की स्थिति देखकर हम यह बात बेहद अच्छे से जानते हैं कि यही युवा जब बेकार बैठता है तो देश की सबसे बड़ी समस्या को जन्म देता है और कई असामाजिक गतिविधियों को अंजाम देता है। दूसरी तरफ हम भले ही श्रम शक्ति की उपलब्धता का दावा करते हैं, लेकिन ज्यादातर विकसित देश भारतीयों को मजदूरों की तरह ही देखते हैं। दो जून की रोटी की तलाश में विदेशों का रुख करने वाले लोगों को वहां कई तरह की यातनाओं का सामना भी करना पड़ता है। बेहतर होगा कि हम इतने आत्मनिर्भर बनें कि हमें 'भारतवंशियों' की सफलता का श्रेय लेने के बजाय 'भारतीयों' की सफलता पर गर्व करने का मौका मिले। यदि हमारे पास जनसंख्या के मुकाबले सही अनुपात में संसाधन उपलब्ध होते तो हमें नासा में भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान पर गर्व करने की बजाय नासा जैसी संस्था के भारत में होने का गर्व करने का मौका मिलता।