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जम्मू कश्मीर में राजनीतिक हलचल आसमान छू रही है। दस महीने तक रहे मंत्रियों के दिल की धड़कन ऊफान पर है। सत्ता को ना छोड़ने की तमन्ना के बीच बैठकों का दौर भी जारी है। पीडीपी कहती है हम गठबंधन तो चाहते हैं तो भाजपा कह रही है कि हमारा सहयोग बरक़रार है, पीडीपी फैसला ले। तो फिर सरकार गठन में उलझन कहां है?
पहले बात करते हैं घाटी को अपना वोट बैंक मानने वाले दल पीडीपी की। पीडीपी की मुश्किलें मुफ़्ती मोहम्मद सईद के निधन के समय से शुरू नहीं हुई, बल्कि तब शुरू हुई जब इस दल के सबसे बड़े इस नेता के जनाज़े में भीड़ नहीं जुटी। श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर क्रिकेट स्टेडियम जो राज्य के अब तक के मुख्य धारा के सबसे बड़े नेता शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह के नाम पर बनाया गया है में हुए मुफ़्ती मोहम्मद सईद जिनका मुख्यमंत्री होते निधन हुआ के जनाज़े में 1000 से 1500 लोग ही जुटे और इतनी कम भीड़ देख पीडीपी की मुश्किलें शुरू हुई। इससे यह अहसास हुआ कि कहीं कुछ गलत हुआ है।
उम्मीद थी कि शायद लोग बिजबिहारा जो मुफ़्ती का पैतृक गांव था, उन्हें दफ़नाने के समय लोग उमड़ेंगे मगर वहां भी पीडीपी को निराशा ही हाथ लगी। बस फिर क्या था यह सब देख मेहबूबा सहित दल के सभी लोग उलझन में पड़ गए। दरअसल जब वर्ष 2014 में चुनाव हुए तो राज्य की सत्ताधारी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस जो घाटी में आई बाढ़ के कारण कमज़ोर स्थिति में थी को पछाड़ने में पीडीपी लग गई जो उस वक्त मज़बूत स्थिति में थी और उन्होंने यह नारा बुलंद किया कि अगर भाजपा को रोकना है तो पीडीपी का हाथ थामो।
उल्लेखनीय बात यह है कि भाजपा उस दौर में मोदी के चमत्कार के कारण देश में सत्ता हासिल कर चुकी थी और जम्मू में मोदी मैजिक का असर भी ज़ाहिर था। लोगों ने जमकर चुनावों में हिस्सा लिया और 70 प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुआ। चुनाव घोषणाओं के साथ पीडीपी सबसे बड़े दल के तौर पर उभर कर सामने आई मगर जादुई आंकड़े पार नहीं कर सकी।
वहीं जम्मू में मोदी मैजिक ने चमत्कार दिखाया और भाजपा दूसरे बड़े दल के तौर पर उभरी तो इसके साथ ही शुरू हुआ जोड़-तोड़ का गणित। मुफ़्ती मोहम्मद सईद को तब राज्य के सभी दलों ने सहयोग देने की पेशकश की। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने बिना शर्त हाथ बढ़ाया। कांग्रेस मुफ़्ती निवास के आगे-पीछे दौड़ती रही। मगर पीडीपी के दिग्गज मुफ़्ती मोहम्मद सईद दो महीनों तक चुप्पी साधे रहे। फिर फरवरी 2015 में पत्ते खुलने लगे जब भाजपा और पीडीपी की नज़दीकियां बढ़ी। कश्मीर के लोगों के साथ-साथ पीडीपी दल के अधिकतर नेता भी अचंभे में पड़ गए पर मुफ़्ती के सामने दल का कोई भी नेता यहां तक कि पार्टी अध्यक्ष महबूबा भी ज़ुबान ना खोल पाई। आखिर मुफ़्ती ने भाजपा को अपनाया और पीडीपी की ज़मीनी मज़बूती में पहली दरार पड़ती दिखी।
मुफ़्ती जानते थे कि दरार होगी और उसे भरने के लिए कुछ नया सपना लोगों को दिखाना है तो एजेंडा ऑफ़ अलाइस सामने आया। मुफ़्ती ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और भाजपा के साथ सत्ता को बांट दिया। मुफ़्ती ने एजेंडा ऑफ़ अलायन्स की घोषणा भाजपा के विधायक दल के अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री का पद हासिल करने वाले डॉ. निर्मल सिंह के साथ की। एजेंडा ऑफ़ अलायन्स में कई ऐसी बाते हैं जिनसे साफ़ दिखा कि भाजपा ने सत्ता के लिए समझौता किया हो।
मुफ़्ती ने पहले ही दिन यह कहकर अपना तीर चलाया कि जम्मू कश्मीर में सफल चुनावों का श्रेय पाकिस्तान और अलगाववादियों को जाता है। इस बयान ने भाजपा को हिला दिया, यह पहला विवाद था। मगर मुफ़्ती जो समझ कर चले थे वो हुआ नहीं। मुफ़्ती को शासन और राजनीति के लिए छूट नहीं मिली। एजेंडा ऑफ़ अलायन्स में जिन बातों पर भाजपा समझौता करती दिखी थी दरअसल उसे ज़मीनी स्तर पर करना भाजपा के लिए कठिन ही नहीं नामुमकिन था। जैसे अनुच्छेद 370 पर चुप्पी, राज्य के ध्वज को सरकारी गाड़ियों पर लहराना, अलगाववादियों के प्रति नरमी, सेना के पास से प्राइवेट ज़मीन की वापसी, राज्य के पनबिजली परियोजनाओं को राज्य को लौटाना।
पहले दिन शुरू हुआ विवाद बढ़ता गया। जिस एजेंडा ऑफ़ अलायन्स को लेकर मुफ़्ती अपने वोट बैंक में पड़ी दरार को भरना चाहते थे वो बढ़ती गई और उनके निधन तक वह दरार इतनी बड़ी हो गई कि दल को उसकी तकलीफ महसूस होने लगी। यही दरार आज पीडीपी के लिए सरकार गठन की सबसे बड़ी उलझन है और यह मुफ़्ती थे जो इस दरार का भार सहने की सहनशीलता रखते थे मगर यह अब महबूबा मुफ़्ती के बस की बात नहीं। इसलिए महबूबा भागती दिख रही हैं क्योंकि जिस दल को उसने 'सॉफ्ट सेपरेटिज़्म' के नाम पर घाटी में इतना मज़बूत किया हुआ था उसे इतनी आसानी से वह बिखरते नहीं देख सकती।
अब बात करते हैं भाजपा की। जम्मू में अपने कदम जमा चुकी और पहली बार जम्मू कश्मीर राज्य में सत्ता में आई भाजपा न तो सत्ता खोना चाहती है और न ही अपनी ज़मीन जो 10 महीनों के शासनकाल के दौरान वह कुछ हद तक बचा पाई है। दरअसल, भाजपा और पीडीपी के बीच विधायकों का भी ज्यादा अंतर नहीं इसलिए वो सत्ता के लिए दबना नहीं चाहती। जम्मू में अपने चुनावी प्रचार के लिए वो कई ऐसे वादे कर चुकी है जो कश्मीरी लोगों की इच्छा के विरोधी थे। जैसे अनुच्छेद 370 पर बहस होगी, पाकिस्तान से आए हिन्दू रिफ्यूजियों को बसाया जाएगा, अलगाववादियों की ज़मीन तंग की जाएगी, राज्य ध्वज को बेमायने करना तो फिर इन सब मुद्दों पर कैसे वह पीडीपी का साथ दे पाएगी। अगर वो इन सब मुद्दों पर डटी रहेगी तो जम्मू में भाजपा की वापसी निश्चित है। इसलिए वह पीडीपी की मांगों पर अमल ना करते हुए भाजपा चाहती है पीडीपी का साथ दे। अगर ऐसा हुआ तो सब वैसा ही चलेगा जैसा चलता आ रहा था, लेकिन पीडीपी को ऐसा हज़म होना मुश्किल है। यही भाजपा की उलझन है।
अगर फिर से मुफ़्ती की ज़ुबान में कहें तो इस साउथ पोल और नार्थ पोल का गठबंधन दोबारा कैसे होगा? दोनों दलों में से किसी एक को समझौता तो करना होगा लेकिन करेगा कौन? दोनों का वोट बैंक अलग-अलग है इसलिए सरकार गठन में कई उलझने जन्मी हैं जो दिखती तो हैं मगर दोनों दलों में से कोई इनका खुलकर इज़हार नहीं करता क्योंकि अगर इसका खुलासा हुआ तो जम्मू और कश्मीर बंट सकता है जो जम्मू कश्मीर राज्य के लिए घातक सिद्ध होगा। न तो भाजपा और न ही पीडीपी राज्य को बांटकर जीत पाएगी क्योंकि यह देशहित में नहीं होगा। तो फिर क्या राज्य में मध्यावधि चुनावों के बादल तो नहीं मंडरा रहे हैं?
(खालिद हुसैन जम्मू कश्मीर में ज़ी मीडिया के विशेष संवाददाता हैं)