घोषणापत्र को हाशिये पर डाल लोकतंत्र से मुंह मोड़तीं पार्टियां
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घोषणापत्र को हाशिये पर डाल लोकतंत्र से मुंह मोड़तीं पार्टियां

वर्तमान आदर्श आचार संहिता में उल्लेख है कि सभी राजनीतिक दल और उम्मीदवार ऐसी कोई गतिविधि संचालित नहीं करेंगे, जो भ्रष्ट आचरण” मानी जाएं; मसलन मतदाताओं को रिश्वत देना, धमकाना, मतदान केंद्र के 100 मीटर के भीतर प्रचार करना आदि.

घोषणापत्र को हाशिये पर डाल लोकतंत्र से मुंह मोड़तीं पार्टियां

देश की व्यवस्था और समाज का चरित्र बहुत हद तक इस बात से प्रभावित होता है कि किस तरह की राजनीतिक सोच व्यवस्था पर काबिज होती है. लोकतंत्र होगा या तानाशाही, भेदभाव होगा या समानता, सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा या केन्द्रीकरण, हिंसा का भय फैलेगा या शान्ति; यह तय होता है राजनीतिक दलों की विचारधारा से; जनता को चुनना होता है कि वे किस तरह की विचारधारा को माथे पर बिठाना चाहते हैं!

लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक बुनियादी प्रक्रियागत आधार हैं चुनाव
जनप्रतिनिधित्व आधारित व्यवस्था में यह माना जाता है कि नागरिक मतदाता के रूप में अपने प्रतिनिधि को चुनते हैं और उसे यह जिम्मेदारी देते हैं कि वह बेहतर समाज के पक्ष में होकर व्यवस्था को जनोन्मुख स्वरूप प्रदान करे. चुनाव में उम्मीदवार अपना पक्ष रखते हैं, जिनके आधार पर नागरिक चुनाव के जरिये अपने जन प्रतिनिधि को चुनते हैं. चुनाव में उम्मीदवार एक व्यक्ति की हैसियत से उम्मीदवारी करता है, इसके साथ ही दलीय व्यवस्था के तहत विभिन्न राजनीतिक दल लोकतंत्र के मैदान में होते हैं. व्यवस्था व्यक्ति केंद्रित नहीं बल्कि समूह केंद्रित है, जहाँ सरकार बनाने और चलाने का अधिकार उन्हें ही मिलता है, जो बहुमत के साथ एक पक्ष में होते हैं. जरूरी नहीं कि एक राजनीतिक दल ही बहुमत हासिल करे; बहुमत गठजोड़ से भी हासिल होते हैं.

वस्तुतः पिछले तीन दशक की भारतीय राजनीति तो गठजोड़ की राजनीति ही है. आज़ाद भारत के चुनावों में जाति, धर्म, वर्ग प्रभुत्व, क्षेत्रीयता और बाहुबल हमेशा हथियार के रूप में इस्तेमाल किये गए हैं. हमारी पूरी राजनीति इनके इर्द-गिर्द घूमती रही है, व्यापक हित, जन कल्याण और सामाजिक-आर्थिक बराबरी की सोच के आधार पर निर्णय कम ही हुए हैं. चुनावों की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है राजनीतिक दलों के द्वारा घोषणा पत्र जारी किया जाना; वस्तुतः चुनावी घोषणा पत्र राजनीतिक दल या समूह या गठबंधन की नीतियों, सोच, भावनाओं, विचारधारा और नज़रिए का प्रस्तुतिकरण होता है. यह माना जाता है कि कोई भी राजनीतिक दल प्रकाशित घोषणा पत्र के जरिये यह बताता है कि यदि वे सत्ता में आते हैं तो किस प्रकार की नीतियों, कार्यक्रमों और विधानों को लागू करेंगे. इससे उनकी प्राथमिकता का आकलन किया जा सकता है. बहरहाल यह भी एक सच्चाई है कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान राजनीतिक दलों के वरिष्ठ प्रतिनिधियों के द्वारा मंचों से जो बातें, जिस लहजे में कही जाती हैं, उनका जोड़ चुनावी घोषणा पत्रों से दिखाई नहीं देता है. आजकल तो चुनावी घोषणा पत्र राजनीतिक दलों की एक दिवसीय चुनावी रणनीति का हिस्सा भर होते हैं. मीडिया को भी घोषणा पत्र नीरस ही लगते हैं, क्योंकि कई बार उनसे सनसनी नहीं फैलती है या कोई विवाद नहीं उपजता है. ऐसे में मीडिया भी चुनावी घोषणा पत्रों पर एक-दो दिन नज़र रखता है, फिर उसे “सन्दर्भ से बाहर” मान लेता है. वास्तव में चुनावी घोषणा पत्रों का सघन विश्लेषण होना चाहिए क्योंकि यह राजनीतिक दल की नियत और नज़रिए का शपथ पत्र होता है. भारत की राजनीति में मंचों से राजनेताओं द्वारा कही गई बातें बाकायदा “जुमले” के रूप में वर्गीकृत की जा चुकी हैं. जब मतदाता, मीडिया, विश्लेषक भी यह जानते हैं कि तूफानी प्रचार में दिए गए वक्तव्य राजनीतिक दल का “नजरिया और नीति” का प्रामाणिक दस्तावेज नहीं होते हैं, तब भी उन्हें महत्व दिया जाना, हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है.

यदि दुनिया के कुछ अन्य देशों में इस विषय की व्यवस्था को देखा जाए, तो पता चलता है कि अमेरिका में मुख्य रूप से चुनाव घोषणाओं में किसी खास समूह या क्षेत्र को विशेष लाभ दिए जाने का वायदा नहीं होता; अमेरिका में घोषणा पत्रों में मुख्य रूप से आर्थिक नीति, स्वास्थ्य, आंतरिक सुरक्षा, क्षेत्रीय संतुलन, शासन व्यवस्था, पर्यावरण, आव्रजन, रोज़गार सरीखे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित होता है. पश्चिमी यूरोपीय देशों में विभिन्न बिंदुओं पर ठोस घोषणाएं होती हैं, साथ ही उन्हें पूरा करने के लिए जरूरी वित्तीय प्रावधानों का भी अनिवार्यतः जिक्र होता है. भूटान में यह अनिवार्यता है कि घोषणा पत्र जारी करने से पहले वहां के चुनाव आयोग के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाए. इसके बाद ही उसे जारी किया जा सकता है. भूटान के घोषणा पत्रों में मज़हब, स्थानीयता, क्षेत्रीयता, राजा के अधिकारों, राज्य और राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती देने वाले विषयों को घोषणा पत्र में शामिल नहीं किया जा सकता है.   

भारत में वर्ष 1952 से चुनावों की व्यवस्थित प्रक्रिया शुरू हुई. आरम्भ में ज्यादातर राजनीतिक दल घोषणा पत्र का प्रकाशन नहीं करते थे, किन्तु समय के गुजरने के साथ ही देश के ज्यादातर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने लोकसभा-विधानसभा चुनावों के लिए घोषणा पत्र जारी करने शुरू कर दिए. राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में सामाजिक सुरक्षा पेंशन, इलाज़ या बेरोज़गारी भत्ते के प्रावधान की ही बात नहीं करते हैं. इनमें कृषि के संकट, रोज़गार की व्यवस्था, बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रीय टकराव सरीखी चुनौतियों पर भी जब लोकसभा के चुनाव होते हैं, तब राजनीतिक दल आर्थिक नीति, विदेश नीति, पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन, नियोजन की प्रक्रिया और व्यापक व्यवस्था पर अपने नज़रिए-नीति-विचारधारा और भावी योजना की प्रस्तुति करते हैं.

पिछले एक दशक से यह बहस भी जारी है कि राजनीतिक दल चुनावों में ऐसी घोषणाएं और वायदे करते हैं, जिनसे मतदाता प्रभावित होते हैं, उन्हें वोट देते हैं, किन्तु दलों द्वारा की गई घोषणाएं पूरी नहीं होतीं और वायदे तोड़ दिए जाते हैं, वास्तव में हर पांच साल में लोकतंत्र में जनता ठग ली जाती है. विभिन्न राज्यों में राजनीतिक दल साड़ियां, लैपटाप, साइकिल, अनाज आदि के मुफ्त वितरण के वायदे करते हैं, किन्तु रोज़गार, आर्थिक समानता, लैंगिक-जाति आधारित बराबरी के मुद्दों को अपने फायदे के लिए ज्यों का त्यों बना रहने देते हैं. हमें यह भी साफ़ दिखाई देता है कि सुशासन, पारदर्शिता, जवाबदेही और सहभागिता सरीखे शब्द घोषणा पत्र के पहले पन्ने पर होते हैं, किन्तु इनके मायने क्या हैं, इसका उल्लेख भारत के राजनीतिक दल नहीं करते हैं. जैसे ही कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सरीखे दल सत्ता में आते हैं, इन शब्दों के क्रियान्वयन की मांग करने वाले लोग उनके लिए सरकार विरोधी और राष्ट्रद्रोही हो जाते हैं. कोई दल यह नहीं लिखता कि वह 100 सबसे अमीर पूंजीपतियों के पक्ष की नीतियां लागू करने वाला है, पर वास्तव में वे करते यही हैं!

वर्तमान आदर्श आचार संहिता में उल्लेख है कि सभी राजनीतिक दल और उम्मीदवार ऐसी कोई गतिविधि संचालित नहीं करेंगे, जो भ्रष्ट आचरण” मानी जाएं; मसलन मतदाताओं को रिश्वत देना, धमकाना, मतदान केंद्र के 100 मीटर के भीतर प्रचार करना आदि; इसके साथ ही यह भी उल्लेख है कि सत्तारूढ़ दल, केंद्र या राज्य में, अपने आधिकारिक शक्तियों और आर्थिक संसाधनों का उपयोग चुनावी फायदे के लिए नहीं करेंगे, किन्तु अब राजस्थान, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल सरीखे राज्यों में हम देख चुके हैं कि आदर्श आचार संहिता जारी होने के ठीक एक दिन पहले तक सत्तारूढ़ दल शासकीय संसाधनों का चुनावी फायदे के लिए बेतहाशा दुरूपयोग करते हैं. जरा बताईये कि मध्यप्रदेश सरकार आचार संहिता जारी होने के पहले को १०० दिन तक करोड़ों रूपए के ऐसे विज्ञापन प्रसारित करने की क्या जरूरत थी, जिनमें वर्ष 2003 और 2018 के बीच की स्थितियों का तुलनात्मक चित्रण हो! यह काम राजनीतिक दल को करना चाहिए था.

5 जुलाई 2013 को उच्चतम न्यायालय ने एस. सुब्रामण्यम बनाम तमिलनाडु सरकार एवं अन्य के मामले में यह कहा कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 के मुताबिक “घोषणापत्रों में किये गए वायदों को भ्रष्ट आचरण नहीं माना जा सकता है, किन्तु फिर भी इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसी भी प्रकार के मुफ्त उपहार, निःसंदेह लोगों को प्रभावित करते हैं. यह बहुत बड़े पैमाने पर स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन की जड़ें हिला देता है.” उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में चुनाव आयोग को ऐसे दिशा निर्देश तैयार और जारी करने को कहा, जिनसे राजनीतिक दलों को चुनावी घोषणापत्रों के सन्दर्भ में जवाबदेय और पारदर्शी बनाया जा सके.

पहला बिंदु यह है कि मतदाता को पूरी तरह से राजनीतिक दलों की नीति-विचारधारा और उनकी योजना को जानने-समझने का पूरा समय मिलना चाहिए. भूटान में चुनाव के तीन सप्ताह पहले, अमेरिका में दो और मैक्सिको में पांच महीने पहले घोषणा पत्र जारी किये जाते हैं, ताकि मतदाताओं तक इनसे सम्बंधित जानकारी पंहुच सके. पर भारत में घोषणा पत्र अपना महत्व खो रहे हैं. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का मतदान 12 नवंबर 2018 को हुआ, और घोषणा पत्र जारी हुए 3 से 4 दिन पहले; यानी राजनीतिक दल मानते हैं कि घोषणा पत्रों पर चर्चा-बहस होना या इनका मतदाता तक पंहुचना जरूरी नहीं है. मध्यप्रदेश में मतदान से 20 दिन पहले कांग्रेस का घोषणा पत्र जारी हुआ. आशय यह कि राजनीतिक दल घोषणा पत्र के जरिये जवाबदेही तय नहीं होने देना चाहते हैं.

दूसरा बिंदु यह है कि राजनीतिक दल के घोषणा पत्र/वचन पत्र/शपथ पत्र/संकल्प पत्र में शामिल किये जाने वाले वायदों को किस तरह से लागू किया जाएगा, इसकी कोई कार्ययोजना और बजट आंकलन नहीं दिया जाता है. भारतीय चुनाव आयोग द्वारा जारी दिशा निर्देश कहते हैं कि पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि घोषणा पत्र में उल्लेख किये जाने वाले वायदों को तार्किकता की कसौटी पर जांचा जाए. यह उल्लेख भी होना चाहिए कि किस तरह से इन घोषणाओं को लागू किया जाएगा और इसके लिए कितने आर्थिक संसाधनों की जरूरत होगी. व्यापक रूप से भारत के मतदाताओं को यह जानकारी नहीं दी जाती है.

तीसरा बिंदु यह है कि जिन वायदों, घोषणाओं और प्रतिबद्धताओं के आधार पर जनप्रतिनिधि चुनकर आते हैं, उनकी चुनाव परिणाम आने के बाद निगरानी की कोई व्यवस्था यानी जवाबदेही हमारे यहां नहीं है. वास्तव में राजनीतिक दल और सरकार के भीतर चुनाव घोषणा पत्र निगरानी तंत्र या समिति का गठन होना चाहिए; जो यह देखे कि मतदाताओं से किये गए सभी वायदे वास्तव में धरातल पर उतरें और उनके परिणामों का अध्ययन भी हो. यह जरूरी है कि राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र के क्रियान्वयन की सालाना रिपोर्ट भी जारी करे.    

चौथा बिंदु यह भी है कि जो दल सत्ता में नहीं आते हैं या विपक्ष की भूमिका निभाते हैं, उनके चुनावी वायदों का क्या वजूद होना चाहिए? वास्तव में विपक्ष की भूमिका धारण करने वाले राजनीतिक दलों को भी अपने घोषणा पत्रों को नीतियों में लाने की सतत पहल करना चाहिए क्योंकि संख्या में जितने भी प्रतिनिधि चुने जाएं, मतदाता ने तो उनके वायदों को भी तवज्जो दी होती है. ऐसा होने से जनहित के ज्यादातर मुद्दों पर पक्ष और विपक्ष साझा पहल कर सकते हैं.

पांचवा बिंदु यह होना चाहिए कि अगले चुनाव में राजनीतिक दल, जो सत्ता में रहे, यह लेखा जोखा भी प्रस्तुत करे कि उन्होंने पिछले घोषणा पत्र को किस तरह और किस हद तक क्रियान्वित किया.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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