आरसीईपी - मुनाफे के व्यापार के सामने कहीं देश हार न जाए!
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आरसीईपी - मुनाफे के व्यापार के सामने कहीं देश हार न जाए!

23 जुलाई 2018 को लोकसभा में वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री ने एक प्रश्न के जवाब में जो बताया, वह भारत की अदूरदर्शिता का परिचायक है. 

आरसीईपी - मुनाफे के व्यापार के सामने कहीं देश हार न जाए!

आसियान देशों समेत 16 देशों के बीच चल रही क्षेत्रीय आर्थिक साझेदारी (रीजनल काम्प्रीहेंसिव इकोनोमिक पार्टनरशिप-आरसीईपी) बातचीत के भारत पर गहरे असर होंगे. इसके तहत कई जरूरी उत्पादों (मसलन दूध, तकनीकी सेवाओं, खाद्य तेल, मशीनों आदि) पर व्यापार शुल्क (खासतौर पर सीमा शुल्क) को 90 से 100 प्रतिशत तक कम किये जाने की बात हो रही है. सत्तर लाख किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्रीय किसान महासंघ का 23 जुलाई 2018 को बैंकाक (थाईलैंड) में हुई आरसीईपी की 23वीं समझौता बैठक के परिप्रेक्ष्य कहना है कि जिस तरह से द्विपक्षीय व्यापार समझौते किये गए हैं, उनका नकारात्मक असर साफ़ दिखाई देता है. वर्ष 1999 में काली मिर्च की कीमत 720 रूपए प्रतिकिलो थी, जो अनियंत्रित खुले व्यापार के कारण घट कर 330 रूपए पर आ गई है. जब कीमतें बहुत कम हुईं तब 31 मार्च 2018 को भारत सरकार ने कालीमिर्च के लिए आयात न्यूनतम कीमत 500 रूपए प्रतिकिलो निर्धारित कर दी.

खाद्य तेलों में यह उल्लेखनीय है कि नारियल विकास बोर्ड ने वर्ष 2010-11 में 4180.91 टन नारियल तेल का आयात किया था, जो वर्ष 2014-15 में बढ़कर 88290 टन हो गया. इसका केरल के उत्पादकों पर खतरनाक असर हुआ है, क्योंकि स्थानीय उत्पादन को लागत के मान से कीमतें ही नहीं मिल रही हैं. वर्ष 1999-2000 में केरल में 600 करोड़ नारियल का उत्पादन होता था, जो वर्ष 2016-17 में घट कर 300 करोड़ पर आ गया. वर्ष 2010 में भारत अपनी रबर की जरूरत पूरी करने के लिए आत्मनिर्भर था, किन्तु आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफ़टीए) होने के बाद वर्ष 2013 से 2015 के बीच रबर का आयात 2.6 लाख टन से बढ़कर 4.4 लाख टन पर पंहुच गया. इससे उत्पादकों पर बहुत बुरा असर पड़ा क्योंकि रबर की कीमतें 142 रूपए प्रति किलो पर आ गयीं, जबकि केरल सरकार के आंकलन के मुताबिक स्थानीय उत्पादकों को इसकी उत्पादन लागत ही 173 रूपए प्रति किलो पड़ रहीं थी. जब बाज़ार में कीमतें कम होती हैं, तो उत्पादक को बहुत हानि होती है, पर बड़े उद्योगपति टायर निर्माता फायदे में रहते हैं. शुरू में टायर निर्माता भी फायदे में रही, किन्तु अब चीन सस्ते टायर निर्यात करने लगा है, जिससे स्थानीय टायर निर्माता भी संकट में आ रहे हैं.

अन्य मुक्त व्यापार समझौतों की तरह ही भारत को इसका ज्यादा नुकसान इसलिए होगा क्योंकि जापान, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देश भी आरसीईपी के तहत सीमा शुल्क तो कम कर देंगे, परन्तु अन्य व्यापार-वाणिज्य बाधाएं/शर्तें बरकरार रखेंगे. इन्हें गैर शुल्क बाधाएं (नान-टेरिफ बेरियर्स) कहा जाता है.

इसके दो तरह की बाधाएं शामिल होती हैं. एक – व्यापार से सम्बंधित (वस्तु की मात्रा का निर्धारण करना और सीमित करना, आयात के लिए अनुमति पाने की प्रक्रिया और शर्तें, विदेशी वस्तु के सन्दर्भ में घरेलू वस्तु के अनुपात का निर्धारण, आयातित वस्तु की कीमत का निर्धारण और व्यापार प्रतिषेध); दो – सीमा में प्रवेश और जटिल प्रशासकीय व्यवस्थाएं (वस्तु के मूल्यों का निर्धारण करने के तरीके, सस्ते माल की खपत से सम्बंधित व्यवहार, शुल्कों का वर्गीकरण, व्यापार के लिए दस्तावजों की मांग और अन्य शुल्क). ऐसे में यदि सीमा शुल्क कम किये जाते हैं, तो यही देश फायदे में होंगे.

23 जुलाई 2018 को लोकसभा में वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री ने एक प्रश्न के जवाब में जो बताया, वह भारत की अदूरदर्शिता का परिचायक है. उन्होंने आरसीईपी के सन्दर्भ में कहा कि भारत सेवाओं के क्षेत्र में उदारीकरण चाहता है, क्योंकि इसका सकल घरेलू उत्पाद में बहुत बड़ा योगदान है. इससे सदस्य देशों में रोज़गार की वृद्धि होगी. चूंकि भारत के पास सूचना प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में कौशलसंपन्न और अंग्रेजी बोलने वाले सेवा प्रदाता हैं, इसलिए भारत को इससे (आरसीसीपी) लाभ होगा. यह बात साबित करती है कि भारत सरकार केवल सेवा क्षेत्र पर ही ध्यान केंद्रित कर रही है, और मसाले उत्पादकों, दुग्ध उत्पादकों, तिलहन कृषकों के हितों पर आने वाले संभावित संकट का उन्हें अहसास ही नहीं है.

दुग्ध उत्पादकों पर इसका बहुत गहरा असर है क्योंकि मुक्त व्यपार के लिए दूध से बनी सामग्री के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबन्ध हटा लिया गया है, यानी किसी भी मात्रा में आयात हो सकता है. इससे दूध पावडर (वसा निकला) और बटर आइल के आयात में खूब वृद्धि हुई.वर्ष 2008 में लगभग 20 हज़ार तब दूध पावडर और 15 हज़ार टन बटर आइल का आयात हुआ था; जो अगले कुछ सालों में पांच गुना तक बढ़ गया. यह भे देखा गया है कि अब दूध के बजाये दूध पावडर के इस्तेमाल को बढ़ाया जा रहा है. मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में पिछले डेढ़ साल में 3.5 प्रतिशत वसा युक्त गाय के दूध की कीमतें 25-30 रूपए से घट कर 17-22 रूपए पर आ गयीं. भेंस के दूध की कीमतें 41 से 45 रूपए से कम हो कर 34-37 रूपए पर आ गयीं; पर बाज़ार में पैकेट बंध दूध की कीमतें 42 से लेकर 52 रूपए के बीच में रहीं. वास्तव में दूध से वसा और पावडर बनाकर बाज़ार में लाने को प्राथमिकता दी जाने लगी है; इसलिए उससे अब बाजार भाव तय हो रहे हैं, न कि सीधा दूध इस्तेमाल करने वालों से! अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में वसा निकले दूध पावडर की कीमतों में भारी गिरावट आई है. अप्रैल 2013 में एक किलो दूध पावडर की कीमत 318 रूपए थी, जो जुलाई 2018 में गिरकर 125 रूपए प्रतिकिलो पर आ गई. जिसका सीधा असर भार के दूध उत्पादकों पर भी पड़ा. इसके बाद यदि आरसीईपी के तहत न्यूजीलैंड से दूध आयात होने लगता है, तो भयानक हालात बन जायेंगे.

आरसीईपी के तहत मछली उत्पादक भी संकट में होंगे क्योंकि यह कोशिश की जा रही है कि भारतीय समुद्री सीमा को गहरे समुद्र से मछली पकड़ने के लिए खोल दिया जाए और वहां मछली पकड़ने वाले बड़े मशीनीकृत जहाजों के उपयोग की अनुमति दे दी जाए. इससे परंपरागत तरीकों से चोटी नावों से मछली पकड़ कर जीवन यापन करने वाले 80 लाख मछुआरा परिवारों के जीवन पर संकट आ जाएगा.

पर्यावरण और स्थानीय बाज़ार भी संकट में होंगे
आरसीईपी के तहत बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों की पर्यावरण सुरक्षा, श्रम अधिकारों की सुरक्षा के प्रति कोई बाध्यता नहीं है; बहरहाल आरसीईपी सरकारों के पर्यवारण और श्रम अधिकारों के लिए क़ानून बनाने के अधिकार को भी खत्म करता है. इससे तय है कि भारत में बेतहाशा खनन होगा, पर्यावरण का संकट और ज्यादा गहरा होगा. और स्वाभाविक रूप से असमानता की खाई गहरी होगी. इसके मुताबिक विदेशी निवेशकों को सरकार द्वारा ठीक वैसे ही सहयोग और समर्थन दिया जाएगा, जैसे घरेलू निवेशकों को दिया जाता है. स्वाभाविक तौर पर इससे जमीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट में इजाफा होगा क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय और बड़े कार्पोरेशंस बड़ी पूँजी के साथ बाज़ार में आयेंगे, जहाँ स्थानीय और छोटे निवेशक उनके सामने खड़े ही नहीं हो पायेंगे. भारत के विभिन्न राज्यों (मसलन मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, झारखंड आदि) में निवेश के लिए जिस तरह से बड़े पूँजीपतियों को आमंत्रित किया जा रहा है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आरसीईपी का समझौता होने के बाद स्थानीय छोटे और मझौले उद्योगपति भी आत्महत्या के ही कगार पर होंगे.

चीन ने जनवरी 2017 में ही यह घोषणा कर दी थी कि वह नाइट्रोजन और फास्फोरस के निर्यात पर तत्काल निर्यात शुल्क हटा देगा; क्योंकि उसे एशिया के उर्वरक बाज़ार पर नियंत्रण चाहिए. यह संभावना है कि अगले वर्ष 2010 तक उर्वरक और कीटनाशकों की बिक्री 100 अरब डालर से बढ़ कर 120 अरब डालर हो जायेगी.

यह व्यापार समझौता जलवायु के खतरे को और ज्यादा गहरा बनाएगा; क्योंकि इसमें जीवाश्म ईंधन पर व्यापार-सीमा शुल्कों को में 90 प्रतिशत कमी की बात कही जा रही है. नवउदारवादी नीति ने केवल एक पक्ष महत्वपूर्ण है – मुनाफा; इसमें समाज, कुदरत और जवाबदेयता के मूल्यों का कोई स्थान नहीं है. स्वाभाविक है कि घातक कार्बन गैसों का उत्सर्जन करने पर कोई कानूनी कार्यवाही न करने का प्रावधान भी है.

क्या कृषि और उससे जुड़े सभी क्षेत्र मिट जायेंगे?
यह तय है कि आरसीईपी के रास्ते से कृषि पर विशाल व्यापारिक प्रतिष्ठानों (बिग कार्पोरेट्स) का कब्ज़ा बहुत तेज़ी से बढ़ेगा. जब निर्यात आसान होगा, तो सरकारें निर्यात के लिए खेती को प्रोत्साहित करेंगी, न् कि छोटे-मझौले किसानों के हितों के नज़रिए से नीति बनेगी. यह संभावना है कि खेती से सम्बंधित पहलुओं के अध्ययन से पता चलता है कि आरसीईपी के जरिये यह व्यवस्था बनायी जायेगी कि कृषि भूमि को प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश के लिए खोल दिया जाए.

इस संधि में शामिल एक अध्याय पिछले दिनों सामने आया है. इससे पता चलता है कि यह पहल खाद्य संप्रभुता और आजीविका को बहुत गहरे तक प्रभावित करेगी. इसमें उल्लेख है कि जापान, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया से दूध और दुग्ध उत्पाद, माँस और अन्य कृषि उत्पादों का ‘शून्य सीमा शुल्क-आयात शुल्क” पर आयात किया जा सकेगा. इन देशों में डेयरी और कृषि के लिए भारी सब्सिडी दी जाती है. साफ़ है कि भारत के 10 करोड़ पशुपालक गहरे संकट में आ जाने वाले हैं क्योंकि भारत में बहुत कम सब्सिडी मिलने के कारण उनकी उत्पादन लागत इन देशों के उत्पादों की लागत से ज्यादा होती है.

दुनिया की सबसे बड़ी डेयरी उत्पाद कंपनी न्यूजीलैंड की फौंटैरा है. यह अब तक भारत के विशाल बाज़ार में घुस नहीं पायी है; इसने हाल ही में कहा कि आरसीईपी के जरिये हम भारत सरीखे संरक्षित बाजार में प्रवेश कर पायेंगे. यदि ऐसा हुआ तो भारत के पशुपालकों और दुग्ध उत्पादकों को या तो फौंटैरा के लिए काम करना होगा या यह व्यवसाय छोड़ देना होगा.

यह संधि वस्तुतः हायड्रोजन बम से भी ज्यादा खतरनाक है. इसके एक अध्याय से पता चला कि आरसीईपी के तहत पौधों की नए प्रजातियों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और 1991 के क़ानून (यूपीओवी 1991) सभी देश पौधों को खोजने वाले, उसे लगाने वाले, उसमें संशोधन करने वाले, उसे विकसित करने वाले के अधिकारों की रक्षा करेंगे यानी किसान के अधिकार खत्म हो जायेंगे क्योंकि नयी व्यवस्था में किसान कि पेटेंट नहीं मिलते हैं, उसे केवल उपयोगकर्ता माना जाता है. इसका मतलब यह है कि बीज कंपनियां बीजों और विभिन्न पौध प्रजातियों पर नियंत्रण कर लेंगी. इससे बीजों की कीमत में 200 से 600 प्रतिशत तक की वृद्धि हो जायेगी. इसके साथ ही आरसीईपी अनुवांशिक तौर पर संशोधित बीजों (जेनेटिकली मोडिफाइड सीड्स) के लिए एक माकूल खुला दरवाज़ा होगा.

सच तो यह है कि जब वैश्विक पटल पर व्यापार-वाणिज्यिक समझौते होते हैं, तब देशज हितों, लोकतांत्रिक ताने-बाने, जलवायु और प्रकृति के संरक्षण, सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी को खतम करने के वायदे को तिलांजलि दे दी जाती है. एक हद तक अब भी समाज सजग है और भारत के भीतर की संवैधानिक प्रक्रियाएं अब तक जिन्दा हैं, जो इन खतरों को हमारे समाज पर सवार होने से रोक रही हैं.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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