चंदा मामा बहुत दूर के
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चंदा मामा बहुत दूर के

चंदामामा वो किताब थी जिसने ‘इस कहानी से तुम्हें क्या शिक्षा मिलती है’ जैसे सवालों के सही मायने स्थापित किये थे लेकिन विडंबना देखिए अखबार में इसी दुर्लभ साहित्य को लेकर खबर छपती है कि उनके मालिक जेल में है और चंदामामा बिकने के लिए तैयार है. 

चंदा मामा बहुत दूर के

एक बार एक मां अपने बच्चे को लेकर एक संत के पास पहुंची. संत के पूछने पर मां ने अपनी तकलीफ ज़ाहिर करते हुए बताया कि वो अपने बच्चे की शक्कर खाने की आदत से बहुत परेशान है, लाख तरह से समझा लिया लेकिन ये सुनता ही नहीं. संत ध्यान से उनकी बात सुनते रहे और थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होंने उस मां से कहा कि वो एक हफ्ते बाद अपने बच्चे को लेकर दोबारा उनके पास आए. एक हफ्ता बीतने पर जब मां अपने बच्चे को लेकर दोबारा उस संत के पास पहुंची तो संत ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से उसे समझाया कि बेटा हमें शक्कर नहीं खाना चाहिए. ये हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक होती है. वादा करो कि तुम अबसे शक्कर नहीं खाओगे. बेटे ने हामी में सिर हिला दिया. लेकिन मां को अभी भी अपने बेटे के किये वादे पर भरोसा नहीं था. कुछ दिन बीते. वो मां एक बार फिर से उस संत के पास पहुंची. इस बार वो संत का धन्यवाद करने के लिए आई थी. उसका बेटा शक्कर से पूरी तरह से दूर हो चुका था. 

संत ने मुस्कुरा कर उस मां का धन्यवाद स्वीकार किया. लेकिन महिला अभी भी वहीं खड़ी थी, उसे एक बात परेशान कर रही थी कि आखिर संत ने उसके बच्चे को एक हफ्ते बाद क्यों बुलाया था. जब उसने अपनी शंका संत के सामने ज़ाहिर की तो संत ने उसकी बात सुनकर मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि बच्चे को एक हफ्ते बाद बुलाने की एक ही वजह थी कि जब वो मां अपने बच्चे को लेकर उनके पास आई थी उस समय उनको भी शक्कर खाने की आदत थी. इसलिए उन्हें पता था कि उनकी बातो में इतना असर नहीं होगा. तो संत ने एक हफ्ते का समय लेकर पहले खुद शक्कर खाने की आदत को छोड़ा फिर बच्चे को समझाया जिसका असर उस पर जादू की तरह हुआ और उसने शक्कर को छोड़ दिया. कई सालों पहले चंदामामा के किसी अंक में पढ़ी इस कहानी का लब्बोलुआब ये था कि हमें दूसरों के आचरण सुधारने से पहले खुद के आचरण में बदलाव लाना चाहिए.

अस्सी के दशक में पैदा हुए वो बच्चे जिन्हें कॉमिक्स पढ़ना पसंद रहा होगा, उनके ज़हन में चंदामामा एक स्थायीभाव की तरह होगी. चंदामामा - हमेशा अपनी कहानियों के ज़रिये एक आदर्श स्थापित करने की कोशिश करती रही है. लगभग 650 धारावाहिकों वाला विक्रम-बेताल बच्चों को उचित न्याय और सही फैसले का ज्ञान देता रहा है. कहानी का हर किरदार चाहे फिर वो किसी गांव का कोई किसान हो, किसी मंदिर का पुजारी हो या फिर कोई राजा हो, चंदामामा का नायक होने का मतलब था एक आदर्शवादी इंसान जो अपनी समझ-बूझ से मुश्किल परिस्थितियों से बाहर निकलता है और एक आदर्श दुनिया स्थापित करता है. चंदामामा वो किताब थी जिसने ‘इस कहानी से तुम्हें क्या शिक्षा मिलती है’ जैसे सवालों के सही मायने स्थापित किये थे.

लेकिन विडंबना देखिए अखबार में इसी दुर्लभ साहित्य को लेकर खबर छपती है कि उनके मालिक जेल में है और चंदामामा बिकने के लिए तैयार है. जुलाई 1947 में पहली बार तमिल भाषा में चंदामामा को बी नागी रेड्डी और चक्रपाणि ने रचा था. हम हिंदी भाषियों के हाथ तो ये 1990 में लगी थी. मुझे याद है जब मैं किताब में चक्रपाणि नाम को पढ़ता था तो मुझे लगता था ये नाम भी किताब की कहानियों के किरदारों की तरह ही काल्पनिक है. जब चंदामामा हिंदी में अपनी जड़े जमा रही थी उसी दौर में दूसरी कॉमिक्स के किरदार भी अपने पंख फैला रहे थे. फिर वो चाचा चौधरी, रमन, बिल्लू, पिंकी जैसे चुटीले किरदार हो या फिर आगे चलकर सुपरहीरो ध्रुव, नागराज, डोगा जैसे किरदार. मैं चंदामामा को इसलिए अपने दिल के करीब ज्यादा मानता हूं क्योंकि इस किताब ने ही मुझे पढ़ना सिखाया और इस हद तक सिखाया कि मुझे चाचा चौधरी जैसी कॉमिक्स इसलिए नहीं सुहाती थी क्योंकि उसमें टेक्स्ट कम हुआ करता था. मुझे लगता था कि पचास पैसे

किराए पर (उस वक्त कॉमिक्स किराए पर मिलती थी) चंदामामा ज्यादा देर तक चलती है औऱ बाकी कॉमिक्स जल्दी खत्म हो जाती है. यही नहीं आज से 25-30 बरस पहले जब स्टार्टअप जैसी संकल्पना कपोल कल्पना माना जाती रही होगी उस वक्त गर्मियों की छुट्टी में मैंने अपनी लाइब्रेरी शुरू की थी और मोहल्ले में एकमात्र हमारा ही घर था जिसके पास चंदामामा का सबसे बड़े कलेक्शन हुआ करता था. हालांकि मोहल्ले के कम ही बच्चों की चंदामामा में रुचि रहती थी क्योंकि जो बात मुझे भाती थी वो उन्हें नहीं सुहाती थी मतलब चंदामामा में चित्र कम होते थे औऱ लिखा ज्यादा होता था.

खैर हम चंदामामा के एक आदर्श को पढ़ते हुए बढ़े हुए और काफी हद तक उन किरदारों का उसे पढ़ने वालों की जिंदगी पर असर भी रहा है. ऐसे में आज अखबार में खबर आती है कि चंदामामा प्रकाशित करने वाली कंपनी जियोडेसिक के तीनो डायरेक्टर किरण प्रकाश कुलकर्णी, प्रशांत मुलेकर और पंकज श्रीवास्तव सहित फर्म के चार्टेड अकाउंटेंट दिनेश जजोदिया मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत जेल में हैं. तो लगता है कि क्या वाकई आदर्श बताने वाले का आदर्शवादी होना ज़रूरी नहीं है? क्या हमें कला औऱ कलाकार को हमेशा अलग करके देखना औऱ परखना चाहिए? क्या बचपन में पढ़ी कहानी के संत ने पहले खुद शक्कर छोड़ी फिर बच्चे को समझाया महज़ कहानी तक ही सीमित है? क्या हम जिन आदर्शवाद की बात करते हैं उसे बताने और मानने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है? क्या आदर्शवाद की छवि को कभी भी ज्यादा करीब से नहीं देखने चाहिए उसके धूमिल हो जाने का खतरा बन जाता है?

ऐसा लग रहा है जैसे मेरा मन बेताल की मानिंद मेरी ही पीठ पर सवार होकर मुझसे ये तमाम सवाल पूछ रहा है और साथ में मुझसे कह रहा है कि अगर मैंने उसके सवाल का सही जवाब नहीं दिया तो वो मेरे सिर के टुकड़े-टुकड़े कर देगा और अगर मैंने सही जवाब दिया तो वो फुर्र करके उड़ जाएगा. ऐसे में मैं चुपचाप उस बेताल को पीठ पर लादे चलते हुए बस इतना ही कह पाया हूं कि शायद चंदामामा वाकई में बहुत दूर के ही हैं.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और WaterAid India 'WASH Matters 2018' के फैलो हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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