इस देश को रॉकेट सिंह की सख़्त ज़रूरत
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इस देश को रॉकेट सिंह की सख़्त ज़रूरत

हम में से कोई ऐसा नहीं होगा जो इस कस्टमर केयर सर्विस के रटे रटाए जुमलों या सर्विस सेंटर के घुमावदार रास्तों मे न उलझा हो

पंकज रामेन्दु

राजेश वर्मा जी ने अपनी मेहनत की कमाई लगा कर एक टेप रिकॉर्डर खरीदा था. उसकी कीमत उस दौरान मिलने वाले अन्य टेप रिकॉर्डरों से कहीं ज्यादा थी क्योंकि वो म्यूज़िक सिस्टम बनाने वाली एक नामी गिरामी कंपनी का था. जब यह टेपरिकॉर्डर उनके घर आया तो पूरे घर में एक उत्साह का माहौल था. पूरा परिवार उससे कान लगाए हुए था लेकिन उनकी खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई. महज़ हफ्ते भर के अंदर ही उस टेपरिकॉर्डर में कान लगाने पर भी कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. परिवार में एक ग़म का माहौल था. अपनी गाढ़ी कमाई से खरीदे गए इस सिस्टम की हालत राजेश जी से देखी नहीं गई और वह उसे लेकर दुकानदार के पास पहुंचे. दुकानदार ने उन्हें सर्विस सेंटर भेजा फिर कई दिनों तक रिकॉर्डर सर्विस सेंटर में पड़ा रहा लेकिन ठीक नहीं हो सका. 

इस तरह राजेश जी को चक्कर लगाते हुए जब एक महीने से ऊपर हो गया तो उन्होंने सीधे उस बड़ी सी कंपनी को एक बड़ी सी ही चिट्ठी लिखी. चिट्ठी का सार यह था कि उन्होंने कंपनी का नाम सुनकर ज्यादा पैसे खर्च कर वह टेपरिकॉर्डर खरीदा लेकिन जिस तरह वो हफ्ते भर भी नहीं चल सका और जिस तरह से सर्विस सेंटर उन्हें चक्कर पर चक्कर लगवा रहा है उससे उन्हें एक सबक मिला है कि वह इस कंपनी का सामान कभी न खरीदें और दूसरे लोगों को भी न खरीदने का सलाह दे. राजेश जी ने आगे लिखा कि हो सकता है उन्हें इस काम में वक्त लगेगा लेकिन वह लगातार कंपनी के बारे में दुष्प्रचार करते रहेंगे और उनका ये काम तब तक जारी रहेगा जब तो उनसे बन पड़ेगा. उनके लिखे हुए हर शब्द में मौजूद झुंझलाहट और बेबसी को महसूस किया जा सकता था. ये कुछ वैसा ही था जैसे हर तरफ प्रयास करके थक चुका एक आम आदमी प्रधानमंत्री कार्यालय या राष्ट्रपति से गुहार लगाता है और जिस तरह वहां रोज़ाना हज़ारों चिट्ठियां पहुंचती हैं लेकिन उनमें से कुछ में इतना दर्द समाया होता है कि जवाब देना या कोई कार्यवाही करना ज़रूरी हो जाता है ठीक उसी तरह कुछ दिनों बाद सीधे कंपनी के हेडऑफिस से एक इंजीनियर आया और उसने राजेश जी के टेपरिकॉर्डर को ठीक कर दिया.

यह उन दिनों की बात है जब दूरदर्शन ने लोगों के बीच जगह बना ली थी और दूसरे चैनल आने की कोशिश में थे. दूरदर्शन लगातार बेहतरीन कार्यक्रमों के साथ वाहवाही लूट रहा था. ऐसे में नब्बे के शुरुआती साल में एक कार्यक्रम आया जिसका नाम था फ्लॉप शो. जसपाल भट्टी की टीम के बनाए इस कार्यक्रम में हर तरह की तंत्र के खामियों पर तीखा प्रहार किया गया था. इसके कुछ समय पहले ही उन्होंने एक कम अवधि का फिलर कार्यक्रम भी बनाया था जिसका नाम ‘उल्टा पुल्टा’ था. इसमें महज़ 5-6 मिनट के अंदर तमाम प्रकार की तंत्र और उससे जुड़ी खामियों पर करारा प्रहार किया जाता था. यहां उल्टा-पुल्टा का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं क्योंकि राजेश जी की कहानी और उल्टा-पुल्टा के एक एपिसोड में काफी कुछ मिलता जुलता है.

उल्टा-पुल्टा के इस एपिसोड में एक प्रोफेसर साहब अपनी नई नवेली स्कूटर जिसे वह बड़े प्यार से रखते हैं, उसे वह सुबह-सुबह एक मैकेनिक के पास लेकर जाते हैं. वैसे तो उनकी गाड़ी ठीक चल रही होती है, बस उस दिन उसे स्टार्ट करने में हाफ किक की जगह दो किक लगानी पड़ रही थी. बस फिर क्या होता है, मैकेनिक बने जसपाल भट्टी और उनके सहायक स्कूटर के प्लग से शुरू करते हुए उसके इंजन तक खोल डालते हैं. स्कूटर को सुधारने के दौरान वे प्रोफेसर साहब से कहते हैं कि गाड़ी को ठीक होने में आधा घंटा लगेगा, जब तक चाहे तो वो अपना कोई काम निपटा सकते हैं. काम निपटा कर जब प्रोफेसर साहब वापस लौटते हैं तो वहां उन्हें अपनी गाड़ी नज़र नहीं आती है. जब मैकेनिक से पूछते हैं कि उनकी गाड़ी का क्या कोई ट्रायल लेने गया है तो जवाब मिलता है कि कमाल है आप अपनी गाड़ी को नहीं पहचानते, ये तो रही सामने. सामने प्रोफेसर साहब की गाड़ी खुली पड़ी होती है. मैकेनिक बोलता है कि गाड़ी में बहुत नुक्स थे तो हमने सोचा की इसे ओवरहॉल की कर देते हैं. प्रोफेसर साहब भड़क जाते हैं और अपनी गाड़ी को रिक्शे पर चढ़ाते हुए मैकेनिक को धमकी देते हैं कि वह उनकी पुलिस में शिकायत करेगा इस पर मैकेनिक बोलता है कि वो सब तो ठीक है लेकिन पहले गाड़ी खोलने के 135 रुपए चुकाते जाओ.

राजेश जी की टेपरिकॉर्डर की बात को और उल्टा-पुल्टा को खत्म हुए लगभग तीन दशक बीत गए हैं लेकिन अगर आप सर्विस सेक्टर पर नज़र डालें तो हालात कुछ भी नहीं बदले हैं. हाल ही में राजेश जी के ही एक दोस्त ने एक बहुत बड़ी कंपनी जो अपने विज्ञापन में करोडों रुपए खर्च करती है उसी का एक फ्रिज खरीदा. इस फ्रिज के एवज में उन्होंने आधा लाख चुकाया और फ्रिज आधा महीना भी नहीं चल पाया. उसके बाद वही कहानी सर्विस सेंटर के चक्कर, मैकेनिक का आना उसे कुछ समझ नहीं आना, फ्रिज को बदलने की बात को टरकाना. एक बार फिर राजेश जी ने कंपनी को लिखा. इन तीन दशकों में बस ये बदला कि राजेश जी ने तीस साल पहले जो चिट्ठी लिखी थी वो अब मेल में बदल चुकी है. उसके बाद उनका फ्रिज बदल गया. लेकिन सर्विस सेंटर ने दो महीने चक्कर लगाने के बाद भी उनकी समस्या का कोई समाधान नहीं निकाला.

इस सर्विस सेक्टर और इससे जुड़े कस्टमर केयर सर्विस पर आगे बात करने से पहले इसके एक और पहलू बने ‘उल्टा पुल्टा’ को बता देते हैं. तो होता यूं है कि इस बार मैकेनिक साहब के पास एक डॉक्टर अपनी स्कूटर लेकर आते हैं जो गारंटी पीरियड में होता है. मैकेनिक साहब गाड़ी को देखते हैं और बोलते है कि आपकी गाड़ी में कोई दिक्कत लग तो नहीं रही है और अभी तो इसे बहुत चलना रह गया है. गारंटी पीरियड के भी 60 किमी बचे हैं. खैर, जब डॉक्टर साहब मानते नहीं है और कहते हैं कि गाड़ी से आवाज़ आ रही है तो मैकेनिक अपने सहायक से गाड़ी का ट्रायल लेने को कहते हैं और सहायक डॉक्टर साहब को पीछे बैठाकर निकल पड़ते हैं. सहायक कभी उन्हें शांत सड़क पर, कभी पक्की, कभी कच्ची सड़क पर ले जाता है. डॉक्टर साहब बार-बार उसका ध्यान गाड़ी से आ रही आवाज़ की ओर ले जाते हैं जो सहायक को बिल्कुल भी सुनाई नहीं देती है. इस तरह वो वापस गैराज पहुंचते हैं जहां सहायक मैकेनिक को बताता है कि गाड़ी के इंजन में कुछ खामियां हैं. डॉक्टर साहब बोलते हैं तो ठीक कर दो तो मैकेनिक उन्हें बताता है कि इस काम में उनके 4-5 हज़ार रु लग जाएंगे. जब डॉक्टर उनका ध्यान गाड़ी के गारंटी पीरियड की तरफ कराता है तो मैकेनिक बोलता है कि गारंटी तो कब की खत्म हो चुकी है अब तो आपकी गाडी 20 किमी ज्यादा चल चुकी है. 

इतना वक्त गुज़र जाने के बाद अगर आज भी आप सर्विस सेक्टर की हालत देखेंगे तो वह जस की तस है. हम में से कोई ऐसा नहीं होगा जो इस कस्टमर केयर सर्विस के रटे रटाए जुमलों या सर्विस सेंटर के घुमावदार रास्तों मे न उलझा हो. जिस तरह प्राइवेट डॉक्टर के पास जाने पर जनता आधी बीमारी बताती नहीं है, उसी तरह सर्विस सेंटर जाने पर भी ग्राहक आधी समस्या को ये सोच कर बताने से रुक जाता है कि कहीं इसे सुनकर तकनीशियन ज्यादा गंभीर चेहरा न बना ले जिसका मतलब उसे ज्यादा लूटना और ज्यादा घिसना. एक मोबाइल सर्विस सेंटर में जाकर देखिये, वहां जब मोबाइल के मालिक का नाम पुकारा जाता है तो वो इस तरह से उठकर जाता है जैसे पता नहीं उसके फोन को कौन सी बीमारी बताई जाने वाली है. कहीं आईसीयू में भर्ती करने को तो नहीं कर देंगे. आप कंप्यूटर सुधरवाने चले जाइये, अपना ए.सी ठीक करवाने जाइए या कोई भी सामान अव्वल तो आपको अच्छे से लूट लिया जाएगा और उस पर इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आप अपने सामान को सुरक्षित घर ले आएं. उस पर अगर आपने कोई सवाल पूछ लिया तो सर्विस सेंटर के लोग इस तरह बुरा मान जाते हैं मानो ग्राहक ने क्या गुनाह कर दिया और वो सामान आपके सामने पटक कर कह देंगे कि किसी ओर से करवा लीजिए. यहां तक कि अगर कोई सर्विस सेंटर आपके किसी सामान को ठीक करने का बीड़ा उठा भी लेता है तो ये मान के चलिए आप इनकी व्यस्तता से पार नहीं पा पाएंगे. जेम्स बांड की फिल्म के नाम की तरह इनका ‘टुमॉरो’ भी ‘नेवर डाइज’. बस आप फोन पर फोन लगाते रहिए और हर बार आज हो जाएगा सुनते जाइए. यह तब हो रहा है जब देश में कौशल विकास पर अत्यधिक ज़ोर दिया जा रहा है. जब देश का सर्विस सेक्टर जीडीपी में योगदान दे रहा है. आज सेवा क्षेत्र 10 फीसदी की वार्षिक वृद्धि, कुल रोज़गार में करीब 35 फीसदी का योगदान दे रहा है. यह एफडीआई फ्लो के हिस्से और भारत के कुल निर्यात के एक चौथाई से अधिक मूल्य संदर्भो के साथ हमारे जीडीपी के करीब 60 प्रतिशत क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है.
 
वैसे सेवा क्षेत्र है क्या. अर्थव्यवस्था का वह क्षेत्र जो सेवा से संबंधित कार्यों में लगा हुआ है. सेवा क्षेत्र में मुख्य रूप से परिवहन, कुरियर, सूचना क्षेत्र की सेवाएं, प्रतिभूतियां, रियल एस्टेट, होटल एवं रेस्टोरेंट, वैज्ञानिक और तकनीकी सेवाएं, अपशिष्ट प्रबंधन, स्वास्थ्य कल्याण, सामाजिक सहायता, कला और मनोरंजन सेवाएं आती हैं. इसे अर्थव्यवस्था के तीसरे क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है. सेवा क्षेत्र वह क्षेत्र है जिस पर सर्विस लेने वाला टेक्स भी चुकाता है. चाहे आप किसी रेस्टॉरेंट में खाना खाने जाएं या किसी से अपना कोई सामान सुधरवाया हो, आपको एक टैक्स देना होता है जो पहले 15 प्रतिशत था लेकिन अब 18 प्रतिशत हो गया है. यानी कस्टमर धक्के भी खाता है और उन धक्कों की कीमत भी चुकाता है. यह तब हो रहा है जब देश में कौशल विकास को एक महत्वाकांक्षी योजना के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन हकीकत ये है कि आज भी सर्विस सेंटर जुगाड़ू लोगों के साथ काम चला रहे हैं. नामी गिरामी कंपनी सर्विस सेंटर चलाने को तो दे देती है लेकिन उन सेंटर्स पर कौन काम कर रहा है, वो कितना कुशल है इसका कोई नामलेवा नहीं होता है. परिणामस्वरूप ग्राहक बस चक्कर लगाता है या कस्टमर केयर पर फोन लगाता है और रटी रटाई भाषा में अपनी परेशानी के बारे में झुंझलाहट बयान देकर फोन काट देता है.

2009 में एक फिल्म आई थी ‘रॉकेट सिंह - सेल्समेन ऑफ दि इयर.’ फिल्म में हीरो एक नामी कंप्यूटर सर्विस देने वाली कंपनी में सेल्समेन की नौकरी करता है. यह वो कंपनी है जिसके पास ग्राहकों की कमी नहीं है क्योंकि वो काम पाने के लिए सारे हथकंडे अपनाती है, बस सर्विस देने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है. हीरो एक कंपनी को काम दिलाने वाले शख्स को रिश्वत देने से मना कर देता है जिसके बदले में उसे काफी जलालत झेलनी पड़ती है. फिल्म के हीरो को बाद में यह बात समझ में आती है कि कंपनी के लिए ज़रूरी है ग्राहक की संतुष्टि, अगर वह संतुष्ट हैं तो बगैर रिश्वत दिए भी काम चल सकता है. फिर वह उसी कंपनी में रहते हुए, वहां के बंदों को साथ मिलाकर रॉकेट सेल्स कॉरपोरेशन नाम की कंपनी की शुरूआत करता है. इस कंपनी की खास बात यही है कि वो बेहतरीन सर्विस देने पर विश्वास करती है. धीरे-धीरे करके रॉकेट सेल्स उस नामी कंपनी के सारे ग्राहकों को छीन लेती है क्योंकि नकी सर्विस लाजवाब होती है. अगर देश के जीडीपी में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले क्षेत्र को दुरुस्त करना है तो हमें रॉकेट सेल्स कॉरपोरेशन और रॉकेट सिंह की सख्त ज़रूरत है...

(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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