लोकतांत्रिक चेतना के लिए महत्वपूर्ण हैं छात्र-राजनीति और छात्र-संघ चुनाव!
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लोकतांत्रिक चेतना के लिए महत्वपूर्ण हैं छात्र-राजनीति और छात्र-संघ चुनाव!

भारतीय राजनीति में छात्र नेताओं के योगदान अतुलनीय है, फिर चाहे वो स्वतंत्रता के पहले हो या बाद में

पवन चौरसिया

जुलाई का तीसरा और चौथा हफ़्ता सामान्य रूप से नहीं देखा जाना चाहिए. इन हफ़्तों में भारत भर के अनेक कॉलेज और विश्वविद्यालय अपना नया सत्र चालू करते हैं जिसमे प्रवेश लेकर छात्र केवल अपना ही नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र का भविष्य भी तय करते हैं. छात्रों का परिचय न सिर्फ एक नई प्रकार की शिक्षा प्रणाली से, बल्कि एक नए वातावरण से भी होता है जो कहीं न कहीं यह निर्णय करता है कि आने वाले समय में देश को कैसे नागरिक और नीतिकार मिलेंगे. ऐसे में बहुत आवश्यक है कि छात्रों की सजगता छात्र-राजनीति के प्रति भी बनी रहे. पर अफ़सोस की बात है कि इस समय देश के कई राज्यों में छात्र-संघ चुनाव बंद पड़े हुए हैं और सामान्य लोगों द्वारा भी छात्र-राजनीति को बहुत ‘अच्छी’ नज़रों से नहीं देखा जाता है. लेकिन अपने अनुभव और ज्ञान के कारण शायद मेरा मत इससे विपरीत है. मेरा मानना है कि एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र के लिए छात्र-राजनीति और छात्र-संघ चुनावों का होना अति आवश्यक है. यह किसी ‘विचार-धारा’ के लिए नहीं, बल्कि लोकतंत्र के लिए आवश्यक ‘विश्वास-धारा’ के लिए बहुर ज़रूरी है. दरअसल छात्र-राजनीति युवावस्था में ही अपने अधिकारों के लिए अहिंसक तरीके से संघर्ष करने, अपने मत की शक्ति को समझने, अपने विचारों को अन्य लोगो तक पहुंचाने और संगठित होकर हितों के लिए लड़ने और आंदोलन करने का नाम है.

भारतीय राजनीति में छात्र नेताओं के योगदान अतुलनीय है, फिर चाहे वो स्वतंत्रता के पहले हो या बाद में. मौजूदा सरकार में उपराष्ट्रपति पद के प्रत्याशी वेंकैया नायडू, वित्त मंत्री अरुण जेटली, खेल मंत्री विजय गोयल, संचार राज्यमंत्री मनोज सिन्हा आदि ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत छात्र राजनीति से ही की है. इनके अलावा विपक्ष में भी कई कद्दावर नेता हैं जिनका राजनीतिक करियर छात्र राजनीति से ही प्रारंभ हुआ है. जहां माकपा के सीताराम येचुरी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के डी.पी. त्रिपाठी जवाहरलाल यूनिवर्सिटी छात्र संघ (JNUSU) के अध्यक्ष रहे हैं, वहीं लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मनीष तिवारी, अजय माकन आदि नेताओं ने भी छात्र राजनीति के जरिये से ही अपना मुकाम हासिल किया है. इंदिरा गांधी द्वारा देश में 1975 में लगाए गए आपातकाल के खिलाफ जे.पी. का आंदोलन भी उस समय के छात्र नेताओं के बलिदान और संघर्षों के द्वारा ही सफल हो पाया और लोकतंत्र वापस आ सका. यह छात्र-संघ की ही विशेषता है कि सामान्य कल्याण के लिए विपरीत विचारधारा वाले लोग भी छात्र-संघ के पदाधिकारी होने के कारण समन्वय के साथ काम करना सीखते हैं. 1973-77 में जब भाजपा नेता सुशील मोदी पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के महामंत्री बने तो उस संघ के अध्यक्ष उनके कट्टर विरोधी लालू प्रसाद थे.

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महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु ने कहा था, “मनुष्य अपने स्वाभाव से एक राजनीतिक जीव है.” ऐसे में उसको राजनीति से अलग करना उसके मूल स्वभाव से अलग करने जैसा है. अगर कोई यह सोचता है कि कॉलेज और विश्वविद्यालय में राजनीति करने से छात्र अपने मूल लक्ष्य से भटक जाएंगे तो शायद उसकी शिक्षा की परिभाषा में ही कोई समस्या है. शिक्षित (educated) होने में और प्रशिक्षित (trained) होने का अंतर ही शायद उस मालूम नहीं है. सही मायने में शिक्षा का मतलब ज्ञान के साथ-साथ मूल्यों को ग्रहण करना होता है. और ऐसे में भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मूल्य "राजनीति" को राष्ट्र के युवा नागरिकों से दूर करना एक अपराध से कम कुछ भी नहीं होगा. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति के नाम पर हुडदंग, गुंडागर्दी, लड़ाई और हिंसा होती रही है जिसके कारण भारत के कई राज्यों में इस पर रोक लगाई गई. लेकिन मेरे दृष्टिकोण से गुंडागर्दी के कारण छात्र राजनीति पर रोक लगाना वैसा ही है जैसे हाथ में चोट लग जाने के कारण हाथ को काट देना! हाथ का उपचार करने के बजाए उसको काट देना क्या सही समाधान माना जाएगा? ठीक इसी प्रकार से छात्र राजनीति में सुधार और परिवर्तन लाने के बजाए उसपर प्रतिबंध लगा देना कोई उपचार नहीं है. इन्हीं सुधारों में से एक है 2005 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश द्वारा पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे. एम. लिंगदोह की अध्यक्षता में बनी लिंगदोह समिति की रिपोर्ट जिसने छात्र राजनीति को धनबल और बाहुबल से मुक्त करने में एक महतवपूर्ण योगदान दिया. लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के अनुसार चुनाव लड़ने के लिए एक उम्र-सीमा, चुनाव में खर्च पर 5000 रुपए की सीमा, विश्विद्यालयों/कॉलेज द्वारा चुनावों के लिए एक अलग चुनाव आयोग का गठन करना, आदि होता है. हालांकि कई वामपंथी छात्र संगठनों ने इसका विरोध भी किया है लेकिन लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें लागू करने से देश के सबसे प्रतिष्ठित छात्र संघों में से एक दिल्ली यूनिवर्सिटी छात्र संघ (डूसू) की चुनावी प्रक्रिया में तो बड़ा परिवर्तन आया है. कमेटी की सिफारिशें लागू होने से पहले और उसके बाद में अनाप-शनाप पैसे खर्च करने पर काफी काबू कर लिया है और उम्र सीमा तय होने के कारण हर साल अलग-अलग लोगों को चुनाव लड़ने का अवसर मिलता है, जो लोकतंत्र को ‘मठाधीशी-तंत्र’ बनने से रोकने में मील का पत्थर साबित हुआ है. हालांकि अभी भी इसमें सुधार की बहुत गुंजाईश शेष है लेकिन इस छोटी सी पहल को नज़रंदाज़ करना भी ठीक नहीं होगा.

सियासी नफे-नुकसान की नज़र से भी देखें तो तत्कालीन समय में भाजपा को लगातार मिल रही सफलता का बहुत बड़ा कारण है उसके पास संघ की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) का कार्यरत होना जो उसकी विचाधारा को छात्रों के बीच ले जाकर एक प्रकार की राजनीतिक चेतना (पॉलिटिकल consciousness) उत्पन्न करने का बहुत बड़ा कार्य करती है. और यह अन्य दलों का दुर्भाग्य ही है कि अधिकतर ने ऐसी कोई छात्र इकाई बनाई ही नहीं है, और जिनके पास है भी वो इसका सही प्रयोग नहीं कर पाते हैं. इस से बड़ी विडम्बना क्या होगी की स्वयं छात्र राजनीति की उपज रहे लालू प्रसाद, नीतीश कुमार आदि नेता स्वयं अपनी पार्टियों में इसके विस्तार के लिए कोई ठोस पहेल नहीं करते. कुछ समय पहले यह सुनने में आया था कि बसपा के नेताओं में मायावती के प्रति एक आक्रोश का कारण यह भी है कि बहनजी ने कोई छात्र इकाई का गठन ही नहीं किया, जिस कारण शायद पार्टी अपनी विचारधारा युवाओं तक और विशेष रूप से दलित युवाओं तक ले जाने में असफल रही. इसी का खमियाज़ा उनको विधान सभा चुनावों में झेलना पड़ा जहां पर भाजपा ने सभी पार्टियों का सूपड़ा साफ़ कर दिया. इसलिए छात्र-संघ चुनाव का बहाल होना सभी दलों के लिए लाभकारी है. यह उनको आज के मतदाता और कल के नेता दोनों प्रदान करेगा. उम्मीद करता हूं कि सभी दल इसको लेकर एक मत बनाएंगे और सरकार से यह मांग करेंगे कि हर राज्य में छात्र-संघ चुनाव सुव्यवस्थित और सुचारु रूप से बहाल किये जाएं और इस बात का भी पूरा ध्यान रखा जाए कि इसके कारण वहां का शैक्षणिक और सामजिक वातावरण बिलकुल भी दूषित न हो.

(लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एम.फिल. के रिसर्च स्कॉलर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

 

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