इस समय सारे पंच महाभूत क्षित, जल पावक, गगन और समीर संकट में हैं. स्वामी जी तो इनमें से सिर्फ एक, यानी जल यानी गंगा को बचाने में शहीद हो गए. आगे चलकर हम देखेंगे कि इस देश में बाकी पंच महाभूत को बचाने के भी आंदोलन होंगे. जो लोग ये आंदोलन करेंगे, वे हमारे दुश्मन नहीं, हमारे सबसे बड़े हितैषी होंगे.
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संपूर्ण क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण की जयंती पर शाम ढले यह खबर आई कि प्रोफेसर जीडी अग्रवाल जिन्हें आदर से स्वामी साणंद कहा जाता था, नहीं रहे. 86 साल की उम्र में पुण्य नगरी ऋषिकेश में उन्होंने प्राण त्यागे. किसी बुजुर्ग के लिए देहावसान का यह सुंदर योग ही कहा जा सकता है.
फिर भी दुख हो रहा है. उनकी वे तस्वीरें सोशल मीडिया पर दिखाई दे रही हैं, जिनमें उनकी नाक में नली डली हुई है और वह एंबुलेंस में लेटे हैं. यह नली इसलिए डली है कि वह गंगा बचाने के लिए अनशन कर रहे थे. उनका अनशन गंगा की अविरल धारा के लिए था. लेकिन भारत सरकार और उत्तराखंड सरकार और भारतीय जनता पार्टी इन सबमें से कौन ऐसा है, जो अविरल धारा के लिए न खड़ा हो. जब दोनों के विचार एक थे, तो आईआईटी के इस पुराने प्रोफेसर को क्यों अनशन करना पड़ा.
ऐसा नहीं कि वे पहली बार अनशन कर रहे थे. इससे पहले मनमोहन सिंह सरकार में भी उन्होंने बनारस में गंगा के लिए अनशन किया था. तब हम पत्रकारों ने उनकी बात को खूब ध्यान से सुना और उनके अनशन के नफे-नुकसान जनता के सामने रखे. तबकी सरकार ने उनकी सारी मांगें मान तो नहीं लीं, लेकिन कुछ मांगें तो मानी ही थीं. कम से कम उनकी ठीक-ठाक मनुहार तो की ही थी.
लेकिन इस बार उनका अनशन दिल्ली के सत्ता और मीडिया के गलियारों से दूर रहा. उनके अनशन में मीडिया की इस सीमित रुचि की क्या वजह थी. इसकी एक वजह तो यह हो सकती है कि एक ही बात को लेकर अगर कई साल तक संघर्ष किया जाए, तो धीरे-धीरे उसमें खबर का तत्व खत्म हो जाता है, और उसमें जनता और मीडिया की रुचि खत्म हो जाती है. लेकिन इसके अलावा भी और बहुत से कारण रहे होंगे, जो धीरे-धीरे समझे जाएंगे.
लेकिन अब जब वह चले ही गए हैं, तो हम पलटकर फिर सोचें कि वह बूढ़ा बाबा आखिर किस बात के लिए अनशन कर रहा था. वह यही तो कह रहे थे कि गंगा की धारा अविरल होनी चाहिए. वह यही तो कह रहे थे कि उत्तराखंड में गंगा पर बनी हाइड्रोपावर परियोजनाएं खत्म कर दी जाएं.
वह खुद भी इंजीनियर थे, इसके बावजूद उनकी मांगों को पूरी तरह मानना संभव नहीं था. गंगा की अविरल धारा, हमारी मौजूदा परिस्थितियों में संभव नहीं है. इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि उत्तराखंड में बहुत सारे बांध बन गए हैं. बल्कि इसकी वजह यह है कि हमने टिहरी बांध और गंग नहरों के माध्यम से गंगा के पानी का बड़ा हिस्सा खेती के लिए सुरक्षित कर दिया है. यही नहीं गंगा के पानी का दूसरा हिस्सा दिल्ली, गाजियाबाद और अन्य शहरों में पाइपलाइन के जरिए पीने को भेजा जाता है. यही हाल यमुना और हिमालय से निकलने वाली दूसरी नदियों का है. ये सब नदियां भी गंगा की सहायक नदियां ही हैं, यानी गंगा ही हैं.
अगर स्वामी जी की मांग के मुताबिक गंगा को अविरल कर दिया जाए तो फिर हमें किसानों और शहरों को अभी मिल रहा पानी रोकना पड़ेगा. इसका सीधा मतलब होगा हमारे वर्तमान जीवन में अचानक एक भूचाल का आना. इसका मतलब होगा एक झटके में हमारी खेती के एक बड़े हिस्से का खत्म हो जाना. यही वह बुनियादी वजह थी जिसके चलते पहले मनमोहन सिंह सरकार और अब नरेंद्र मोदी सरकार स्वामीजी की बात नहीं मान सकी.
लेकिन क्या इतना कहने से स्वामीजी की मांग पूरी तरह गलत हो जाती है. नहीं, वह गलत नहीं होती. हमने जिन परिस्थितियों का जिक्र किया है, वे कुदरत की बनाई नहीं हैं, इंसान की बनाई हैं. स्वामीजी जिस परिस्थिति की बात कर रहे थे, वह कुदरत की बनाई थी. गंगा की अविरलता प्रकृति की देन है.
तो हम क्या करें. हम अपने नए इंजीनियरों और नीतिकारों की मानें या फिर इंजीनियर से संत बन गए स्वामी साणंद की बात मानें. बद्रीनाथ से लेकर बलिया तक गंगा की दशा और दिशा को गहराई से देखने और समझने के तजुर्बे के आधार पर मैं कहूंगा कि अगर हमें अपनी सभ्यता को बचाए रखना है तो धीरे-धीरे स्वामी साणंद की मांग की तरफ बढ़ना होगा.
हमें याद रखना चाहिए कि जब नदी मरती है तो कोई नहीं बचता. आखिरकार हड़प्पा सभ्यता वहां बहने वाली सरस्वती (या आप उसका जो नाम चाहें वह रख लें) नदी के सूखने से ही खत्म हुई थी. हमारे कई साम्राज्यों की राजधानियां तो इसलिए वीरान हो गईं कि नदियों ने अपनी धारा बदल ली थी. वे सभ्यताएं भी इन त्रासदियों से इसलिए गुजरीं क्योंकि वे नदी से बहुत ज्यादा की मांग करने लगी थीं और नदी की ओर से दी गईं चेतावनियों के बावजूद खुद को बदलने को राजी नहीं थीं.
गंगा भी हमें वार्निंग कॉल दे रही है. स्वामी जी अपने ऋत की प्रेरणा से उसे सुन पा रहे थे, हम अपने तर्क आधारित सत्य की जिद में उसे अनुसना कर रहे हैं. गंगा अपने संकट के सबसे गहरे काल में पहुंच चुकी है. गंगा सागर से लेकर गढ़मुक्तेश्वर तक उसके तटीय इलाके में भूजल में आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है. इससे आसपास के इलाकों का भूजल पीने लायक नहीं बचा है. यह बड़े पैमाने पर बीमारियों की वजह बन रहा है. हमारी सबसे पवित्र नदी के आसपास बीमारियों और मौत का डेरा होता जा रहा है.
गंगा के भीतर पलने वाला जलजीवन बुरी तरह क्षत-विक्षत हो चुका है. इसके किनारे बसे शहरों का भूजल भी प्रभावित हो रहा है. गंगा का अपना जल तो प्रदूषित हो ही चुका है.
यह सब गंभीर चेतावनी की बातें हैं. लेकिन हम अब भी कह रहे हैं कि गंगा में गिरने वाले नालों पर ट्रीटमेंट प्लांट बनाकर गंगा को साफ कर लेंगे. राजीव गांधी के जमाने से नरेंद्र मोदी के जमाने तक हम अपनी इस जिद पर कायम हैं. लेकिन इस जिद का कोई नतीजा निकल नहीं रहा है. क्योंकि गंगा सिर्फ इंजीनियरिंग का नहीं, जिंदगी का मुद्दा है. उसका अपना इकोसिस्टम है और वह अपने आपमें पूरी कायनात है.
हमें अब इंजीनियरों की जिद के बजाय गांधी की व्यापक दृष्टि की तरफ देखना होगा. आखिर क्यों हम गंगा, सतलुज और यमुना का पानी उत्तर भारत के शीर्ष इलाकों में ही इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं. आखिर क्यों हम चने के लिए मुफीद मिट्टी में धान उगाना चाहते हैं. क्यों पश्चिमी यूपी में जबरन गन्ना उगाना चाहते हैं. अब यह साबित हो चुका है कि खेती के ये पैटर्न बहुत कामयाब होने के बावजूद न सिर्फ प्रकृति के खिलाफ हैं, बल्कि दीर्घकाल में टिकाऊ नहीं हैं.
अब जब देश में प्लानिंग कमीशन खत्म हो चुका है और नीति आयोग बन गया है. तो नीति आयोग को नई नीति भी बनानी चाहिए. उसे यह भी याद रखना चाहिए कि हम पांच हजार साल पुरानी सभ्यता हैं, तो अब हमारी नीति कम से कम कुछ सौ साल की तो होनी चाहिए. इस नीति में आत्मनिर्भर गांव न सही, आत्मनिर्भर शहर तो बनाए जाएं. इस नीति में तय हो कि हमें अपनी नदियों, जमीन, पहाड़ और हवा का कैसे संरक्षण हो. मोटे तौर पर कहें तो इस समय सारे पंच महाभूत क्षित, जल पावक, गगन और समीर संकट में हैं.
स्वामीजी तो इनमें से सिर्फ एक यानी जल यानी गंगा को बचाने में शहीद हो गए. आगे चलकर हम देखेंगे कि इस देश में बाकी पंच महाभूत को बचाने के भी आंदोलन होंगे. और जो लोग ये आंदोलन करेंगे, वे हमारे दुश्मन नहीं, हमारे सबसे बड़े हितैषी होंगे. यह वे लोग होंगे जो हमें अपने समाज की असली सर्जिकल स्ट्राइक की जरूरत बताएंगे. इसलिए स्वामीजी की मौत में हम इस बात को खासतौर से देखें कि वे अपने लिए नहीं मरे हैं, हमारे लिए मरे हैं. उनका बलिदान तभी सार्थक होगा, जब हम अपने और आने वाली नस्लों की फिक्र करने वाली सभ्यता को विकसित करने के बारे में सोचेंगे.
(लेखक पीयूष बबेले जी न्यूज डिजिटल में ओपिनियन एडिटर हैं)
(डिस्क्लेमर: इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)