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‘चूंकि मेरे उड़ान भरने पर रोक से मेरे कर्तव्य और जिम्मेदारियों का निर्वहन प्रभावित हो रहा है, इसलिए मैं आपसे रोक हटाने का अनुरोध करता हूं’
आप समझ ही गए होंगे कि इस माफीनामे में ‘मेरे’ शब्द का संबंध उस्मानाबाद के लोकसभा के सदस्य रवीन्द्र गायकवाड़ से है. और ‘रोक’ का वास्ता भारतीय विमानों द्वारा उनकी यात्रा पर लगाए गए रोक से है. यह घटना इतनी अधिक चर्चा में रही है कि उसे बताना बेवजह ही एक बार फिर से एक दुखद घटना को दुहराना होगा. इसलिए आइए, आगे चलते हैं.
सांसद महोदय ने जिस आधार पर रोक हटाने की मांग की है, उससे लगता है कि वे अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी के प्रति काफी संवेदनशील हैं. वैसे तो यह संवेदनशीलता सभी में होना चाहिए. लेकिन यदि कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन-प्रतिनिधि है, तब तो यह होनी ही चाहिए. उनका यह दायित्त्वबोध स्वाभाविक है. किन्तु सबसे दुखद और चिन्ताजनक पहलू यह है कि शायद उन्हें अपने कर्तव्य और दायित्त्वों का सही बोध नहीं है. इसी को थोड़ा जानते हैं.
सत्तावन वर्षीय गायकवाड़ सांसद भले ही पहली बार बने हों, लेकिन इससे पहले दो बार वे विधानसभा के सदस्य रह चुके हैं. वे ग्रेज्यूएट हैं. इसलिए उनसे उम्मीद की जाती है कि भले ही उन्हें पूरे संविधान की बहुत अच्छी जानकारी न हो, लेकिन उसकी सामान्य जानकारी; विशेषकर उसकी ‘उद्देश्यिका’ का ज्ञान तो होगा ही, जिसे एन.सी.आर.टी. की किताबों के मुख्य पृष्ठ को पलटते ही उसके पीछे पढ़ा जा सकता है. हमारे महान संविधान निर्माताओं ने पूरी संविधान की जिस प्रकार से बुनावट की है, उसका मूल मकसद है ‘व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करना’.
यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने संकल्प में स्पष्ट रूप से लिखा है कि ‘समस्त मानव जाति गरिमा एवं अधिकार के स्तर पर स्वतंत्र एवं समान है.’ साथ ही हमारे संविधान के कर्तव्य वाले भाग में (जिसका उल्लेख गायकवाड़ जी ने अपने पत्र में किया है) के अनुच्छेद 51(ए) का पहला ही बिन्दु है- ‘संविधान के प्रति प्रतिबद्ध होना तथा इसके आदर्शों एवं संस्थानों का सम्मान करना.’
अब सवाल यह उठता है कि क्या व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करने के लिए हवाई जहाजों की उड़ान जरूरी है? सवाल यह भी है कि क्या हवाई जहाज के किसी कर्मी को खुलेआम लोगों के बीच 25 चप्पलें मारने और फिर मीडिया के सामने अपने इस तथाकथित शौर्य गाथा का बखान करना व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करता है? इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि क्या इससे उनके स्वयं की गरिमा की रक्षा होती है? ध्यान देने की बात यह है कि व्यक्ति की गरिमा से जुड़ी हुई कुछ इसी तरह की घटना वे पहले भी कर चुके हैं.
यदि हम यहां संविधान को किनारे करके भारतीय सिद्धान्तों और संस्कारों की बात करें, तो क्या उनका यह काम उसके भी अनुकूल बैठता है? कोई भी भारतीय किसी भी व्यक्ति से कम से कम इस तरह के व्यवहार की तो सपने में भी उम्मीद नहीं कर सकता. संस्कार के स्तर पर उन्होंने जिसके साथ यह सलूक किया था, वह न केवल एक सार्वजनिक सेवक ही था, बल्कि उम्र में भी उनसे तीन साल बड़ा भी था.
चलिए, इन बातों को भी छोड़ देते हैं. अब आते हैं उनके राजनैतिक दल के नाम पर. वे शिवसेना के सांसद हैं. भारतीय दर्शन में शिव एक महायोगी, करूणामय और समाज के बिल्कुल ही आम लोगों के दैव एवं प्रतिनिधि के रूप में मान्य हैं. हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि शंकराचार्य जब वाराणसी में सुबह-सुबह गंगा से स्नान करके लौट रहे थे, तब वे अनजाने ही चाण्डाल से टकरा गए. इसे वे पाप समझकर जब पवित्र होने के लिए फिर से स्नान हेतु गंगा की ओर जाने लगे, तब उस चाण्डाल ने उनसे प्रश्न पूछा था कि ‘जब तुम सभी में एक ही आत्मा को देखते हो, तब मैं अस्पृश्य कैसे हुआ?’ इतना सुनते ही शंकराचार्य का भ्रम टूट गया. फिर उस चाण्डाल ने अपना मूल स्वरूप प्रगट किया. वे स्वयं भगवान शिव थे. शंकराचार्य के दर्शन के केन्द्र में यह विचार है कि ‘सभी में ब्रह्म का अंश है’. इसे ही गुरूनानक ने ‘एक नूऱ ते सब जग उपज्या, कौन भले कौन मंदे’ कहा है.’
यदि हमारे सांसद महोदय ने इस तथ्य को जरा भी आत्मसात किया होता, तो उनकी चेतना उन्हें उस विमानकर्मी के साथ बदतमीजी करने की इजाजत कभी नहीं देती. वैसे गायकवाड़ जी ने जिस विश्वविद्यालय से शिक्षा ली है, उसका नाम बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेड़कर के नाम पर है. वे बाबा साहेब आंबेड़कर के काम और विचारों से वाकिफ होंगे, ऐसी उम्मीद की जाती है.
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमारे जन-प्रतिनिधि ही नहीं, बल्कि पूरा समाज सामन्तीय चेतना से संचालित हो रहा है. इसी का नमूना एक बार फिर से कुछ ही दिनों बाद तृणमूल कांग्रेस की सासंद डोला सेन में देखने को मिला, जब वे हवाई जहाज की थोड़ी-सी अव्यवस्था पर, जो कि नियम के अनुकूल था, आपे से बाहर हो गईं. जाहिर है कि जब तक स्वयं को समाज में विशिष्ट समझने की चेतना से मुक्ति नहीं मिलेगी, तब तक ऐसी घटनाएं शायद आगे भी होती रहें. लकिन इस बात को अच्छी तरह समझ लिया जाना चाहिए कि भले ही एअरलाइंस ने प्रतिबन्ध भले हटा लिए हों, लेकिन जन चेतना पर इससे जो छवि बनी है, उसे कोई भी सरकारी आदेश या लोकसभा द्वारा पारित प्रस्ताव हटा नहीं सकता और किसी भी जन-प्रतिनिधि के लिए इससे बड़ा कोई दण्ड भी शायद ही कोई हो.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)