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निदा रहमान
सायना नेहवाल और पीवी सिंधु हमारी चैंपियन हैं, वो हमारे देश की बेटियों के लिए मिसाल हैं, उनकी प्रेरणा हैं. वर्ल्ड बैडमिंटन चैंपियनशिप में सिंधु एक चैंपियन की तरह खेली और आखिर तक हार नहीं मानी. बेटियां जुझारू होती हैं, वो ज़िद्दी भी होती हैं, वो संघर्ष करती हैं. सिंधु भले ही जापान की नोजोमी ओकुहारा से हार गईं लेकिन उनकी हार में भी जीत है .
भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब विश्व बैडमिंटन चैंपियनशिप में दो पदक मिले हों. ये दोनों मेडल बेटियों ने जीते हैं. सायना नेहवाल ने शनिवार को कांस्य पदक जीता तो सिंधु को रविवार को सिल्वर मेडल से संतोष करना पड़ा. ये पहला मौका नहीं है जब देश की बेटियों ने हर हिंदुस्तानी का सिर गर्व से ऊंचा किया हो. हार के बावजूद पूरा देश सिंधु को बधाई दे रहा है, क्योंकि देश जानता है कि सिंधु की उपलब्धि बड़ी है, वो हारी नहीं है बल्कि हार कर भी जीती है. 22 साल की लड़की दुनिया में देश का नाम रौशन कर रही है. सायना घुटने की चोट से उबरने के बाद कांस्य पदक जीतने में कामयाब रहीं और सिंधु फाइनल में आखिर तक डटी रहीं .
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प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सांसद,मुख्यमंत्रियों से लेकर आम लोग सिंधु को बधाई दे रहे हैं. हां बधाई देनी भी चाहिए लेकिन हमें अपने आसपास और अपने आप को भी देखना चाहिए कि हम अपने घर की बेटियों को सिंधु और सायना क्यों नहीं बनने देना चाहते हैं. आज भी ज़्यादातर माता-पिता अपनी बेटियों की पढ़ाई के फ़ैसले लेते हैं, उन्हें क्या करना है खुद तय करते हैं और अगर बात खेल की आई तो फिर तो कोहराम मचना लाज़िमी है. आज आप सिंधु, सायना, सानिया, दीपा, मिताली, झूलन, हरमनप्रीत, गीता, बबीता को देखकर खुश होते हैं, लेकिन आपके घर में भी कोई सिंधु निकल सकती है, हो सकता है कि आपकी बेटी भी सानिया मिर्ज़ा बनकर विश्व में अपनी पहचान बनाए .
क्रिकेट के अलावा हम किसी दूसरे खेलों को तरजीह नहीं देते हैं बावजूद इसके दूसरे खेलों में हमारे खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं और उसमें देश की बेटियां सबसे आगे हैं. अफ़सोस की बात है कि एक तरफ़ महिला खिलाड़ी दुनिया में भारत का डंका बजा रही हैं, तिरंगे को फहरा रहीं है तो वहीं दूसरी तरफ़ बेटियां सरेआम क़त्ल की जा रही हैं, उनका बलात्कार किया जा रहा है उनके साथ छेड़छाड़ की जा रही है उनका शोषण हो रहा है . बेटियों को सुरक्षित माहौल देना तो ज़रूरी है लेकिन समाज, परिवार और हमारे हुक्मरान किसी भी वारदात के बाद लड़कियों को घरों में रहने की सलाह देते हैं. आख़िर घरों में क़ैद रखकर लड़कियां कैसे सुरक्षित हो जाएंगी क्योंकि घरों में भी बेटियां सुरक्षित नही हैं .
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बेटियों को लेकर बहुत हद तक समाज की सोच बदली है लेकिन वो नाकाफ़ी है. अभी भी हमारे आसपास लड़कियों को उतनी ही आज़ादी है जितने में वो अपने फ़ैसले खुद ना ले सकें, उन्हें उतनी ही ढील दी जाती हैं कि कहीं वो खुले आसमान में उड़ना ना सीख लें. आज सिंधु, सायना और भारतीय महिला क्रिकेट टीम को बधाई तो दे रहे हैं देश के लोग लेकिन क्या वो अपने घरों की बेटियों को ये सफ़र तय करने देंगे . शायद जबाव ना होगा क्योंकि सबसे पहले तर्क होता है कि ज़माना ख़राब है, घरों से बाहर लड़कियां सुरक्षित नहीं है. ये बहाना है बेटी के ख्बावों को मारने का, ये तरीका है बेटियों को आत्मनिर्भर ना बनने देने का. लड़कियों को लेकर अभी बहुत कुछ बदलना बाकी है, उन्हें पराया धन समझना बंद करना बाकी है. बेटियां बोझ नहीं होती है बेटियां माता-पिता का बोझ उतारती है.
आज देश सायना, सिंधु की कामयाबी को सलाम कर रहा है, सोशल मीडिया बधाई के संदेशों से पट गया है. लेकिन समाज को दोहरी मानसिकता से मुक्ति पानी होगी क्योंकि आपके घर की बेटी भी देश का नाम रौशन कर सकती है. बस उसे बोझ ना मानिए, उसे पराया धन ना मानिए, उसके कंधे पर परिवार की इज्ज़त का बोझ ना बांधिए. अपनी बेटियों का हौसला बढ़ाइए,उनकी हिम्मत बनिए, उनके साध कंधे से कंधा मिलकर चलिए, उन्हें यकीन दिलाइए कि उनका परिवार उनके साथ है. उसे वैसी ही आज़ादी दीजिए जैसे आप अपने बेटो को देते हैं ,फिर देखिए आपकी बेटी भी कल की सायना और सिंधु बन सकती है.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)