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थे तो पांच राज्यों के चुनाव, लेकिन उन सभी के केंद्र में था, केवल एक राज्य, उत्तर प्रदेश. इसलिए अब, जबकि चुनाव के नतीजे लगभग-लगभग स्पष्ट हो ही गए हैं, अधिकांश चुनावी चर्चा उत्तर प्रदेश के आसपास ही सिमट गई है.
एक लंबे अंतराल के बाद उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने जा रही है, और वो भी तीन-चौथाई बहुमत से. लगभग यही स्थिति उस उत्तराखंड की भी है, जो सन् 2000 तक इसी उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था. मणिपुर में उसका उदय एक टक्कर देने वाली पार्टी के रूप में हुआ, और असम तथा अरूणाचल प्रदेश के बाद यह उत्तर-पूर्वी भारत का तीसरा वह राज्य बन गया है, जहां बीजेपी ने अपनी जड़ें जमा ली हैं. पंजाब की हार मूलतः अकालियों की हार है, बीजेपी की नहीं. हां गोवा में पार्टी थोड़ी कमज़ोर जरूर हुई है. पूर्व मुख्यमंत्री का भी हार जाना इस कमज़ोरी के एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करता है.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी की अद्भुत जीत को देखते हुए जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री का यह ट्वीट बहुत मायने रखता है कि 'सन् 2019 को भूल जाइए. 2024 की तैयारी कीजिए.' निःसंदेह रूप से उत्तर प्रदेश के इस चुनावी परिणाम ने न केवल आगे के चुनाव-परिणामों की संभावित पूर्व-घोषणा ही कर दी है, बल्कि भारतीय राजनीति के चेहरे में हो चुके गुणात्मक परिर्वतन को भी सिद्ध कर दिया है. यह नया चेहरा है-बात नहीं साख, कहना नहीं करना, धर्म और जाति नहीं, राजनीति.
यह कम बड़ी बात नहीं है कि सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जिस 42% मतों के द्वारा 80 में से कुल 73 सीटें जीतने में सफलता पाई थी, उसने अपने मतों के उस प्रतिशत को न केवल बनाए ही रखा, बल्कि उसमें कुछ इज़ाफा भी किया. वह भी तब, जबकि वहां समाजवादी पार्टी की सरकार थी, और इस चुनाव में उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन भी किया था. जाहिर है कि यह केंद्र सरकार के कामों की सराहना में किया गया मतदान है.
उत्तर प्रदेश में बिना मुस्लिम समर्थन के इतने प्रतिशत वोट और विधानसभा की इतनी सीटें जीत पाना संभव ही नहीं है. यहां तक कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी बीजेपी के माथे सेहरा बंधा है. देवबंद की जीत से भला इसका बेहतर उदाहरण अन्य क्या हो सकता है. मुस्लिम महिलाओं ने बीजेपी को वोट दिया है, क्योंकि यह पार्टी तीन तलाक की प्रथा के विरोध में है. जाहिर है कि अब राजनीति में धर्म की दीवारें टूट चुकी हैं, और उसका स्थान मानवतावाद लेता जा रहा है.
इसी की अगली बदसूरत कड़ी है जाति, जिस कार्ड का इस्तेमाल यहां अभी तक सपा और बसपा करती रही हैं. लोकसभा चुनावों के बाद अब विधानसभा के चुनावों में भी उसका लगभग-लगभग सफाया हो चुका है. यानी कि जाति की आधारभूमि खिसक चुकी है.
तो फिर आधारभूमि क्या है? संदेश और संकेत बिल्कुल स्पष्ट हैं, और वह है-काम. पंजाब से अकाली सरकार गई और वह भी बुरी तरह से. वहां कांग्रेस आ गई. लेकिन उत्तराखंड से कांग्रेस बुरी तरह चली गई. वहां बीजेपी आ गई. यहां तक कि वहां के मुख्यमंत्री तक चुनाव हार गए, और वह भी दोनों जगहों से. गोवा और मणिपुर के सबक भी कुछ ऐसे ही हैं.
आने वाले दिनों के लिए इससे अच्छा राजनीतिक संकेत भला और क्या हो सकता है ? यह वह मौका है, जब भारतीय मतदाताओं को सलाम किया जाना चाहिए.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार है)