Zee Analysis : पुलिस हिरासत में किसी की मौत किस ओर इशारा करती है
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Zee Analysis : पुलिस हिरासत में किसी की मौत किस ओर इशारा करती है

1980 में पुलिस की बर्बरता का शिकार बनी एक महिला और उसके पति और साथियों की हत्या का एक इसी तरह के मामला जन आंदोलन में बदल गया था.

Zee Analysis : पुलिस हिरासत में किसी की मौत किस ओर इशारा करती है

बिहार के एक गांव में एक आदमी पर उसकी ही पत्नी के खून का इल्जाम लगाया जाता है. आदमी पर यह इल्जाम है कि उसने अपनी पत्नी को इसलिए मार दिया क्योंकि उसने दूसरे मर्द के साथ रात गुज़ारने से मना कर दिया था. आरोपी पुलिस हिरासत में ले लिया जाता है लेकिन वो कुछ बोलता नहीं है. बस एक अजीब सी डरा देने वाली खामोशी उसके चेहरे पर नज़र आती है. जब एक वकील उसका केस अपने हाथों में लेकर मामले की जांच करता है तो हकीकत की पर्तें खुलती है. किस तरह एक दिहाड़ी मज़दूर की पत्नी के साथ एक दंबग बलात्कार करता है और जब शर्मसार होकर मजदूर की पत्नी आत्महत्या कर लेती है तो उसकी मौत का इल्जाम उसी के मज़दूर पति पर लगा दिया जाता है. 

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मामले की जांच में जो समाजसेवी, वकील की मदद करता है वो भी गायब हो जाता है और अचानक एक दिन मजदूर के पिता की भी मौत हो जाती है. जब मजदूर को पिता के अंतिम संस्कार के लिए लाया जाता है तो वो देखता है कि उसकी पत्नी के साथ बलात्कार करने वाला दबंग वहां मौजूद है औऱ ललचाई नजरों से उसकी बहन को देख रहा है. बाद में वो अपनी बहन को कुल्हाड़ी से काट डालता है. क्योंकि वो जानता है कि उसकी बहन के साथ भी ऐसा ही कुछ होगा. अपनी बहन को मारने के बाद वो चीख-चीख कर अपना आक्रोश निकालता है. उसकी चीख बिल्कुल उस सुअर की तरह होती है जिसके पास अपने बचाव का महज एक ही तरीका होता है जोर से चिल्लाना. उसे लगता है कि वो जोर से चिल्ला कर शायद बच जाए.

यह कहानी 1980 में लगभग सभी श्रेणियों मैं नेशनल अवॉर्ड जीतने वाली ओमपुरी की फिल्म ‘आक्रोश’ की है. एक क्षेत्रीय अखबार के अंदर के पेज पर छपी एक खबर पर आधारित यह फिल्म उन्नाव में हुई घटना के बाद फिर से ज़हन में आ गई.

4 जून 2017 यानी आज से दस महीने पहले एक पीड़ित अचानक गायब हो गई. 21 जून को पीड़ित वापस आ गई और 22 जून को उसने मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज करवाया. उसने तीन लोगों के नाम लिए लेकिन उसमें विधायक का नाम मौजूद नहीं था. बाद में जुलाई में पीड़ित ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी औऱ मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को चिट्ठी लिखी जिसमें उसने विधायक कुलदीप सिंह सेंगर पर बलात्कार का आरोप लगाया था. बाद में पीड़ित के परिवार पर विधायक समर्थकों ने मानहानि का मामला दर्ज कर दिया.

22 फरवरी को पीड़ित के परिवार ने जिला अदालत में एक अर्जी देकर फिर से विधायक पर आरोप लगाया. इस मामले में पुलिस ने तीनों आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया था लेकन विधायक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई थी. शायद यह बात यूं ही दबी भी रह जाती लेकिन दबंगों को यह अखर गई थी कि एक आम आदमी ने उन का नाम उछाल कैसे दिया. उन्हें शायद लगा होगा कि इस तरह तो उनका दबदबा खतरे में पड़ सकता है तभी 3 अप्रैल को अदालत से लौटते वक्त पीड़ित के पिता को इतनी बुरी तरह से पीटा की वो अधमरा हो गया. यहां भी पुलिस ने पीड़िता के पिता को ही आर्म्स एक्ट का केस बनाकर जेल भेज दिया. जहां उसकी मौत हो गई. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक मौत की वजह बेरहमी से पिटाई है. रिपोर्ट में साफ लिखा गया है कि पीड़िता के पिता के शरीर पर भारी चोट के 14 निशान मिले हैं. इसी बीच एक वीडियो भी सामने आया जिसमें पुलिस बगैर लड़की के पिता को दिखाए कागजों पर उसके अंगूठे के निशान ले रही है.

पुलिस पर बर्बरता करने औऱ दबंगो का साथ देने का यह कोई पहला मामला नहीं है. पुलिस के व्यवहार को लेकर आए दिन इस तरह की घटनाएं सुनने को मिलती रहती है. 1980 में पुलिस की बर्बरता का शिकार बनी एक महिला और उसके पति और साथियों की हत्या का एक इसी तरह के मामला जन आंदोलन में बदल गया था.

गाजियाबाद के निवासी ईश्वर त्यागी अपने दो दोस्तों और पत्नी माया त्यागी के साथ 18 जून 1980 को बागपत के पास एक शादी में शरीक होने गए थे. बागपत में एक जगह उनकी कार पंचर हो गई. वो कार ठीक करवा रहे थे उसी दौरान वहां पर तैनात एसआई नरेंद्र सिंह के साथ ईश्वर त्यागी की किसी बात पर कहा सुनी हो गई. नरेंद्र सिंह उस वक्त तो चला गया लेकिन थोड़ी ही देर बाद वो अपने कुछ पुलिसवालों के साथ वापस लौटा. नरेंद्र सिंह ने ईश्वर त्यागी और उनके दोनों साथियों की गोली मारकर हत्या कर दी. बाद में उसने ईश्वर की पत्‍नी माया त्यागी को पूरे बाजार में निर्वस्त्र घुमाया. पुलिसवालों पर माया के साथ बलात्कार करने का आरोप भी लगा था . इस मामले ने तूल पकड़ा और जन आंदोलन शुरू हो गया. सरकार को न्यायिक जांच और सीबीसीआईड जांच का आदेश देना पड़ा जिसमें 11 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया गया. कोर्ट ने इनमें से 6 पुलिसकर्मियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी. मुख्य आरोपी नरेंद्र सिंह की घटना के कुछ ही दिन बाद हत्या हो गई थी, जिसके आरोप में माया त्यागी के देवर विनोद त्यागी जो उत्तरप्रदेश पुलिस में कांस्टेबल था, उसे फंसा दिया गया. हालांकि वर्ष 2009 में विनोद त्यागी को नरेंद्र सिंह की हत्या के आरोप से कोर्ट ने बरी कर दिया था.

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ऐसे न जाने कितने मामले होंगे, कुछ उजागर हो गए तो उससे कहीं अधिक दबे रह गए. अगर देखा जाए तो औरत के भोग के साथ जबर्दस्ती मर्द को एक अजीब ताकत का अहसास करवाती रही है. भंवरी देवी मामले में एक ही परिवार के सदस्यों जिसमें चाचा-भतीजा शामिल थे, उन्होंने मिलकर भंवरी देवी के साथ दुषकर्म किया था. बाद में ये फैसला सुनाया गया कि किसी परिवार के दो सदस्य एक साथ किसी औरत के साथ ऐसा काम नहीं कर सकते थे. 'बंवडर' फिल्म में इस पूरे मामले को बेहद ही साफगोई के साथ दिखाया गया था. अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमे शायद राजस्थान, पंजाब,हरियाणा, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों मे लड़कियों के पैदा होते ही उन्हें मार देने या लड़कियों की संख्या कम होने की वजह मिल सकती है. ये वो राज्य है जो पहाड़ी इलाकों के बाद पड़ने वाले पहले मैदानी इलाके हैं. भारत देश पर कई बार आक्रमण हुए और जब भी दुश्मन पहाड़ों को पार कर लेता था तो उसे रोक पाना बहुत मुश्किल हो जाता था. वो मैदान में आकर अपना आंतक मचाता था. यही वो राज्य थे जिनसे गुज़रते हुए वो दिल्ली का रुख करता था. आक्रमणकारी जब इन राज्यों से गुजरता था तो वो एक तो खजाना लूटता था, दूसरा यहां की औरतों की अस्मत पर हाथ डालता था. 

सत्ता और शासन को अपनी जेब में रखकर घूमने वाले ये लोग सोचते हैं कि उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा. उन्हें मालूम है कि या तो ताकत के बल पर या पैसों के जोर पर वो फिर से किसी के साथ जबर्दस्ती करने के लिए तैयार हो जाएंगे. हो सकता है इस मामले में ये बातें भी सामने आए कि हम मामले को समझने में जल्दबाजी कर रहे हों लेकिन पुलिस हिरासत में किसी आम आदमी की मौत किस ओर इशारा करती है. 

विधायक की पत्नी इस मामले में नार्कों टेस्ट करवाने की बात कर रही है. उनका मानना है कि इसके बाद सच सामने आ जाएगा. तो अगर उनके हिसाब से सच कुछ और है तो फिर पीड़िता के पिता को बुरी तरह से पीटे जाने की क्या ज़रूरत पड़ गई. उनकी हिरासत में मौत क्यों हो गई? पुलिसवाले उन्हें परेशान क्यों कर रहे थे? अगर सच दंबगों के साथ था तो ये सब घटनाएं क्यों घटी? ऐसे कई सवाल है जो बताते हैं कि सच के आक्रोश को बाहर निकलने के लिए चीखना बेहद ज़रूरी है. और जब ये चीख शासन की कानों को चुभती है तो नतीजा ज़रूर निकलता है. वैसे भी वो शेर है ना - यह खामोश मिज़ाजी तुम्हे जीने नहीं देगी, इस दुनिया में रहना है तो कोहराम मचा दो.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

 

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