यह एक अकाट्य सत्य है कि जिस दिन दुनिया सत्य के अर्थ को समझ लेगी उस दिन वह शांति पा लेगा। कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है। साथ में पाकिस्तान की 17 साल की बाला मलाला यूसुफजई को भी शांति का नोबेल सम्मान देकर नोबेल समिति में शामिल लोगों ने यह जताने की कोशिश की है कि अगर दोनों देश मिल-जुलकर आगे बढ़ें तो दुनिया नहीं तो कम से एशिया महाद्वीप में निश्चित रूप से शांति कायम की जा सकती है।


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1980 से लेकर अब तक 82 हजार 625 बच्‍चों को बाल मजदूरी के दंश से छुटकारा दिलाने वाले शांति पुरुष कैलाश सत्‍यार्थी का मानना है कि अब उनकी जिम्‍मेदारी और बढ़ गई है। वह इसे दुनिया भर के करोड़ों बच्‍चों का सम्‍मान मान रहे हैं। कहते हैं कि 'बचपन बचाओ आंदोलन' के जनक कैलाश सत्‍यार्थी को वर्ष 2014 का शांति के लिए नोबेल पुरस्‍कार मिलने की जानकारी जब उन्हें दी गई तो अचानक उनके मुंह से निकला, ‘नोबेल पुरस्‍कार’। ये शब्द मुंह से निकलने के साथ ही उनकी आंखें पहली बार नम देखी गईं। उनके आसपास के लोग कहते हैं कि इससे पहले उनके स्‍टाफ या परिवार के लोगों ने उन्‍हें इतना भावुक कभी नहीं देखा था। जाहिर है कैलाश सत्यार्थी सही मायनों में सत्य को जीने वाला इंसान है और सत्य को जीतता देखकर भावुक होना एक स्वभाविक मानवीय प्रक्रिया जो है।


आज भारत समेत पूरी दुनिया कैलाश सत्यार्थी पर नाज कर रहा है। लेकिन यह भी एक अजीब विरोधाभासी तथ्य है कि जिस देश में सत्य के अर्थ को स्थापित करने के लिए सत्यार्थी पर जानलेवा हमला होता है आज उसी देश के बच्चों की ताकत ने सत्यार्थी को शांति पुरुष बना दिया। जी हां! याद करिए वो दिन जब उत्तर प्रदेश के गोंडा जिला स्थित करनैलगंज में सत्यार्थी पर जानलेवा हमला हुआ था। जून 2004 में करनैलगंज में चल रहे ग्रेट रोमन सर्कस में काम कर रही 11 नेपाली लड़कियों को सत्यार्थी जब बचाने गए थे तो सर्कस मालिक के बदमाशों ने उनपर जानलेवा हमला किया था। गोंडा पुलिस की तत्परता से समय रहते उन्हें बचा लिया गया था। कैलाश सत्यार्थी को नेपाल के रहने वाले 11 परिवारों से शिकायत मिली थी कि उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर ग्रेट रोमन सर्कस के मालिकान उनकी नाबालिग बच्चियों से जबरन सर्कस में काम करवा रहे हैं।


नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की नौकरी छोड़कर पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से बाल अधिकारों की रक्षा और उन्हें और मजबूती से लागू करवाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया। 80 हजार बाल श्रमिकों को मुक्त कराया और उन्हें जीवन में नयी उम्मीद दी। उनके दृढ़ निश्चय एवं उत्साह के कारण ही गैर सरकारी संगठन बचपन बचाओ आंदोलन का गठन हुआ। वह देश में बाल अधिकारों का सबसे प्रमुख समूह बना और 60 वर्षीय सत्यार्थी बच्चों के हितों को लेकर वैश्विक आवाज बनकर उभरे। वह लगातार कहते रहे कि बच्चों की तस्करी एवं श्रम गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और जनसंख्या वृद्धि का कारण है।


दिल्ली एवं मुंबई जैसे देश के बड़े शहरों की फैक्टरियों में बच्चों के उत्पीड़न से लेकर ओड़िशा और झारखंड के दूरवर्ती इलाकों से लेकर देश के लगभग हर कोने में उनके संगठन ने बंधुआ मजदूर के रूप में नियोजित बच्चों को बचाया। उन्होंने बाल तस्करी एवं मजदूरी के खिलाफ कड़े कानून बनाने की वकालत की और अभी तक उन्हें मिश्रित सफलता मिली है। उन्होंने बच्चों के लिए आवश्यक शिक्षा को लेकर शिक्षा के अधिकार का आंदोलन चलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सत्यार्थी को कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले जिसमें डिफेंडर्स ऑफ डेमोक्रेसी अवार्ड (2009 अमेरिका), मेडल ऑफ द इटालियन सीनेट (2007 इटली), रॉबर्ट एफ. केनेडी इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स अवार्ड (अमेरिका) और फ्रेडरिक एबर्ट इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स अवार्ड (जर्मनी) आदि शामिल हैं।


उन्होंने ग्लोबल मार्च अगेन्स्ट चाइल्ड लेबर मुहिम चलायी जो कई देशों में सक्रिय है। उन्हें रूगमार्क के गठन का श्रेय भी जाता है जिसे गुड वेब भी कहा जाता है । यह एक तरह का सामाजिक प्रमाण पत्र है जिसे दक्षिण एशिया में बाल मजदूर मुक्त कालीनों के निर्माण के लिए दिया जाता है। सत्यार्थी को बाल अधिकारों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए पहले भी कई बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। सत्यार्थी भारत में जन्मे पहले व्यक्ति हैं जिन्हें नोबल शांति पुरस्कार से नवाजा गया है और नोबल पुरस्कार पाने वाले सातवें भारतीय हैं।