जाति और लैंगिक भेदभाव बराबरी से चलता है. भारत में स्त्रियों और पुरुषों को समान काम का समान वेतन/मजदूरी नहीं मिलती है. इस वक्तव्य में जो बातें समाहित हैं, वो शायद हम सब जानते हैं. हम इस विषय में पूरे के पूरे डूबे हुए हैं, केवल जानकारी के स्तर पर ही नहीं, बल्कि व्यवहार के स्तर पर भी. यही कारण है कि समाज से लेकर राज्य व्यवस्था तक इस विषय का बहुत हद तक सामान्यीकरण हो चुका है. सामान्य मानस में यह स्वीकार लिया गया है कि यह तो होता ही है, यह अपने आप बदलेगा और यदि न भी बदले तो कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. यह विश्लेषण महिलाओं के के श्रम, उसकी स्वीकार्यता और गरिमा के बारे में है. कुछ ताज़ा जानकारियों का सन्दर्भ लेते हैं-:


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- वर्ष 1972-73 में ग्रामीण भारत में कुल कार्यशील जनसंख्या में से 31.8 प्रतिशत महिलाएं थी, जो कि वर्ष 2015-16 में घटकर 26.7 प्रतिशत रह गयी हैं. (ग्लोबल एम्प्लोयमेंट ट्रेंड्स 2013; वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम-2016)
- वर्ष 1972-73 में शहरी भारत की कुल कार्यशील जनसंख्या में 13.4 प्रतिशत महिलायें थीं, जिसमें वर्ष 2015-16 तक कुछ वृद्धि हुई और यह सहभाग 16.2 प्रतिशत तक पंहुच पाया है. (पांचवे रोज़गार-बेरोज़गारी के सर्वेक्षण की रिपोर्ट 2015-16, भारत सरकार) 
- भारत में वर्ष 2013 की स्थिति में केवल 13.4 प्रतिशत महिलाओं के पास सुरक्षित वेतन पर नियमित रोज़गार था.


विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित शोध पत्र रिपोर्ट (रीअसेसिंग पैटर्न्स आफ फीमेल लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन इन इंडिया, मार्च-अप्रैल 2017) ने कुछ गंभीर संकेत उजागर किये हैं. इसके हिसाब से भारत में श्रम शक्ति में महिलाओं की सहभागिता दर केवल 27 प्रतिशत है, यानी 100 संभावित कार्यशील आयुवर्ग की महिलाओं में से 27 महिलायें ही रोज़गार में शामिल हैं. 1990 के दशक के मध्य में महिला श्रम सहभागिता की दर 40 प्रतिशत थी.
हमें यह ध्यान रखना होगा कि कार्यशेल जनसंख्या की परिभाषा में 'उन महिलाओं को कार्यशील नहीं माना' जाता है, जो 'बिना किसी भुगतान के देखरेख का और अपने घर का' श्रम साध्य काम करती हैं.


अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इस संबंध में भारत 131 देशों की सूची में 121वें स्थान पर है. इसके दूसरी तरफ चीन में 63.9 प्रतिशत, नेपाल में 79.9 प्रतिशत, बांग्लादेश में 57.4 प्रतिशत, यूरोपियन यूनियन में 50.5 प्रतिशत और अमेरिका में 56.3 प्रतिशत महिलायें कार्यशील श्रमशक्ति का हिस्सा हैं. इस शोध पत्र के मुताबिक वर्ष 2004-05 से 2011-12 के बीच के सात सालों में भारत में 1.96 करोड़ महिलायें श्रम के क्षेत्र से बाहर हो गयीं, इनमें से 53 प्रतिशत कमी ग्रामीण भारत में आई; स्वाभाविक है कि ग्रामीण क्षेत्र में सबसे ज्यादा महिलायें कृषि में और अनौपचारिक-असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं, तो वहीँ उनके हाथों से काम के अवसर छीने गए हैं. यह कहना बेहतर होगा कि उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास नीतियां श्रम शक्ति बाहर धकेल रही हैं. इस शोध पत्र के मुताबिक सभी शैक्षणिक समूहों में महिलाओं की श्रम शक्ति में हिस्सेदारी कम हुई है; इसका मतलब यह है कि भारत शिक्षा के साथ रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवा पाने में सफल नहीं हुआ है.


बहरहाल श्रम शक्ति में महिलाओं की सहभागिता कम होने के कई पहलू हो सकते हैं – शिक्षा, कौशल, अवसरों की कमी, उचित संरक्षण का अभाव आदि; लेकिन लैंगिक भेदभाव जरूर जड़ों से चिपट कर बैठा हुआ है. बात 1990 की करें या फिर 2017 की, महिलाओं को समान नागरिक और समान श्रमिक दोनों का ही दर्ज़ा नहीं मिल पाया है. इसे मापने का और साबित करने का स्पष्ट माध्यम है महिलाओं को श्रम के एवज में किया जाने वाला भुगतान.


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भारत की व्यवस्था संविधान में दर्ज सिद्धांतों और प्रावधानों से संचालित होती है. संविधान का अनुच्छेद 39 (क) के अनुसार राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से 'पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (घ) पुरुषों और स्त्रियों, दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो.



अनुच्छेद (43) के अनुसार 'राज्य, उपयुक्त विधान या आर्थिक संगठन द्वारा या किसी अन्य रीति से कृषि के, उद्योग के या अन्य प्रकार के सभी कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवनस्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेगा.' लेकिन भारत में संवैधानिक प्रावधान से लेकर न्यूनतम मजदूरी क़ानून और समान वेतन क़ानून के अस्तित्व में होने पर भी श्रम और श्रम के भुगतान में लैंगिक भेदभाव बहुत गहराई से विद्दमान है.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक मुद्दों पर शोधार्थी हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)