स्‍त्री और पुरुष सदा से दो भाषाओं में संवाद करते आ रहे हैं. स्‍त्री कुछ कहती है, पुरुष कुछ सुनता है. पुरुष कुछ चाहता है, स्‍त्री कुछ और समझ रही होती है. देह भाषा और भाव भंगिमाओं के पाठ में भी यह अंतर महसूस होता है. खैर … फि‍लहाल बात अखिलेश की प्रतिनिधि कहानियों पर.


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अखिलेश मौजूदा समय के उन प्रतिष्ठित कथाकारों में से हैं, जिनकी कहानियां पढ़कर पाठक कहानियों का पाठ सीखते हैं. राजकमल प्रकाशन की प्रतिनिधि कहानियां श्रृंखला में यह अखिलेश की प्रतिनिधि कहानियों का संकलन हैं. जिसका संपादन मनोज कुमार पांडेय ने किया है. चार कहानी संग्रह और दो उपन्‍यासों सहित संस्‍मरण और संपादन के द्वारा हिंदी साहित्‍य में उल्‍लेखनीय योगदान कर चुके अखिलेश की प्रतिनिधि कहानियों का यह संकलन उनके प्रशसंकों और पाठकों के लिए तोहफा है. जिसमें श्रृंखला, वजूद, यक्षगान, जलडमरूमध्‍य, शापग्रस्‍त और चिट्ठी जैसी सुंदर और लो‍कप्रिय कहानियां संकलित हैं. इनमें भी चिट्ठी उनकी सर्वाधिक चर्चित कहानी मानी जाती है.
 
संग्रह की भूमिका में मनोज इसे वर्चस्वशाली सत्ताओं के विरुद्ध खड़ी कहानियां बताते हैं. ये छह की छह कहानियां उन्‍हीं सत्‍ताओं से टकराने की कहानियां हैं. यहां यह बात महत्‍वपूर्ण नहीं रह जाती है कि सत्‍ता और उसके शोषित के टकराव में जीत हर बार सत्‍ता की ही होती है, बल्कि महत्‍वपूर्ण यह है कि लगातार हारने के बावजूद उस आम आदमी का हौंसला अभी डिगा नहीं है, जिसे महात्‍मा गांधी के जंतर में पंक्ति के सबसे अंत में खड़ा बताया गया है. अखिलेश इसी अंतिम आदमी के जीवट के कथाकार हैं. जिन्‍हें वे अलग-अलग परिदृश्‍यों में महसूस करते हैं और उसी प्रखरता से पाठक के लिए लेकर आते हैं. कुछ टकराव इतने देखे-सुने जान पड़ते हैं कि कहानी पढ़ते हुए पाठक उन्‍हें अपने भीतर भी महसूस करने लगता है. 


इनमें सर्वाधिक मुखर सत्‍ता है राजनीतिक सत्‍ता. जो अधिकांश कहानियों में महसूस होती है. इनके नायकों की लड़ाई सत्‍य और न्‍याय के पक्ष में हैं. जबकि इस लड़ाई को लड़ते हुए वे अनचाहे ही सीधे-सीधे सत्‍ता से टकराने को मजबूर हो जाते हैं. कथानक और शिल्‍प भी इतना सहज है कि नायक अपनी शक्ति और डर दोनों को लिए हुए कथा में उपस्थित है. एक आम नायक की तरह. 


श्रृंखला कहानी का नायक एक कमजोर दृष्टि‍ वाला व्‍यक्ति है. वह कॉलेज में पढ़ाता है और एक स्‍थानीय अखबार में स्‍तंभ भी लिखता है. उसकी आंख की नजर भले ही मद्धि‍म है पर वह दुनिया को रोशनी दिखाना चाहते हैं. इस रोशनी की राह में आने वाले वे हर पर्दे को हटा देना चाहता है. फि‍र सत्‍ताधीशों का अपने नाम की शॉर्ट फॉर्म के पीछे छिपने का खेल ही क्‍यों न हो. पर यह छोटी सी कोशिश ही उसके लिए इतनी बड़ी मुश्किलें खड़ी कर देती हैं कि दुनिया को रोशनी दिखाने निकला नायक रतन कुमार खुद अपने ही अंधेरों से घबराने लगता है. 
  
वहीं वजूद कहानी में रामबदल का वजूद भले ही निर्मम तरीके से मिटाने की कोशिश गांव की सत्‍ताएं करती हैं, पर जयप्रकाश के भीतर वह इस तरह पैठ जमाकर बैठ जाता है कि वह पूंजी की सत्‍ता के सामने भी हथियार डालने से इन्‍कार कर देता है. रामबदल के हारे हुए नायक की जीत जयप्रकाश के नायक में किसी तरह तब्‍दील हो जाती है, इसका बेहद मार्मिक एवं सुंदर प्रस्‍तुतिकरण कहानी में मिलता है. 


यक्षगान इस संग्रह की एक और मार्मिक और सुंदर कहानी है. इस कहानी की खासियत है गांव में होने वाली सुगबुगाहटें. वे कच्‍ची सूचनाएं जिन्‍हें कथाकार जस का तस कहानी में परोस देते हैं. बिना अपना कोई निर्णय दिए. गांव की एक नाबालिग लड़की सरोज अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है. अमूमन जैसा कि हर बार इस तरह के मामलों में होता है कि हर घटना, हर दृश्‍य की कई-कई कहानियां लोगों की जुबान गढ़ने लगती है. कथाकार कोई भी पुख्‍ता सूचना दिए बगैर ये सब कहानियां अपने पाठक के समक्ष रख देते हैं. वहीं अंत में अपना लेखकीय दायित्‍व निभाने की कोशिश में वे सरोज के ही बहाने इन कहानियों में से गायब सच्‍चाई की पोल खोलते हैं. पर नायिका कहां है, किस हाल में है, यह अंत तक रहस्‍य ही बना रहता है. 


चौ‍थी कहानी जलडमरूमध्‍य गांव के मोह और शहर से एक किस्‍म के फोबिया के शिकार सहाय साहब की कहानी है. गांव के प्रति यह मोह हर उस व्‍यक्ति में मौजूद रहता है जिसकी नाभिनाल गांव में है. गांव का घर चाहें बीस कमरों की हवेली हो या कोई छोटी सी झोपड़ी ही, अब भी शहरों में बसे अधिकांश लोगों की कामना अपने गांव लौट जाने की होती है. इस कामना के पीछे उनके मन में बसी गांव की वह सुंदर, मनोरम और वात्‍सल्‍यमयी छवि है जो उनके बचपन या किशोरावस्‍था के 
अबोध मन पर अंकित हो गई थी. वे उम्र भर इसी छवि को पोसते रहते हैं और उस में लौट जाने की कामना पालते हैं. इसी मनोरम छवि , गांव के प्रति अपने दायित्‍व बोध, वहां लौट जाने की ख्‍वाहिश और निर्ममता से उस मोह के टूटने की कहानी है जलडमरूमध्‍य. 


शापग्रस्‍त एक अलग कलेवर की बेहद खिलंदड़ अंदाज में लिखी गई कहानी है. एक ऐसा नायक जो कविताएं लिखता है और सुख की तलाश में है. इस सुख की तलाश में वह अपने अच्‍छे खासे सीधे- सरल जीवन के साथ क्‍या-क्‍या प्रयोग, दुष्‍प्रयोग कर डालता है, इसे बहुत ही मनोरंजक अंदाज में लेखक ने कहानी में बयां किया है. 


अंतिम कहानी चिट्ठी स्‍वप्‍नशील युवाओं के सपनों के टूटने की कहानी है. अपनी अपनी प्रतिभाओं के बावजूद वे किस तरह हाशिये पर आ जाते हैं, अपनी आर्थिक विपन्‍नता के कारण यह पाठक काे झकझोर देता है. यह लेखक की सर्वाधिक चर्चित कहानी रही है. कहानी के पात्रों के सुख-दुख का कोई न कोई टुकड़ा हर निम्‍न मध्‍यमवर्गीय युवा के जीवन का हिस्‍सा रहा होगा. जिनके पास प्रतिभा और सपने तो बहुत है पर इन्‍हें आगे बढ़ाने के लिए वह आर्थिक सपाेर्ट सिस्‍टम नहीं है, जिससे वह प्रतिभा और सपने अपने सिरे तक पहुंच सकें. वे सभी युवा अपने परिवार, गांव से आने वाले उस मनीऑर्डर पर निर्भर हैं, जो एक दिन आने बंद हो जाते हैं.


एक शापग्रस्‍त कहानी को छोड़कर संग्रह की सभी कहानियों में गांव अपनी उसी आत्‍मीय मनोरम छवि के साथ मौजूद है. रतन कुमार के बाबा गांव में हैं, चिट्ठी गांव से आती है, सहाय साहब गांव जाना चाहते हैं. वजूद और यक्षगान तो घटित ही गांव में होती हैं. असल में उन पात्रों की कहानियां हैं जिनकी नाभिनाल गांव में गढी है. यही वजह है कि लेखक ग्रामीण और कस्‍बाई स्‍त्री के प्रति तो बहुत संवेदनशील दिखते हैं परंतु शहरी स्‍त्री के प्रति उनमें वह संवेदनशीलता महसूस नहीं होती. खासतौर से वह स्‍त्री जो घर से बाहर निकल कर अपने लिए एक अलग संघर्ष चुन रही है. शापग्रस्‍त में लेखक रिसेप्‍शनिस्‍ट के मुस्‍कुराते हुए नायक के ही अंदाज में जवाब देने को बदचलन कह दिया जाता है. वहीं यक्षगान में राजनीति में अपनी मजबूत पहचान बनाने की कोशिश में संघर्षरत युवा नेता (स्‍त्री नेता भी नेता ही होती है) मीरा यादव का बेहद अश्‍लील वर्णन कहानी में मिलता है. सरोज को उसके प्रेमी, दलाल, बाहूबली और महंत से अपनी कुशल रणनीति के जरिए छुड़वा लाने वाली मीरा यादव जब अपनी या पार्टी के सीनियर नेता द्वारा बुलवाई जाती है, तब उसकी भावनात्‍मक उहापोह से ज्‍यादा लेखक उसके स्‍तनों के उभार पर फोकस करते हैं कि कैसे उसने आंचल को सरका कर अपने सीने को उठान दिया है. और नेता जी का संबोधन ‘आ आ रंडी आ ’ ये इतना अश्‍लील जान पड़ता है कि 21वीं सदी का लेखक भी यह सत्‍यापित कर देना चाहता है कि राजनीति में मीरा यादव की रणनीति से ज्‍यादा उसके सीने का उठान महत्‍वपूर्ण है. 


तमाम तरह की सत्‍ताओं से टकराने वाला लेखक पितृसत्‍ता की कंडीशनिंग से बच नहीं पाया. यह कंडीशनिंग कितनी हास्‍यास्‍पद है, इसे जलडमरूमध्‍य में मनजीत के चरित्र से समझा जा सकता है. सहाय साहब की बहू मनजीत एक कामकाजी स्‍त्री है और उसका दांपत्‍य एक पति और एक बेटे के साथ सुखमय माना जा सकता है पर उसके पति को उसके चरित्र पर शक है, जो खुद भी चरित्र के उस पैमाने पर खरा नहीं उतरता, जिसे लेखक चरित्र मानते हैं. मनजीत खादी का कुर्ता पहनकर ऑफि‍स जाती है. उसे लगता है कि इसमें उसके स्‍तनों का उभार ज्‍यादा अच्‍छे से प्रदर्शित हो रहा है. पर वह कुर्ता बॉस को इतना पसंद आता है कि वह उसे पहन लेता है. कुर्ते की इस आत्‍मीय अदला बदली में मनजीत ब्रा कहीं बिला जाती है. और आश्‍चर्य उसे इसका अहसास तब होता है, जब उसका पति उसे याद दिलाता है कि वह सुबह तो ब्रा पहनकर गई थी और अब शाम को वह नहीं है. 
इस समय हिंदी साहित्‍य में ही स्‍त्री रचनाकारों की एक साथ तीन पीढि़यां रचनारत हैं. एक के भी अनुभव में मनजीत और उसकी ब्रा का यह वर्णन दर्ज हो पाया हो, मुझे संदेह है. ब्रा पहनना कतई अनिवार्य नहीं है, यह किसी भी स्‍त्री के निजी कम्‍फर्ट लेवल पर निर्भर करता है कि वह इसे पहने या न पहने. पर सुबह ब्रा पहनकर निकलने वाली स्‍त्री की ब्रा दोपहर में कहीं खो जाए और याद शाम को उसका पति दिलवाए, यही वह दृश्‍य हैं जिन्‍हें स्‍त्री के संदर्भ में पुरुष रचनाकार जबरन गढ़ रहे हैं. और मीरा यादव, मनजीत के संघर्ष की यही वह भाषा है जिसे वे पढ़ना और सुनना नहीं चाह रहे.