Kissa Kursi Ka: क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लोकसभा चुनाव में की कांग्रेस की मदद? 1980 में कितना बदल गया था इंदिरा गांधी का अंदाज
Lok Sabha Elections 2024 News: देश में पहली और दूसरी गैर-कांग्रेसी सरकार गिरने के बाद बाद साल 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बदले हुए अंदाज के साथ प्रचार किया था. उन्होंने चुनाव प्रचार का नया और अनोखा तरीका आजमाया था. कहा जाता है कि उन्होंने रणनीतिक तौर पर वैचारिक विरोधियों की मदद भी हासिल की थी.
RSS Helped Congress In Election: देश में 18वीं लोकसभा चुनने के लिए आम चुनाव की जारी प्रक्रियाओं में सत्तारुढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व में बने एनडीए और इंडी अलायंस के बीच मुकाबला है. लोकसभा चुनाव 2024 के प्रचार अभियान में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को घेरते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी जमकर निशाना साधते हैं.
कांग्रेस के चुनाव प्रचार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की मदद!
इस बीच, चुनावी राजनीति के इतिहास के जानकारों का कहना है कि संघ ने राहुल गांधी की दादी और देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की चुनाव के दौरान प्रचार में मदद की थी. उन्होंने अनौपचारिक तौर पर कई बार इसको स्वीकार किया था. हालांकि, चुनाव के दौरान की रणनीतियों को सार्वजनिक नहीं किया जाता. इसलिए यह वाकया भी आधिकारिक नहीं हो पाया. आइए, किस्सा कुर्सी का में देश के सातवें लोकसभा चुनाव के बारे में जानते हैं.
भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय आपातकाल, फिर आया बदलाव
भारत में लोकतंत्र का काला अध्याय साल 1975 में इंदिरा गांधी के शासन में लगा आपातकाल जन आंदोलनों के कारण हटा लिया गया था. जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश में पहली बार विपक्षी दलों के गठबंधन से बनी जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव 1977 में बड़ी जीत मिली थी. इससके बाद देश में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, लेकिन जनता पार्टी के नेताओं की आपसी खींचतान के चलते जल्द ही ये सरकार गिर गई.
मोरारजी देसाई और चरण सिंह की सरकार गिरने के बाद चुनाव
इसके बाद चौधरी चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने. हालांकि, एक संसद सत्र देखे बिना जल्द ही ये सरकार भी धराशायी हो गई. इसके बाद साल 1980 में लोकसभा चुनावों का ऐलान हुआ. इंदिरा गांधी केंद्र की सत्ता में वापस आने के लिए रणनीति बना चुकी थीं. उन्होंने अपने पुराने तेवर और अंदाज को भी बदल लिया था. उन्होंने विपक्ष को ध्वस्त करने के लिए तरकश के सारे तीर आजमाए थे.
चर्चित किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ की लेखिका और सीनियर जर्नलिस्ट नीरजा चौधरी ने एक यूट्यूब चैनल के इंटरव्यू में बताया था कि गैर-कांग्रेसी सरकार गिरने के बाद जनता पार्टी के नेताओं को कुछ समझ नही आ रहा था कि आखिरकार अब क्या करना है. वहीं, लोकसभा चुनाव 1980 के ऐलान के बाद इंदिरा गांधी प्रचार अभियान में जी-जान से जुट गईं.
चुनाव प्रचार में इंदिरा गांधी के इस टिप्स को मानते हैं पीएम मोदी
किताब के मुताबिक इंदिरा गांधी चुनाव प्रचार के लिए निकलीं तो अपने साथ आठ साड़ी, दूध और पानी के लिए दो थर्मस और एक जापानी एलईडी लाइट लेकर गई थीं. इंदिरा गांधी ये बखूबी जानती थी कि देश के आम लोग उन्हें देखना चाहते हैं. इसलिए इंदिरा अगर रात में सफर करती थीं तो लाइट जलाकर गाड़ी में अपने सामने रख लेती थीं.
दिलचस्प बात यह है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जब कार से सफर करते हैं तो इंदिरा गांधी की ही तरह गाड़ी में सीट के सामने एक ब्लू एनआईडी लाइट रखते हैं. इसकी रोशनी से आम लोग उनको आसानी से देख पाते हैं.
अपने चर्चित सख्त तेवर को नरम कर इंदिरा गांधी ने मांगे वोट
अपने पहले के चर्चित सख्त तेवर को नरम कर इंदिरा गांधी अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान जनता के बीच सीधे शब्दों में वोट मांगती थी. लोकसभा चुनाव 1980 में देश के मुसलमान कांग्रेस और खासकर गांधी-नेहरू परिवार से काफी नाराज था. इसकी वजह आपातकाल के दौरान हुई नसबंदी अभियान और संजय गांधी के रवैए को माना जा रहा था.
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तब इंदिरा गांधी और कांग्रेस को बताया जा रहा था हिंदूवादी
इंदिरा गांधी और कांग्रेस को उस दौरान हिंदूवादी बताया जा रहा था. इसके चलते कांग्रेस को चुनाव में मुसलमानों का ज्यादा वोट नहीं मिला. इसके रिएक्शन में हिंदू मतदाताओं ने कांग्रेस को समर्थन दिया था. इसमें बड़ी संख्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने भी अपनी भूमिका निभाई. इस आम चुनाव में 353 सीटें जीत कर इंदिरा गांधी ने केंद्र की सत्ता में धमाकेदार वापसी कर ली थी.
इसके बाद इंदिरा गांधी ने कई मौकों पर व्यक्तिगत तौर पर ये माना था कि कांग्रेस इन 353 सीटों को जीतने में संघ का भी बड़ा योगदान था. हालांकि, उन्होंने ये बात कभी सार्वजनिक तौर पर कभी स्वीकार नहीं की, लेकिन आज भी सियासत जगत में कई जगहों पर इसका जिक्र किया जाता है.
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