नई दिल्‍ली: हिंदुस्‍तान की आजादी का जश्‍न जब भी मनाया जाता है, उस दौर में देश को स्‍वतंत्रता दिलाने वाले स्‍वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानी को जरूर याद किया जाता है. 15 अगस्‍त, 1947 के दिन भारत की कहानी में स्‍वतंत्रता का अध्‍याय तो जुड़ गया, लेकिन यहीं से एक नए हिंदुस्‍तान को बनाने की जद्दोजहद भी शुरू हो गई. आजादी की खुशी के साथ ही देश के दो हिस्‍सों में बंटने का गम और उससे पैदा हुए हालात भी हमारे देश को ही झेलने थे. लेकिन जहां इन नई पनपती समस्‍याओं और संघर्षों को राजनीति और सामाजिक संस्‍थाओं ने अपने स्‍तर पर सुलझाने की कोशिश की तो वहीं, इन हालातों पर खुला आइना दिखाने का काम हिंदी सिनेमा ने भरपूर अंदाज में किया. चाहे 1954 में आई फिल्‍मिस्‍तान के बैनर तले बनी फिल्‍म 'नास्तिक' हो, जिसने धर्म के नाम पर होती हिंसा को सीधे तौर पर पर्दे पर ला कर रख दिया. या फिर 'अवारा' और 'प्‍यासा' जैसी फिल्‍में, जिन्‍होंने समाज की बुराइयों को उसी के सामने सिनेमाघर में दिखा दिया.


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उभरे राज कपूर और गुरू दत्त
हिंदी सिनेमा ने हर दौर में अपनी बात बड़ी बेबाकी से रखी. ऐसे में जहां कई फिल्‍मों को उस दौर के समाज ने बेहद काली सच्‍चाई दिखाने के चलते सिरे से खारिज कर दिया तो वहीं दूसरी तरफ कई बार इन फिल्‍मों ने लोगों को भीतर तक झंझोर दिया. 1950 से 1960 तक के दौर की बात करें तो यह समय हिंदी सिनेमा के लिए बेहद जटिल था. इस दौर की हर फिल्‍म के मूल में समाजवाद था. इस दौरान दो प्रमुख फिल्‍ममेकर यानी राज कपूर और गुरू दत्त उभरे, जिन्‍होंने अपनी फिल्‍मों में सामाजिक बुराइयों को दिखाने के साथ ही एक बेहतर हिंदुस्‍तान की परिकल्‍पना की.



'प्‍यासा' में पूछा गया सवाल 'जिन्‍हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं..?'
सन 1951 में आई राजकपूर की ब्‍लॉकबस्‍टर फिल्‍में 'आवारा' और 1955 में आई 'श्री 420' यूं तो कमर्शियल फिल्‍में थीं, लेकिन इन फिल्‍मों में सामाजिक बुराइयों को दिखाना का सराहनीय प्रयास किया. वहीं गुरू दत्त की 'प्‍यासा' (1957) आजादी पर ही सवाल उठाते हुए नजर आती है. इस फिल्‍म के गाने 'जिन्‍हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं..?' को उस दौर में काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था. शहरों में बढ़ते पूंजीवाद से लेकर किसानों के दर्द तक को हिंदी सिनेमा ने 70 एमएम के पर्दे पर उतारा.



गांवों के दर्द से जातिवाद तक पर प्रहार
निर्देशक बिमल रॉय की फिल्‍म 'दो बीघा जमीन' (1953) उस समय के ग्रामीण इलाकों में बसने वाले लोगों की मेहनत और दर्द को बयां करती दिखी. वहीं बिमल रॉय की फिल्‍म 'सुजाता' छुआछूत और जातिवाद जैसे विषय पर बात करती नजर आई. वी. शांताराम की फिल्‍म 'दो आंखे बारह हाथ' ने एक ऐसे शख्‍स की कहानी पर्दे पर उतारी, जो गरीबी और अपने हालातों के चलते अपराध का रास्‍ता अपनाता है. इस फिल्‍म को बर्लिन फिल्‍म फेस्टिवल में बेस्‍ट फिल्‍म का अवॉर्ड दिया गया.



जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच जैसे विषयों के साथ ही 'प्रेम' एक ऐसा विषय था, जिसने हिंदी सिनेमा के हर दौर में अपनी जगह बनाए रखी. 1959 के बाद तो जैसे प्रेम और उसकी कहानियां ही हिन्‍दी सिनेमा के मूल में आ गई. 1960 में आई निर्देशक के. आसिफ की पीरियड ड्रामा फिल्‍म 'मुगल-ए-आजम' ने जैसे इतिहास रच दिया. 5.5 करोड़ की धमाकेदार कमाई के साथ इस फिल्‍म ने लाखों दर्शक सिनेमाघरों तक खींचे. इसके बाद 'मेरे महबूब', 'संगम' और 'आराधना' जैसी फिल्‍मों ने प्‍यार को शानदार तरीके से प्रस्‍तुत किया.


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