Coalition Govt In India: नब्बे के दशक में देश ने आर्थिक सुधारों के साथ-साथ गठबंधन की राजनीति का दौर भी शुरू होते देखा. तमाम पार्टियां एक कॉमन एजेंडा पर सहमत होने के बाद मिलकर काम करने लगीं. गठबंधन की सरकार चलाना आसान नहीं होता, वर्तमान में एनडीए के तीसरे कार्यकाल को ही देख लीजिए. जुम्मा-जुम्मा तीन महीने भी नहीं हुए, लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को कई फैसले या तो वापस लेने पड़े, या उनमें बदलाव करना पड़ा. इन तीन महीनों की तुलना अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA सरकार से करने पर पता चलता है कि बीजेपी कैसे गठबंधन राजनीति में कमजोर हुई है.


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कुर्सी बचाए रखने के लिए गठबंधन की सरकारों को खूब जतन करने पड़ते हैं. कभी फैसले वापस होते हैं, कभी आदेश बदले जाते हैं, कभी-कभी नीतियों को लेकर समझौते भी करने पड़ते हैं. वाजपेयी यह बात बखूबी समझते थे. शायद तभी तो वह बीजेपी की 182 सीटों के सहारे पूर्ण कार्यकाल वाली सरकार चला पाए. उनके बाद मनमोहन सिंह ने भी एक दशक तक गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया. फिर बीजेपी 2014 और 2019 में पूर्ण बहुमत पाती है और फिर गठबंधन राजनीति कहीं नेपथ्‍य में चली जाती है. 2024 में 240 सीटें जीतने के बावजूद, बीजेपी को अब गठबंधन सरकार चलाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है.


कैसे सहयोगी दलों के आगे झुकने को मजबूर हुई बीजेपी


PM मोदी के नेतृत्व में NDA 3.0 की शुरुआत ही लड़खड़ाहट के साथ हुई. बजट में किए गए उस प्रावधान को वापस लिया गया जिसमें 23 जुलाई, 2024 से पहले खरीदी गई संपत्तियों की बिक्री के लिए इंडेक्सेशन लाभ नहीं देने का प्रस्ताव था. चूंकि, वित्त मंत्री अक्सर ही बाजार के फीडबैक पर फैसले बदलते हैं, इसलिए इसे सामान्य माना जा सकता है. लेकिन वक्फ एक्ट में संशोधन का क्या? इस बिल को NDA में BJP के दो बड़े सहयोगी दलों का समर्थन हासिल था, लेकिन फिर इसे संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेज दिया गया. यह NDA 1 और NDA 2 के तेवर से एकदम उलट था.


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फिर सरकार में लेटरल एंट्री के जरिए पदों को भरने के लिए UPSC का विज्ञापन आया. विपक्ष तो विरोध कर ही रहा था, लेकिन सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने भी मोर्चा खोल दिया. सिर्फ पांच सांसदों वाली LJP ने सरकार को वह विज्ञापन वापस लेने पर मजबूर कर दिया.


गठबंधन की सरकार चलाने के लिए सहयोगियों का समर्थन चाहिए, इस बात से कोई इनकार नहीं करता. गठबंधन सरकार में प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर हमेशा अडिग नहीं रहा जा सकता. लेकिन ऐसा लगता है कि NDA 3.0 अभी 'गठबंधन धर्म' के साथ तालमेल नहीं बिठा पाई है. यह संदेश जा रहा है कि सरकार कोई फैसला करने से पहले सहयोगी दलों की राय नहीं लेती. अगर सरकार ने सहयोगियों से पहले ही चर्चा कर ली होती तो उसे बार-बार इस तरह यू-टर्न लेने पर शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती.


वाजपेयी, मनमोहन और मोदी में फर्क है...


वाजपेयी ने 1999 में और मनमोहन ने 2004 में जब गठबंधन सरकारों की कमान संभाली तो उन्हें पहले से पता था कि समझौते करने पड़ेंगे. लेकिन नरेंद्र मोदी के लिए यह नया अनुभव है. उन्होंने गुजरात पर लगभग 13 साल राज किया और केंद्र में एक दशक हो चुका है, लेकिन कभी उन्हें सहयोगियों के साथ मोलभाव नहीं करना पड़ा. वर्तमान सरकार से शायद यह समझने में गलती हुई कि फैसलों में सहयोगियों को भी शामिल करना पड़ता है.


मोदी ने जब NDA 3.0 कैबिनेट की घोषणा की तो उसमें अधिकतर पुराने चेहरे बरकरार रखे गए. सहयोगियों को कुछ प्रमुख मंत्रालय मिले लेकिन सरकार के काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव नहीं दिखा. बीजेपी ने भी कहा कि 04 जून के नतीजों से कुछ नहीं बदला है. शायद जमीन पर आ चुके बदलाव को स्वीकारना पार्टी के लिए मुश्किल साबित हुआ.


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मोदी सरकार को अपने तीसरे कार्यकाल में गठबंधन मैनेजमेंट का ककहरा सीखने पर मजबूर होना पड़ा है. यह कला वाजपेयी को भी सीखनी पड़ी और बाद में सोनिया गांधी को भी, जिन्होंने बफर के रूप में मनमोहन को रखा. पिछले दोनों प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में भी कई फैसले वापस लिए गए. वाजपेयी के वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा का तो नाम ही 'रोलबैक सिन्हा' पड़ गया था. मनमोहन के दौर में सरकार लेफ्ट दलों और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के आगे कई बार झुकती नजर आई.


मोदी को क्या करना चाहिए?


नरेंद्र मोदी जून 204 से पहले तक बहुमत वाली पार्टी के दम पर सरकार चलाते रहे. खालिस गठबंधन सरकार का मुखिया होने का उन्हें कोई अनुभव नहीं था. लेकिन शायद उनके लिए गठबंधन सरकार चलाना वाजपेयी और सोनिया या मनमोहन के मुकाबले कहीं ज्यादा आसान हो. मोदी का राजनीतिक आधार अपने पूर्ववर्तियों से मजबूत है.


अगर सरकार पहले ही अपने स‍हयोगियों से राय-मशवरा कर ले, और नीतियों के बारे में उन्हें विस्तार से समझाए तो शायद वे सुधारों के लिए राजी हो जाएं. मोदी यह काम अपने मंत्रियों के भरोसे नहीं छोड़ सकते.


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