'बिदेसिया' जिसने भिखारी ठाकुर को बिहार का Shakespeare बना दिया
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'बिदेसिया' जिसने भिखारी ठाकुर को बिहार का Shakespeare बना दिया

Bhikhari Thakur: 1 मार्च 1980 को बिहार के सीवान में नाई जाति में जन्में भिखारी ठाकुर ने अपनी प्रतिभा का ऐसा लोहा मनवाया कि उनके कला ने जात और धर्म के बंधन के बैरियर को तोड़ दिया

भिखारी ठाकुर .(फाइल फोटो).

सइयां गइले कलकतवा ए सजनी
गोड़वा में जूता नइखे, हाथवा में छातावा ए सजनी,
सइयां कइसे चलिहें राहातावा ए सजनीं

Patna: पति–पत्नी के बीच अटूट प्रेम के रिश्ते. दोनों के बीच बिछड़न और फिर पत्नी का पति के प्रति ख्याल. इस प्रेम बंधन को दिखाती हुई ये खूबसूरत पंक्तिया. कुछ दशक पहले लिखी गई जो आज भी प्रसांगिक है. हो सकता है समय बीतने के साथ इसको कहने का तरीका बदल गया हो. लेकिन आज भी जब अपना कोई घर से बाहर जाता है तो कोई उसके दिल के करीब उसका ऐसा ही ख्याल रखता है.

इसकी रचना करने वाले कला के क्षेत्र में अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ गए कि किसी ने उन्हें उनके लिखे गए नाटक के लिए बिहार का 'शेक्सपीयर' कहा तो किसी ने उनके रचना के लिए तुलसीदास कहा तो, किसी ने उनके लेख के लिए उन्हें भारतेंदु कहा. लेकिन हम बात कर रहे हैं उस 'भिखारी ठाकुर' की जिसने उस समय खुद को बिहार का शेक्सपीयर कहलवाया जब हमारा देश जाति प्रथा और सामाजिक कुरीति  के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा था.

1 मार्च 1980 को बिहार के सीवान में नाई जाति में जन्में भिखारी ठाकुर ने अपनी प्रतिभा का ऐसा लोहा मनवाया कि उनके कला ने जात और धर्म के बंधन के बैरियर को तोड़ दिया. अपनी जिंदगी में कुछ अलग करने का जज्बा रखने वाले भिखारी ने बिहार में एक अलग तरह के लोक नृत्य की नींव रखी, लौंडा नृत्य. कलम के धनी भिखारी ठाकुर ने अनोखे लोक नृत्य को तब शुरू किया था जब हमारे समाज के महिलाएं बस घर की शोभा बढ़ाने के लायक मानी जाती थी.

नाट्य रचना गढ़ने में माहिर भिखारी को अपने नाटकों  को लोगों तक पहुंचाने के लिए महिला कलाकारों की जरूरत थी. लेकिन उस जमाने में महिलाओं को उनके घूंघट से निकालकर स्टेज पर लाना मुश्किल था. इसका तोड़ उन्होनें पुरूषों को महिलाओं  की तरह वेशभूषा पहनाकर निकाला. तब उन्होनें उस जमाने में पुरूषों को साड़ी पहनाकर स्टेज पर उनसे अभिनय करवाया तो लोगों ने उनके इस कदम को हाथों हाथ लिया. फिर क्या था, भिखारी के कलम से निकली रही रचनाएं नाटक के रूप में लोगों  के बीच प्रसिद्धि पाने लगी. समाज को जागरूक करने वाली एक से एक रचनांए जब 'लौंडा नाच' के रूप में लोगों के बीच आने लगी तो लोगों के प्यार ने भिखारी ठाकुर को अभिभूत कर दिया. 

अपनी कलम से उन्होनें भोजपुरी संस्कृति को एक अलग पहचान दिलाई. बिहार के शेक्सपियर ने अपने जिंदगी में एक से बढ़कर रचनाएं की. कला प्रेमियों के बीच बिदेसिया नाटक से जाने जाने वाले भिखारी ठाकुर के अनगिनत नाटक हैं जो लोगों को आज भी याद हैं. अब हम बात करने जा रहें है उनके दस बेहतरीन नाटक के बारे में-

बिदेसिया
इस नाटक के माध्यम से अपनों से दूर रहने के दर्द को नाटक के रूप में कहने की कोशिश की गई है. दर्द उन भोजपूरी नवविवाहित युवाओं के बारे में कहने की कोशिश की गई है, जिसमें कम उम्र के लोग अपने दोस्तों के बहकावे में आकर कलकत्ता का नाम सुनकर रोजी-रोटी के तलाश में अपने गांव और प्रदेश को छोड़कर वहां जाना चाहते हैं. इस नाटक में नायक विदेसी का जिक्र किया गया है. जो ऐसे ही हालातों में कलकत्ता जाता है. जाते समय उसकी पत्नी उसे रोकने की कोशिश करती है. लेकिन पत्नी मोह भी उसे रोक नहीं पाती. 

एक गाने के माध्यम से विदेसी की पत्नी की चिंता को दर्शाया गया है. नए शहर में जाकर नाटक का नायक विदेसी कैसे नए शहर में जाकर पराए औरत के प्रेम में पड़ जाता है.  वहां जाकर अपने पत्नी के प्रेम को भूलने लगता है. लेकिन एक दिन उसके गांव का दोस्त बटोही उसकी पत्नी का संदेश लेकर आता है. पत्नी का करूणा से भरा संदेश सुनकर वो घर लौटने को मजबूर हो जाता है.

इस  कहानी की सरलता ही इसकी ताकत बनी. जिसने इसे सुना और देखा उसके आंखों से आंसू निकल गए. इस नाट्य के माध्यम से जिस खूबसूरती से विरह, प्रेम संबध, संबध विच्छेद और अंत में मिलन दिखाया है कि ये नाटक दिन ब दिन प्रसिद्ध होती चली गई.  इस नाटक को भिखारी ठाकुर ने कई जगह जाकर लाइव परर्फाम किया. बाद में इस नाम से फिल्में भी बनी. 

बेटी बियोग/बेटी वेचवा
भिखारी ठाकुर ने अपने नाटक के माध्यम से उस समय के समाज के एक और कुरीति बाल-वृद्ध विवाह को दिखाने की कोशिश किया है. जिसमें पैसे के कमी के कारण लोग अपनी बेटी को या तो बेच देते थे या काफी बड़े उम्र के लोगों से शादी करवा देते थे. आजादी के आसपास के समय समाज में ये कुरीति अपने चरम पर थी. इस नाटक के माध्यम से बेटी के जन्म लेने को अपने घर में अपशकुन मानने वाले पर कुठाराघात किया था. 

उन्होनें इस नाटक के माध्यम से उस समय के पितृसत्ता समाज के उपर सवाल उठाए थे. जिसमें महिलाओं की कोई जगह नहीं थी. क्या गरीब क्या अमीर. दोनों जगह उस समय के समाज ने लड़कियों को चहरदिवारियों में रहना अच्छा समझते थे. जिसका नतीजा था कि महिलाओं की स्थिति दयनीय थी. अमीर घरों में विवाह लड़कियों के मर्जी के बिना शादी कर दिया जाता था. जबकि गरीबी में जूझ रहे लोग अपने बेटी को कुछ पैसे के खातिर बेच डालते थे. 

उनके इस नाटक का व्यापक असर हुआ. अभी के झारखंड और पहले के कोयलांचल में उनके शो के दौरान लोगों ने रोते हुए कसमें खाई थी की ना तो हम अपनी बेटी को ना तो बेचेंगे ना ही ज्यादा उम्र के लोगों से ब्याह करेंगे. 

विधवा विलाप
साहित्य, नाटक और लौंडा नाच कहने का तरीका एकदम सरल है लेकिन मुद्दे गंभीर हैं. भिखारी ठाकुर ने अपने नाटक के माध्यम से महिलाओं से जुड़ी एक और समस्या को उठाया. देश को सती-प्रथा से तो मुक्ति मिल गई थी लेकिन विधावाओं की स्थिति जस की तस थी. पति के मरने के बाद वो समाज में शापित मानी जाती थीं. साथ ही साथ उन्हें जिंदगी भर किसी पर आश्रित रहना पड़ता था. विधवा विलाप के किरदार का जिक्र उन्होनें बेटी बियोग/ बेटी वेचवा नाटक में भी किया था.
  
इस समस्या को भिखारी ठाकुर ने बड़े दर्द के साथ दिखाया. समाज के ऊपर इसका सकरात्मक असर पड़ा. विधवा विलाप के उपर बनाया गया गीत 'हम कहि के जात बानी, होई अबकी जीव के हानी. नाहीं देखब नइहर नगरिया हो बाबूजी'-आज भी लोग गुनगुनाते हैं. 
भिखारी ठाकुर के कुछ प्रसिद्ध नाटक इस तरह हैं.
भाई विरोध: दो भाईयों के लड़ाई पर विरोध  
कलियुग प्रेम/पिया निसयल: नशोखोरी पर आधारित.
राधेश्याम बहार: कृष्ण लीला पर आधारित.
गंगा स्नान: गांव में गंगा स्नान में बुजुर्गों के उपेझा पर आधारित.
पुत्र-वध: ग्रामीण समाज में दो मर्दों के शादी पर आधारित.
गबरघिचोर: विस्धापन को दिखाती.
बिरहा-बहार: गांव में रहने वाले धोबी-धोबीन की तुलना ईश्वर से किया गया है.
 
अब साल 2021 है. देश में अब 5G दस्तक देने को तैयार है. लेकिन इसका नुकसान ये है कि भोजपूरी समेत कई राज्यों की लोक संस्कृति खत्म होने को है. ऐसे में भिखारी ठाकुर जैसे ना जाने कितनी विभूतियों को हम भूल रहें हैं. लोग अब कला को देखने थियेटर नहीं OTT प्लेटफार्म पर दिशाहीन फिल्मों और Web Series में अपना समय खर्च कर रहे हैं. नतीजा लोक कलाकरों की उपेझा हो रही है. हालांकि, बीते दिनों सरकार की तरफ से पद्म श्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण का ऐलान किया गया था. जिसमें कुछ लोक कलाकारों का भी नाम शामिल है.लेकिन क्या सिर्फ पुरस्कार इन लोक कलाकारों के लिए काफी है?

(इनपुट-कुमुद रंजन)