पटनाः साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय. महात्मा कबीर बनारस से लेकर मगहर के बीच जो देखते रहे, वो सब साखी बन कर उनके मुख से निकलता रहा. कुछ दोहे बन गए, कुछ पद और कुछ बन गईं लंबी कविताएं.
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पटनाः साधू ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय.
महात्मा कबीर बनारस से लेकर मगहर के बीच जो देखते रहे, वो सब साखी बन कर उनके मुख से निकलता रहा. कुछ दोहे बन गए, कुछ पद और कुछ बन गईं लंबी कविताएं. लोगों ने सुना, जितना समझ पाए उतना समझा और बाकी या तो छोड़ दिया या फिर छूट गया. पर बाबा कबीर से कुछ नहीं छूटा. उन्होंने जिंदगी की हर जरूरी बात और वस्तु को वैसे ही थाम रखा था, जैसे कमर तक ठंडे पानी में, तीन दिन की भूखी-प्यासी, हाथ में फल-प्रसाद से भरा सूप लिए कोई व्रती महिला अडिग खड़ी रहती है. तब तक, जब तक की कार्तिक की उस ठंडी सुबह में सूर्य देव आसमान पर नहीं आ जाते हैं.
चलिए सबकुछ छोड़कर केवल सूप पर आते हैं. सनातन परंपरा में अगर किसी वस्तु का उल्लेख किया जा रहा है, तो निश्चित ही उसका जीवन में विशेष अर्थ है. छठ पूजा का माहौल है. खरीदारी जारी है. खबरें आ रही हैं कि बिहार में सुपली और दऊरी महंगी हो गई है. लोगों की भीड़ जुट रही है कि वह छठ व्रत करने के लिए नई सूप खरीद लें. आखिर ये सूप इतना जरूरी क्यों है?
सूप की इस जरूरत का राज छिपा है, इसके बनने के पीछे की कहानी में. दरअसल सूप का निर्माण बांस की खपच्चियों से होता है. संस्कृत में इस बांस को वंश या वंशिका कहते हैं. ये धरती पर पाई जाने वाली इकलौती ऐसी घास है जो सबसे तेजी से बढ़ती है. इसी बांस की बनी बांसुरी को श्रीकृष्ण ने अपने होठों पर जगह दी है. अंदर से खोखली, लेकिन फूंक मार दो जीवन में सुर घोल देने वाली बांसुरी. कहते हैं कि बांस में खुद श्रीहरि विष्णु का निवास है तो इसके धारीदार पत्ते शिव के स्वरूप हैं. इस तरह बांस का पेड़ हरिहर स्वरूप भी है.
जब भी कभी सुख में वृद्धि की कामना की जाती है तो कहा जाता है कि बांस की तरह दिन दोगुनी, रात चौगुनी बढ़ोतरी हो. ऐसा होता भी है. दरअसल बांस सिर्फ 8 हफ्तों में 60 फीट ऊंचे हो जाता है. कई बार तो एक दिन में ये घास एक मीटर तक बढ़ जाती है. इसी बांस की खपच्चियों से बनी सुपली से जब छठ व्रत का अनुष्ठान किया जाता है तो यह मान्यता होती है कि वंशबेल में इसी तरह की वृ़द्धि होती रहे और जैसे बांस तेजी से निर्बाध गति से बढ़ जाता है. घर-परिवार और उसकी तरक्की बढ़ने में भी कोई बाधा न आए.
बांस की कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं है. कहावत है, डूबते को तिनके का सहारा. लोक आस्था मानती है कि यह तिनका कुछ और नहीं बांस ही है. जब धरती पर जल प्रलय आई, स्वयंभू मनु को नाव बनानी हुई तो उसने बांस जोड़कर ही एक बड़ी नौका तैयार की थी. जिस दिन प्रलय ने धरती को डुबोना शुरू किया तो नाव तक पहुंचने के रास्ते पर जल ही जल भर गया. तब मनु एक बांस के सहारे ही नाव तक पहुंचा. श्रीहरि ने हर परिस्थिति में रक्षा का वचन दिया था, इसलिए मनु ने बांस को भी उनका एक स्वरूप ही माना था.
एक बार ऋषि परशुराम के क्रोध से धरती डोलने लगी थी तब देवताओं ने बांस से टेक लगाकर उसे सहारा दिया. खुद शेषनाग, जिनके फन पर ये धरती टिकी हुई है. वह जब लक्ष्मण के रूप में त्रेतायुग में थे. मेघनाद के शक्तिबाण से आहत होने के बाद भूमि पर गिर पड़े. उस समय धरती का संतुलन बिगड़ ही जाता, अगर ऐन मौके पर महादेव शिव ने बांस का सहारा देकर उसे रोक न लिया होता.
खुद कृष्णावतार में श्रीकृष्ण जन्म के तुरंत बाद ही बांस के बने सूप में लिटाए गए और उनके पिता सिर पर रखकर उन्हें यमुना पार ले गए थे. जब यमुना नदी का पानी सूप तक पहुंचने लगा, तब श्रीकृष्ण ने सूप से अपने पांव नीचे लटके दिए. मां यमुना उन्हें प्रणाम कर वापस तल पर लौट गईं और वसुदेव जी को नदी पार करने का मार्ग दे दिया. यानी खुद बांस के सूप ने भगवान की रक्षा की है.
सूप का स्वभाव बड़े ही सज्जन व्यक्ति जैसा है. वह बुराई को अपने पास रखता ही नहीं है. सिर्फ मतलब की चीजें थामे रखता है. वह केवल साबुत और अच्छे अनाज को अपनी गहराई में जगह देता है, हल्के-फुल्के, टूटे-कचरे अनाज और छिलकों को उड़ा देता है. महात्मा कबीर इसी साधारण सी बात को अपने दोहे में कहकर सज्जन व्यक्तियों का चरित्र बता डालते हैं.
सूप को लेकर एक कहावत और भी है. सूप तो सूप, चल्हनियों बोले, जिसमें बहत्तर छेद. ये कहावत आदमी के आवश्यकता से अधिक बोलने पर रोक लगाने के लिए है. थोथा उड़ाते हुए सूप को फटकना पड़ता है. तब उंगलियों की थाप से फट-फट की आवाज आती है. लेकिन चल्हनी से चाल्हते वक्त बेवजह ही झन-झन की आवाज आती है. सूप की फटकार में सुर है, लेकिन चल्हनी की आवाज कर्कष है. हालांकि दोनों का अपना महत्व है, लेकिन लोग ऐसा मानते हैं तो क्या किया जाए. मानने पर कोई तर्क थोड़े ही लागू होता है. कुल मिलाकर सूप ही जीवन है. जीवन का आधार है. यह जीवन की शुरुआत का प्रतीक है और रक्षा का भी. एक उम्दा जिंदगी जीनी है तो स्वभाव सूप जैसा ही होना चाहिए, ऐसा बड़े-बुजुर्ग कहते आए हैं.
बात छठ पूजा की हो रही है. सूप इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. ये सूप पानी में उतराता-समाता है. फिर बाहर बनी वेदी पर रख दिया जाता है. लोगों की दिलचस्पी उसमें रखे प्रसाद पर है. प्रसाद बंट जाते हैं. सूप खाली है, किसी के लिए उसका कोई मतलब नहीं. लेकिन उसी खाली सूप को वही व्रती महिला अपने सिर-माथे से लगा लेती है. वह कुछ बुदबुदाती है. कह रही है कि बस ऐसे ही मेरे घर में वृद्धि-बढ़ोतरी करते रहना. मेरे बच्चों को प्रसन्न रखना. तरक्की बनाए रखना और जैसे खराब दानो और छिलकों को उड़ा कर दूर कर देते हो, बाधाओं को ऐसे ही उड़ा देना. हे सूप महाराज. बस इतना ही करना. सार-सार को गहि रहना, थोथा उड़ा देना. पीछे कुछ महिलाएं गीत गा रही हैं, काच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए....