बिहार सरकार में उद्योग मंत्री रहते हुए भी उन्हें इस बात का अंदाजा था कि ये मंत्रीपद तभी तक है जब तक सीट बची हुई है. सीट हारे तो मंत्रीपद क्या पार्टी में ही कोई रसूख न बचेगा.
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पटना: बिहार के सियासी जगत में इन दिनों श्याम रजक (Shyam Rajak) सुर्खियों में छाए हुए हैं. वजह है, उनका जेडीयू (JDU) से पल्ला झाड़ आरजेडी (RJD) में शामिल होना. आरजेडी जहां से उनके राजनीतिक करियर को उच्चाई मिलनी शुरू हुई थी. लेकिन सवाल ये है कि बिहार सरकार में उद्योग मंत्री की हैसियत रखने वाले श्याम रजक को ऐसी भी क्या दिक्कत आन पड़ी कि उन्होंने पार्टी छोड़ना ही मुनासिब समझा.
ऐसा भी हो सकता था कि कोई समस्या होने पर वो पार्टी आलाकमान से बात कर उसके निपटारे का प्रस्ताव रखते. हालांकि ऐसा नहीं हुआ. फिर आखिर कारण क्या थे, जिसने श्याम रजक को मजबूर किया कि वे मंत्रीपद छोड़ एक आम विधायक बनने को आतुर हो गए.
लेकिन यह तो सियासत है. और सियासत में कुछ भी पक्का नहीं होता. बस कयास होते हैं और उन कयासों के पीछे होती है एक कहानी. श्याम रजक के दल बदलने के पीछे एक नहीं ऐसे कई कयास हैं. आइये एक नजर डालते हैं.
1. सीट बची तो लाखो पाए
एक कहावत बड़ा मशहूर है कि जान बची तो लाखों पाए, और लौट के बुद्धू घर को आये. ऐसा ही कुछ श्याम रजक के साथ भी हुआ है. बिहार सरकार में उद्योग मंत्री रहते हुए भी उन्हें इस बात का अंदाजा था कि ये मंत्रीपद तभी तक है जब तक सीट बची हुई है. सीट हारे तो मंत्रीपद क्या पार्टी में ही कोई रसूख न बचेगा.
अब सवाल यह है कि सीटिंग एमएलए ये कैसे भांप गए कि उनकी सीट नहीं बचेगी? जवाब बहुत मुश्किल नहीं. दरअसल, श्याम रजक फुलवारीशरीफ विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गये हैं. और ऐसा पहली बार नहीं हुआ. वो अब तक 6 बार विधायक रह चुके हैं. हर बार इसी सीट से. लेकिन इस बार समीकरण कुछ उनके पक्ष में नज़र नहीं आये.
इत्मीनान से जातीय आंकड़ों पर जाएंगे तो मालूम होगा कि फुलवारीशरीफ एक आरक्षित सीट है. जहां एससी-एसटी वोटरों की संख्या सबसे अधिक है. इस विधानसभा क्षेत्र में तकरीबन 24 फीसदी मतदाता SC हैं तो वही 1 फीसदी ST. इसके बाद यादव और मुस्लिम वोटरों की बारी आती है. ऐसे में पिछली बार यानी 2015 में महागठबंधन (RJD+JDU +CONGRESS) के उम्मीदवार के रूप में श्याम रजक को 49.77 फीसद वोट शेयर मिले थे. उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी एनडीए के राजेश्वर मांझी को 45,713 वोटों से पटखनी दी थी. इस बार जातीय फैक्टर रजक को अपने खिलाफ लगे.
श्याम रजक की सियासी सोच ये इशारा कर रही थी कि इस विधानसभा में जिन वोटरों की बहुलता है, वे आरजेडी के पाले में जाने वाले ज्यादा दिखते हैं. इसकी भनक लगते ही मंत्रीपद का मोह त्याग जेडीयू के श्याम आरजेडी के हो लिए.
2. नहीं रह सकते एक मयान में 2 तलवार
विधानसभा चुनाव के समीकरणों के अलावा जो बात श्याम रजक को खटकने वाली हो सकती है या यूं कहें कि खटकती होगी वो है, जेडीयू में दलित नेता की उनकी छवि का रिप्लेसमेंट मिल जाना. दरअसल, जेडीयू में श्याम रजक दलितों (जिनके विकास के नाम पर अक्सर सियासत मांझी जाती रही है) के सर्वमान्य नेता की छवि रखते थे. जी हां, थे इसलिए कि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जेडीयू को अशोक चौधरी के रूप में उनका जबरदस्त रिप्लेसमेंट मिल गया है. अशोक चौधरी जो कांग्रेस से जेडीयू में आये और आते ही नीतीश के करीबियों के करीबी हुए. फिर धीरे-धीरे मुख्यमंत्री के भी.
अब ऐसा कई दफा हुआ जब पार्टी ने सलाह-मशवरे के बीच अशोक चौधरी की बातें खूब सुनी हो. इस बीच जेडीयू में 2009 से ही डेरा जमा कर बैठे श्याम रजक को तो आहत होना ही था. दलितों के नेता बनने का जो सौभाग्य रजक को मिला था, अब वही तमगा पार्टी के रसूखदार नेता मसलन आरसीपी सिंह, ललन सिंह, संजय झा और केसी त्यागी, अशोक चौधरी को समझने लगे थे. इससे श्याम रजक को अपनी अहमियत कम होती नजर आई. उन्होंने पार्टी से ही दरकिनार होना शुरू कर दिया. आलाकमान से रूठे-रूठे से रहने लगे. और अंत में मजबूरी इतनी बढ़ी कि मंत्री पद छोड़ दिया और आरजेडी में घरवापसी कर ली.
3. खतरे में पड़ी दलित नेता की छवि
अमूमन ऐसा होता आया है कि दलितों और शोषित पिछड़े तबकों के नाम पर सियासत की धार चमकाने की कोशिश होती आई है. इस बीच कुछ जनप्रतिनिधि अपनी कौम के नेता भी बन बैठते हैं. ऐसा ही कुछ श्याम रजक के विषय में भी कहा जाता है. लेकिन हाल के दिनों में पूर्व मंत्री श्याम रजक को अंदरखाने के सर्वेक्षण से यह ऐहसास हो गया था कि जिस जगह से उनकी राजनीति शुरू हुई, जहां से लगातार 6 बार विधायक रहे हैं, वहां हवाओं का रूख उनके विपरीत दिशा में जान पड़ता है.
इस बीच श्याम रजक की दलित नेता की छवि भी धूमिल होती गई. इसे बचाए रखने की बौखलाहट में श्याम से एक चूक हो गई. श्याम रजक ने पिछले दिनों नौकरी में आरक्षण के मुद्दे को लेकर झटपट एक टीम बनाई और राज्यपाल के पास ज्ञापन लेकर पहुंच गए. कारण:- सर्वेक्षण में श्याम के ऊपर लोगों का विश्वास कम होना बताया गया.
इधर, पार्टी आलाकमान की पलकों पर बैठने वाले श्याम कब नजरों से उतर गए, उन्हें भी ऐहसास न हुआ. इस बीच आरजेडी नेताओं से उनकी नजदीकी बढ़ी. जो पहले से ही कम न थी. धीरे-धीरे श्याम रजक आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह के संपर्क में आए. फिर न जाने कब फुलवारीशरीफ को लेकर एक अलग ही रणनीति तैयार हो गई.
4. मांझी के आने से बदल सकते हैं समीकरण
बिहार के सियासी हालातों पर नजर डालने पर मालूम होगा कि जीतनराम मांझी भी श्याम की ही तरह घरवापसी के मूड में हैं. महागठबंधन में उपेक्षित महसूस कर रहे और तेजस्वी (Tejashwi Yadav) के तेवरों से परेशान मांझी जल्द ही नीतीश कुमार (Nitish KUmar) के नेतृत्व तले आने की तैयारी में हैं. ऐसे में जीतनराम मांझी की पार्टी हम के उम्मीदवार राजेश्वर मांझी जो फुलवारीशरीफ से चुनाव लड़े थे, उनको लेकर भी पार्टी संभावित उम्मीदवार के रूप में सोच सकती है.
ऐसी कोई दिक्कत तब न आए कि मांझी को खुश करने के चक्कर में श्याम रजक की सीट को कुर्बान कर दिया जाए. इससे पहले ही उन्होंने अपनी नई राह तलाशना बेहतर विकल्प समझा.
खैर, यह सियासत है. सियासत में अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता. होता है तो बस फायदा और नुकसान. नहीं तो किसने सोचा था कि 2015 में महागठबंधन में रहते हुए जब कैबिनेट टीम का ऐलान हो रहा था तो आऱजेडी के इशारों पर श्याम रजक की छंटनी कर दी गई थी. अब वही श्याम रजक वो बर्ताव भूलकर आऱजेडी का ही दामन थाम लेंगे.