महान कहानीकार शिवपूजन सहाय ने धोबी की तुलना भगवान से की है. 'मैं धोबी हूं' शीर्षक वाली कहानी में वे लिखते हैं, भगवान पाप धोते हैं तो धोबी मलिनता को धुलता है. दोनों धुलने का काम करते हैं पर भगवान पूजनीय हो जाते हैं और धोबी अछूत. आज राजद से इस्तीफा देने वाले धोबी समाज के बड़े नेताओं में से एक श्याम रजक के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा था. कहने को तो श्याम रजक राजद में राष्ट्रीय महासचिव की भूमिका निभाते थे पर उनकी कोई पूछ पार्टी में नहीं थी. इस्तीफा देते हुए श्याम रजक ने जो पोस्ट शेयर किया है, उसमें भी यही इशारा किया गया है. श्याम रजक ने पोस्ट में लिखा है, 'आप मोहरें चलते रहे और मैं रिश्तेदारी निभाता गया.' इस शायराना अंदाज में एक दर्द छिपा है और वह दर्द है राष्ट्रीय महासचिव होते हुए भी निर्णय प्रक्रिया से अछूत रहने का दर्द. जो धोबी समाज कपड़े धोने में भी धर्म-विधर्म नहीं देखता, राजनीति उसे भी अछूत बनाने पर तुली हुई है. 


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2022 में जब नीतीश कुमार ने राजद के साथ दूसरी बार सरकार बनाई थी, उसके बाद से राजद ने जेडीयू के साथ मिलकर जोर-शोर से जातीय जनगणना के पक्ष में आवाज बुलंद की थी. तमाम बाधादौड़ के बीच जातीय गणना हुई और उसके आंकड़े भी सार्वजनिक किए गए. जो आंकड़े आए, उसमें श्याम रजक की जाति यानी धोबी जाति की संख्या केवल 15 लाख बताई गई. जातीय गणना के अनुसार, बिहार में हिंदू धोबियों की संख्या 10 लाख 96 हजार 158 है तो मुस्लिम धोबियों की संख्या 4 लाख 9 हजार 796 है. दोनों को मिलाने से यह संख्या 15 लाख 5 हजार 954 होती है. 


अब बताइए, जो पार्टी यह नारा दे रही हो कि 'जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी' वो भला केवल 15 लाख की आबादी वाले नेता को क्यों भाव दे. श्याम रजक उस जाति का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जिसकी संख्या यादवों और मुसलमानों की तरह करोड़ में हो. वे तो मात्र 10 से 15 लाख आबादी वाले समुदाय के नेता बनकर रह गए हैं. ये नेताओं को परखने का बाजार में 'नया चश्मा' आया है. कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता काम के आधार पर पूरे बिहार की आवाज बने थे. आज की राजनीति में अगर कर्पूरी ठाकुर होते तो वे श्याम रजक की तरह कुछ लाख लोगों के नेता बनकर रह जाते.


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बिहार के शासन और प्रशासन में धोबी समुदाय की भागीदारी इसलिए न्यूनतम हो चली है. राजनीति में भी श्याम रजक जैसे राजनेता रह गए हैं, जो थोड़ा दमखम रखते हैं. धोबी को अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति में शामिल किया गया है. देश के अलग-अलग हिस्सों में धोबी को पणिक्कर, मरेठिया, चौधरी, सेठी, एकली, वेलुत्दार, राजाकुला, चकली, रजक, दिवाकर, श्रीवास, पारित, अगसार, वरुण, वन्नर मांदीवाला, मुकेरिया, माथुर, सिन्हा, राव और कन्नौजिया उपनामों से जाना जाता है. 


हिंदू धर्म में धाबी या धोबिन का बड़ा महत्व है. सोमवती अमावस्या में सोमा धोबिन की पूजा की जाती है. करवा चौध में करवा धोबिन थी. सत्यनारायण भगवान की कथा में सत्य नाम का धोबी था. धोबी के सिखाए धोबिया पछाड़ सीखकर ही भगवान श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया था. धोबी समाज के महान संत गाडगे बाबा बड़े विचारक हुए. कहा जाता है कि गुरु नानक के पंज प्यारों से एक धोबी समाज से था. 


एक तरह से देखें तो मानव समाज के विकसित होने से पहले ही धोबी समाज स्वच्छता पर काम कर रहा है, जो हम अब भी नहीं कर पा रहे हैं. धोबी समाज ने बड़े ही सेवा भाव से इस काम को किया भी. समाज उन्हें मलिन कहता रहा, मन छोटा करता गया, आंख दिखाता गया, लेकिन धोबी समाज के सेवा भाव में कमी नहीं आ पाई. धोबी समाज को लेकर मन में कितनी भ्रांतियां फैलाई गईं. इनके हाथों से धुले कपड़े तो लोग बड़े ही चाव से पहनते हैं पर ये अछूत हो जाते हैं.


धोबी समाज पर एक कलंक लगा था रामायण में. जब एक धोबी ने अयोध्या में माता सीता के चरित्र पर उंगली उठाई थी और उसके बाद पूरे अयोध्या में यह खबर आग की तरह फैली और जब यह प्रभु श्रीराम के कानों तक पहुंची तो उन्होंने माता सीता का परित्याग करने का फैसला ले लिया. हो सकता है कि रामायण के धोबी के उस अपराध को समाज अब तक ढोता आ रहा है, लेकिन तब तक गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है. 


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दक्षिण के राज्यों में धोबी समाज अधिक समृद्ध है. उनके पास खेत खलिहान, नारियल के बगीचे आदि भी हैं. महाराष्ट्र में इन्हें अछूत नहीं माना जाता और वहां इन्हें ओबीसी में डाला गया है. बिहार में धोबी समाज के लोग अनुसूचित जाति की लिस्ट में शामिल हैं. दक्षिण भारत की तरह श्रीलंका में भी धोबी अछूत नहीं हैं. नेपाल में भी इन्हें अछूत माना गया है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में इनका अपना धर्म इस्लाम है और वहां इन्हें 'अरजाल' कहते हैं.


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