हिन्दी के 'सूरज' राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की विरासत
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हिन्दी के 'सूरज' राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की विरासत

रामधारी सिंह दिनकर शब्दों के सूरज थे. अपने वक्त की सबसे प्रखर आवाज़ थे. हिंदी मंचों के सिकंदर थे, हिंदी कविता जगत के अगाध सिंह थे. 

रामधारी सिंह दिनकर की जीवनी.

राजेश कुमार

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर मतलब वो कवि जिन्होंने लिखा 'याचना नहीं अब रण होगा', जिनकी कलम से निकला 'जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है', जिन्होंने 'समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध' को शब्द दिए और जिसने 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' जैसी क्रांतिकारी कविता लिखी. रामधारी सिंह 'दिनकर' केवल नाम से ही नहीं बल्कि अपनी रचनाओं से भी सूरज का दर्जा रखते थे. उनकी आवाज़ देश की आवाज थी. आज़ादी से पहले आंदोलन का स्वर हो या फिर आज़ादी के बाद निर्माण का गान दिनकर ने जब भी कलम उठायी सिंहासन हिल उठा. 

रामधारी सिंह दिनकर शब्दों के सूरज थे. अपने वक्त की सबसे प्रखर आवाज़ थे. हिंदी मंचों के सिकंदर थे, हिंदी कविता जगत के अगाध सिंह थे. एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में भी रामधारी सिंह दिनकर ने खूब रचनाएं की. दिनकर राष्ट्रकवि तो हैं ही, अपनी प्रखर लेखनी की वजह से उन्हें युग कवि का भी गौरव हासिल है. हिंदी कविता को जो तेवर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने दिया, ओज के सारे कवि उसी के चारों तरफ चक्कर लगाने को मजबूर हैं. दिनकर को राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत, क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणा देने वाली ओजस्वी कविताओं के कारण बेहद लोकप्रियता मिली. पद्द में जहां उन्होंने 'रश्मिरथि' जैसा काव्य ग्रंथ रचा तो गद्द में 'संस्कृति के चार अध्याय' जैसी खूबसूरत रचना की. ख़ुद दिनकर मानते थे कि 'सरस्वती की जवानी कविता है और उसका बुढ़ापा दर्शन है.'

रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के तत्कालीन मुंगेर और अब बेगूसराय ज़िले के सिमरिया गांव में हुआ था. सिमरिया के किसान रवि सिंह और उनकी पत्नी मनरूप देवी रामधारी सिंह के माता पिता थे. अभी बालक रामधारी सिंह की उम्र महज दो साल ही थी, कि उनके परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. उनके पिता रवि सिंह इस दुनिया को छोड़ गए. अभावों को झेलते हुए भी उऩकी विधवा माता पिता ने अपने परिवार का पालन किया. बालक रामधारी का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता. प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के बाद बोरो गांव के राष्ट्रीय मिडिल स्कूल में उन्होंने दाखिला लिया. बचपन अभावों में बीता लेकिन उनका हौसला कभी कमजोर नहीं हुआ. रश्मिरथी की ये पंक्तियां उनकी ज़िंदगी पर सटीक बैठती हैं. 

कंकरियां जिनकी सेज सुधर
छाया देता केवल अंबर
विपदाएं दूध पिलाती हैं
लोरी आंधियां सुनाती हैं

जब वे मोकामा हाई स्कूल में पढ़ते थे, तब इनके पास पहनने के लिए जूते भी नहीं थे. छात्रावास की फीस नहीं भर पाने की वजह से वो स्कूल में ठहर नहीं सकते थे. इसी बीच रामधारी सिंह विवाह के बंधन में बंध गए और एक पुत्र के पिता भी बने. रामधारी सिंह दिनकर के पुत्र केदारनाथ सिंह दिनकर पटना में रहते हैं. उन्होंने ज़ी बिहार-झारखंड से पिता की यादें साझा कि. केदारनाथ सिंह ने कहा कि क़रीब 8 साल की उम्र से ही वे पिता को कविताओं को सुनते थे. जब दिनकर जी के मित्र उनके घर पर आते तो वे बड़े प्रेम से अपनी नई कविता सुनाते. 

1928 में मैट्रिक के बाद रामधारी सिंह ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया. बी. ए. ऑनर्स करने के बाद अगले ही साल वो एक स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर बहाल हुए. लेकिन गुलामी की बेड़ियां सदा युवा रामधारी सिंह के मन में खटकती रही. 1934 में वे बिहार सरकार के अधीन 'सब-रजिस्ट्रार' के पद पर बहाल हुए जहां उन्होंने लगातार 9 साल तक काम किया. उनका ज्यादातर वक्त बिहार के देहातों में काम करते हुए बीता. अभाव और संघर्ष जो उन्होंने जो बचपन से देखा था, वो उनके मन में बस गया और कलम के जरिए निकलने लगा. 

इस बीच 1947 में देश स्वतंत्र हो गया. दिनकर की कलम ने भी तेवर बदले, स्वाधीनता से पहले 'दिनकर' एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हो चुके थे तो आज़ादी मिलने के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये. उन्होंने लिखा

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.

इसके बाद वे बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के 'प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष' बने. 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया. राष्ट्रकवि दिनकर कुल 12 वर्षों तक संसद के सदस्य रहे. उन्हें सन् 1964 से लेकर 1965 ई. तक 'भागलपुर विश्वविद्यालय' का कुलपति नियुक्त किया गया. और अगले ही साल भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 तक हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया. 

राष्ट्रकवि के काव्य में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार नज़र आती थी तो दूसरी तरफ कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी होती थी. महाभारत पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व की 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74वां स्थान हासिल है. भूषण के बाद उन्हें वीर रस का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है. पद्य के बाद गद्य में भी दिनकर को कामयाबी मिली. संस्कृति के चार अध्याय में दिनकरजी लिखते हैं ...''सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है, क्योंकि सारी विविधताओं के बाद भी, हमारी सोच एक जैसी है.'' दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह के मुताबिक दिनकर ने संस्कृति के चार अध्याय के जरिए भारत की परंपरा और संस्कृति का विस्तार से वर्णन किया है. अपनी किताब में दिनकर बताते हैं कि भारत की संस्कृति कोई ठहरी हुई चीज नहीं है, इसमें आर्यों का आगमन, बौद्ध धर्म का उदय, इस्लाम का आक्रमण और अंग्रेजों के शासन के जरिए लगातार परिवर्तन होता आया है. दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक प्रेम सिंह ने कहा कि दिनकर के दौर में कविता को लेकर जो एक मध्यवर्गीय विचार काम कर रहा था दिनकर जी ने उसका अतिक्रमण किया. पटना के साहित्यकार मुकेश प्रत्युष के मुताबिक दिनकर की कविता में लोग अपने जीवन का संदर्भ ढूंढते हैं. 

राष्ट्रकवि दिनकर के समकालीन और उनके बाद के साहित्यकराओं में ऐसा कोई नहीं जो राष्ट्रकवि का मुरीद ना हो. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि 'दिनकर गैर-हिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं.' मधुशाला के अमर रचनाकार हरिवंश राय बच्चन ने कहा था कि, 'दिनकरजी को एक नहीं, बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये.' रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा कि, 'दिनकरजी ने देश में क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्वर दिया.' वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने लिखा कि ' दिनकरजी अपने युग के सचमुच सूर्य थे.'

कुरुक्षेत्र के लिये काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार से सम्मान मिला. संस्कृति के चार अध्याय के लिये उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें 1959 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. भागलपुर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलाधिपति और बाद में देश के राष्ट्रपति बने जाकिर हुसैन ने उऩ्हें डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया. गुरू महाविद्यालय ने उन्हें विद्या वाचस्पति के लिये चुना. 1968 में राजस्थान विद्यापीठ ने उन्हें साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया. 1972 में काव्य रचना उर्वशी के लिये उन्हें ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया और 1999 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया. 

24 अप्रैल 1973 को तिरूपति में श्रोताओं को रश्मिरथि के तीसरे सर्ग से श्रीकृष्ण के विराट रूप का दर्शन कराते हुए ये स्वर भी शब्दों के विशाल नभ में तिरोहित हो गया. बाल कवि बैरागी ने राष्ट्रकवि को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा है ....

क्या कहा! क्या कहा!
कि दिनकर डूब गया
दक्षिण के दूर दिशांचल में!
क्या कहा कि गंगा समा गयी
रामेश्वर के तीरथ जल में!
क्या कहा! क्या कहा!
कि नगपति नमित हुआ
तिरुपति के धनी पहाड़ों पर!
क्या कहा! क्या कहा!
कि उत्तर ठिठक गया
दक्षिण के ढोल नगाड़ों पर!