डियर जिंदगी : अपनी सोच को बंधनों से मुक्त कीजिए...
क्या हैं, वही जो हमारा विचार है. वैसा, जैसा हम सोचते हैं. धीरे-धीरे हम अपने विचारों जैसे होने लगते हैं. स्कूल हमारी सोच का सबसे पहला केंद्र होता है. इसीलिए हम जीवन भर स्कूल की छाया से मुक्त नहीं हो पाते. इस छाया की सबसे अधिक सज़ा बच्चों को एक जैसा सोचने, अपनी सीमाएं जानने और अपनी हद में रहने के रूप में मिलती है. जब हम छोटे थे, हमें लगता था आने वाले समय में स्कूल बेहतर होंगे, शायद वह बच्चों को सलीके से समझने की कोशिश करेंगे लेकिन सब उलट गया. स्कूल अपने को अच्छा बिज़नेस हाउस बनाने में जुट गए... तो बच्चों के दिशा नहीं भटकने की गारंटी कौन लेगा.
हम अंतत: क्या हैं, वही जो हमारा विचार है. वैसा, जैसा हम सोचते हैं. धीरे-धीरे हम अपने विचारों जैसे होने लगते हैं. स्कूल हमारी सोच का सबसे पहला केंद्र होता है. इसीलिए हम जीवन भर स्कूल की छाया से मुक्त नहीं हो पाते. इस छाया की सबसे अधिक सज़ा बच्चों को एक जैसा सोचने, अपनी सीमाएं जानने और अपनी हद में रहने के रूप में मिलती है. जब हम छोटे थे, हमें लगता था आने वाले समय में स्कूल बेहतर होंगे, शायद वह बच्चों को सलीके से समझने की कोशिश करेंगे लेकिन सब उलट गया. स्कूल अपने को अच्छा बिज़नेस हाउस बनाने में जुट गए... तो बच्चों के दिशा नहीं भटकने की गारंटी कौन लेगा.
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हमारे स्कूल इस समय जो कुछ हमें दे रहे हैं, उसमें सबसे ख़राब है... बच्चे की सोच को पूरी तरह बांध देना. उसे ढांचे में ढाल देना. उसके माथे पर उसके भविष्य की पट्टी लगा देना. शिक्षक, माता-पिता बच्चों की कुछ शुरुआती आदतों के आधार पर उसके भविष्य वक्ता और ज्योतिषि बन जाते हैं. बच्चे की क्षमता को उसके ग्रेड की ग़ुलाम बना दी गई है.
यह कुछ ऐसा ही है, जैसे बचपन में हम सुनते थे कि बाज का एक बच्चा, रास्ता भटककर मुर्गियों के घर पहुंच गया. मुर्गी ने बड़े स्नेह से उसे पाल पोस कर बड़ा किया. अच्छे संस्कार दिए, मुर्गियों वाले. बड़ा होकर वह भी मुर्गी के दूसरे बच्चों जितना ही उड़ पाता था. एक दिन एक बाज परिवार उधर से गुज़रा. तो उसने उस बाज 'बच्चे' से पूछा कि तुम यहां क्या कर रहे हो. आओ हमारे साथ आसमां की सैर करो. उस बाज बच्चे ने कहा, नहीं मैं तो मुर्गी का बच्चा हूं, मैं उड़ नहीं सकता.
हम अपने बच्चों की प्रतिभा, नैसर्गिक विकास में अपनी टांग अड़ाने में इस कदर जुट गए हैं कि बच्चों को जल्दी से जल्दी बड़ा कर देना चाहते हैं. टीवी पर उग आए रियलिटी शो इन बच्चों की जान के सबसे बड़े दुश्मन हैं. उसके बाद फ़ेसबुक तो दूसरे नंबर पर आता है. टीवी और फ़ेसबुक हमारे 'बाज 'बहादुर बच्चों को मुर्गी के बच्चे बनाने पर आमादा हैं. मज़ेदार बात यह है कि यह सबकुछ हमारे सामने, हमें बताकर किया जा रहा है, लेकिन हम बच्चों की प्रतिभा को 'कैश' कराने के फेर में उलझे हुए हैं.
बच्चों के भीतर दिन रात, थोक के भाव भरी जा रही सोच ज़िंदगी भर उनका पीछा नहीं छोड़ती. मुझसे नहीं होगा... ऐसा तो कभी मैंने सोचा ही नहीं. यह दो वाक्य बच्चों, किशोर, युवाओं के सबसे बड़े दुश्मन हैं. उस उम्र में जब सबकुछ संभव है जो हौसला, हिम्मत का लोहा भरने का वक्त होता है, हम उनके अंदर डर और चिंता भर रहे होते हैं. हम बच्चों को निर्भय बनाने की जगह, करियर सेंट्रिक बनाने पर तुले हुए हैं. पांच से दस बरस तक आते-आते हम बच्चों को टीवी, रटंतू आधार पर मिल रहे नंबरों की सोच में बांधने में जुट जाते हैं. इन सबसे बच्चे अधिकतम क्लर्क बन सकते हैं, उससे अधिक कुछ नहीं.
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इसलिए जितना संभव हो बच्चों को ख़ास सोच, दायरे में बांधने से बचिए. उसे केवल और केवल सवाल पूछना सिखाइए, बाक़ी सब वह ख़ुद सीख लेगा. उसके लिए किताब पढ़ने से अधिक ज़रूरी, ज़िंदगी, रिश्तों और प्रेम की भाषा सीखना है. दुनिया में ऐसा कुछ नहीं जो इनसे अधिक मुश्किल है.
(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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