नई दिल्ली: हमारे देश में कुछ लोग तालिबानियों की तुलना अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ने वाले क्रांतिकारियों से कर रहे हैं, लेकिन आज ये लोग चाहकर भी कुछ दिन काबुल (Kabul) में नहीं गुजार पाएंगे, क्योंकि वहां तालिबान इनका स्वागत गोलियों से करेगा. आज हम आपको भारत के एक ऐसे क्रांतिकारी की कहानी बता रहे हैं, जो भेष बदलकर कलकता से काबुल गए और फिर वहां से सोवियत संघ के रास्ते जर्मनी पहुंचे. इसके बाद वहां से भारत की आजादी की लड़ाई को एक नई दिशा और नई ऊर्जा दी. इस क्रांतिकारी नेता का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhas Chandra Bose) था.


अंग्रेजों को उन्हीं के खेल में मात देना जानते थे नेताजी


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साल 1945 में नेता जी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhas Chandra Bose) का ताइवान में एक विमान दुर्घटना में हो गया था. भारत सरकार के आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु ताइवान में विमान दुर्घटना में हुई थी, लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, इसको लेकर आज भी कई सवाल और शंकाएं हैं. नेता जी ना सिर्फ एक क्रांतिकारी थे, बल्कि वो अंग्रेजों को उन्हीं के खेल में मात देना भी जानते थे. इसी से डरकर अंग्रेजों ने जुलाई 1940 में नेता जी को कलकत्ता की जेल में बंद कर दिया था.


नेताजी के कोलकाता से काबुल जाने की कहानी


अंग्रेजों से आजादी के लिए नेताजी जर्मनी की मदद चाहते थे, लेकिन कलकत्ता की जेल में रहकर ऐसा करना संभव नहीं था. फिर नेताजी ने एक तरीका ढूंढा. उन्होंने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया. उनकी तबीयत बिगड़ने लगी और मजबूरी में ब्रिटिश सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा और 5 दिसंबर 1940 को अंग्रेजों ने नेताजी को उन्हीं के घर में नजरबंद कर दिया था. उस समय अंग्रेज लगातार नेता जी के घर की निगरानी करते थे, ताकि नेता जी वहां से भाग ना जाएं.


इसी बीच घर में नजरबंद नेताजी ने दाढ़ी बढ़ाना शुरू कर दिया और अंग्रेजों की नजर में आए बिना उन्होंने अपनी पार्टी Forward Block के नेता मियां अकबर शाह को एक टेलीग्राम भेजा. मियां अकबर शाह उस समय पेशावर में थे, जो आज की तारीख में पाकिस्तान में है. नेताजी के बुलावे पर मियां अकबर शाह, पेशावर से कलकत्ता पहुंच गए और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर उन्होंने कलकत्ता से काबुल भागने का प्लान बनाया.


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कोलकाता से काबुल जाने की योजना को अंजाम देने के लिए नेताजी ने अपने भतीजे शिशिर से बात की और एक कार से धनबाद तक पहुंचने का प्लान बनाया गया. इसके बाद अंग्रेजों की नजरों से बचकर किसी तरह धनबाद के पास गोमोह रेलवे स्टेश पहुंच गए, जहां से उन्होंने पेशावर जाने के लिए एक ट्रेन पकड़ी.


पेशावर पहुंचकर उन्होंने एक मुस्लिम बीमा एजेंट का भेष धारण किया और अपना नाम जियाउद्दीन रख लिया. नेता जी पेशावर से काबुल और फिर काबुल के रास्ते मॉस्को जाना चाहते थे. अफगानिस्तान के नागरिकों में घुल मिल जाने के लिए नेता जी ने पश्तूनों जैसे कपड़े पहनने शुरू कर दिए, लेकिन समस्या ये थी कि उन्हें पश्तो भाषा नहीं आती थी. वो पकड़े ना जाएं, इसलिए उन्होंने यही जताया कि वो कुछ बोल और सुन नहीं सकते, यानी वो गूंगे और बहरे हैं. इसके बाद वो काबुल में इटली के दूतावास पहुंचे और इटली के पासपोर्ट पर उन्होंने मॉस्को तक की यात्रा की. फिर वो मॉस्को से इटली होते हुए जर्मनी पहुंचे और उन्होंने हिटलर से अंग्रजों के खिलाफ लड़ाई में मदद मांगी.


काबुल में आज भी मौजूद है वो घर, जहां नेताजी रुके थे


कलकत्ता से काबुल तक पहुंचने के नेता जी के इस प्लान को ‘The Great Escape’ कहा जाता है. काबुल के शोर बाजार इलाके में आज भी वो घर मौजूद है, जहां नेता जी कुछ दिनों के लिए रुके थे. 1986 में Forward Block के एक सांसद ने राजीव गांधी की सरकार से ये मांग की थी कि भारत सरकार इस घर को खरीद ले और इसकी मरम्मत कराकर इसे एक म्यूजियम में बदल दे, लेकिन तब राजीव गांधी की सरकार की तरफ से कहा गया कि नेता जी इस घर में सिर्फ कुछ दिनों के लिए रुके थे और अगर ऐसे भारत सरकार इस तरह हर घर को खरीदने लगी तो पूरी दुनिया में कई घर खरीदने पड़ेंगे.


सरकार ने नेताजी के योगदान को संजोकर नहीं रखा


साल 1910 से 1912 के दौरान भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू लंदन के जिस घर में रुके थे, उसे एक हेरिटेज का दर्जा प्राप्त है, लेकिन नेताजी के काबुल वाले घर को कोई मान्यता नहीं है. ये हैरानी की बात है कि आजादी के बाद आई सरकारों ने कभी भी आजादी की लड़ाई में नेता जी के योगदान को सम्मान नहीं दिया और उनकी यादों को संजोकर भी नहीं रखा. साल 2013 में नेताजी की पुत्री अनीता बोस ने Zee News के एडिटर इन चीफ सुधीर चौधरी (Sudhir Chaudhary) को दिए इंटरव्यू में अपने पिता के बारे में कई ऐसी बातें बताई थीं, जिसकी जानकारी शायद आपको भी ना हो.


देश की आजादी के लिए किया था सेना का गठन


साल 1939 में गांधी जी (Mahatma Gandhi) की इच्छा का सम्मान करते हुए नेता जी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhas Chandra Bose) ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. सुभाष चंद्र बोस अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने, अपने देश की आजादी के लिए देश से बाहर जाकर एक सेना का गठन किया, जिसे आजाद हिंद फौज कहा जाता है. उन्होंने भारत के लोगों और खासकर युवाओं को देश की आजादी के लिए लड़ना सिखाया था और 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का नारा दिया था. वो जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन और इटली समेत दुनिया के 9 देशों को भारत की आजादी के पक्ष में ले आए थे.


1934 में नेताजी ने अंडमान-निकोबार में तिरंगा फहराया


नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhas Chandra Bose) ने साल 1943 में ही अंडमान निकोबार में भारत का तिरंगा फहरा दिया था. ये पहला मौका था जब देश में अंग्रेजों के शासन के बावजूद भारत की जमीन पर तिरंगा फहराया गया था. 6 जुलाई 1944 को सिंगापुर में आजाद हिंद रेडियो से नेताजी ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहा था. ये पहली बार था, जब किसी ने महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दी. 21 अक्टूबर 1943 को उन्होंने सिंगापुर में भारत की निर्वासित सरकार की स्थापना की थी. उन्होंने प्रधानमंत्री और विदेशी मामलों का कार्यभार अपने पास रखा था. इस नाते उन्हें आप देश का पहला प्रदानमंत्री भी कह सकते हैं.


जीते जी देश को आजाद कराना चाहते थे नेता जी


सुभाष चंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) अपने जीते जी देश को आजाद कराना चाहते थे, लेकिन नेता जी का आजाद भारत वाला सपना उनकी असमय मृत्यु की वजह से अधूरा रह गया. हालांकि नेता जी ताइवान में हुई विमान दुर्घटना में शहीद हुए थे या नहीं. इस पर अभी कई तरह की शंकाएं हैं.


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