नई दिल्ली: कर्नाटक हाई कोर्ट ने हिजाब मामले में मंगलवार को अपना फैसला सुना दिया. कर्नाटक हाई कोर्ट ने अपने फैसले में तीन बड़ी बातें कही हैं.


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पहली बात- हिजाब इस्लाम धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं है, इसलिए मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहनने की कानूनी मान्यता हासिल नहीं कर सकती. अदालत ने ये भी बताया कि जिन 6 मुस्लिम छात्राओं ने इस मामले में याचिका दायर की थी, वो इस बात को किसी भी रूप में साबित नहीं कर पाईं कि उन्हें शुरुआत से ही उनके स्कूलों में हिजाब पहनने की इजाज़त मिली हुई थी. 


अदालत ने हिजाब पर याचिका खारिज की


अदालत ने इन मुस्लिम छात्राओं की उस दलील को भी खारिज कर दिया, जिसमें इन्होंने ये कहा था कि अगर वो बिना हिजाब के स्कूलों में पढ़ती हैं तो ये इस्लाम धर्म का अपमान होगा और इससे इस्लाम धर्म का महत्व कम हो जाएगा. बल्कि कोर्ट ने ये कहा है कि अगर ये मुस्लिम छात्राएं हिजाब नहीं पहनेंगी तो इससे इस्लाम धर्म खतरे में नहीं आएगा.


दूसरी बात- अदालत ने ये कही कि स्कूलों और कॉलेजों में यूनिफार्म की व्यवस्था कानूनी तौर पर जायज है और इससे संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है. यानी जो मुस्लिम छात्राएं स्कूलों में हिजाब पहनने को अपना संवैधानिक अधिकार बता रही थी, उसे कोर्ट ने खारिज कर दिया है. इस फैसले में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि संविधान में नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिए हैं, वो असीमित नहीं हैं और सरकार चाहे तो उन पर उचित प्रतिबंध लगा सकती हैं.


हाई कोर्ट ने सही माना सरकार का आदेश


और तीसरी बात- अदालत ने कर्नाटक सरकार के उस सर्कुलर को सही माना है, जिसे 5 फरवरी को लागू किया गया था. तब इस सर्कुलर के तहत सरकार ने उन सभी शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने पर रोक लगा दी थी, जहां छात्रों के लिए यूनिफॉर्म तय की गई है.


कोर्ट का ये फैसला देश को बताता है कि पहले हिजाब और फिर किताब की मांग असंवैधानिक है. इसे सही नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमारे देश में स्कूलों में हिजाब का समर्थन करने वाले नेता, कार्यकर्ता और धर्मगुरू, इन सभी ने कोर्ट के इस फैसले को ना सिर्फ मानने से इनकार कर दिया है बल्कि अदालत पर अभद्र टिप्पणियां की हैं. इन कट्टरपंथी इस्लामिक ताकतों का सच ये है कि जब अदालतें इनके पक्ष में फैसला देती हैं तो ये उनकी जय-जयकार करने लगते हैं. लेकिन जब अदालत ने इनके खिलाफ फैसला दिया है तो ये उसके अपमान पर उतर आए.



मुस्लिम लड़कियों और मजहबी उस्तादों ने नहीं माना फैसला


सोचिए, जो मुस्लिम छात्राएं और विपक्षी नेता कुछ दिन पहले तक ये कह रहे थे कि उन्हें अदालत का हर फैसला मंजूर होगा, अब वो ये कह रहे हैं कि इस देश की अदालतें इस बात का फैसला नहीं करेंगी कि इस्लाम में क्या अनिवार्य है और क्या नहीं. ये वही लोग हैं, जो देश के संविधान और लोकतंत्र को ख़तरे में बताते हैं. लेकिन जब इसी संविधान के तहत देश की अदालत कोई फैसला देती है और वो फैसला इनके पक्ष में नहीं आता तो ये उसे मानने से इनकार कर देते हैं. हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था को भेदभावपूर्ण बताते हैं.


इस फैसले के बाद कर्नाटक की मुस्लिम छात्राओं ने भी ऐसा ही किया. इन छात्राओं ने इस फैसले के खिलाफ मंगलवार को ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी है और ये कहा है कि आज अगर डॉक्टर भीम राम अम्बेडकर जीवित होते तो उनका दिल इस फैसले पर रो रहा होता.


पर्दा प्रथा के खिलाफ थे डॉ अंबेडकर


ये मुस्लिम छात्राएं कह रही हैं कि आज डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर जीवित होते तो उनके साथ ये नाइंसाफी नहीं होती. लेकिन हम इन छात्राओं को बताना चाहते हैं कि अम्बेडकर ने एक बार कहा था कि इतिहास में ऐसी किसी घटना का ज़िक्र नहीं मिलता, जो गौरव और शोक के क्षण में हिन्दू और मुसलमानों को जोड़ती हो. इसलिए हिन्दू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते. मुसलमानों के लिए पाकिस्तान जाना ही सही फैसला होगा.


अम्बेडकर हिजाब और बुर्के के भी ख़िलाफ़ थे. अगर इन मुस्लिम छात्राओं ने हिजाब की जगह किताब को महत्व दिया होता और अम्बेडकर के विचारों के बारे में पढ़ा होता तो उन्हें पता चलता कि अम्बेडकर हमेशा से इस पर्दा प्रथा के खिलाफ थे.


कट्टरवादियों के खिलाफ है कोर्ट का फैसला


ये फैसला Popular Front of India जैसे इस्लामिक संगठनों के लिए एक बड़ा झटका है, जो देश की पाठशालाओं में कट्टरवाद का जहर घोल कर उन्हें धर्म की प्रयोगशाला बनाना चाहते थे. लेकिन वो अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए. इसलिए अब वो मुस्लिम छात्राओं का ब्रेनवॉश कर रहे हैं. हालांकि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने राज्य के सभी छात्रों से कोर्ट के फैसले का सम्मान करने की अपील की है.


जो बड़ी बात आपको समझनी है, वो ये कि इस फैसले के बाद हमारे देश के एक खास वर्ग ने भारत की न्यायिक व्यवस्था पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं. ये लोग कह रहे हैं कि देश की अदालतें ये तय नहीं करेंगी कि इस्लाम धर्म में क्या अनिवार्य है और क्या नहीं? यानी ये लोग सीधे तौर पर कोर्ट के फैसले को ही मानने से इनकार कर रहे हैं. 


इसलिए आज बड़ा सवाल ये है कि जब खुलेआम हमारे देश की अदालतों की अवमानना की जा रही है, जजों पर आरोप लगाए जा रहे हैं और देश के कानूनों को मानने से साफ इनकार किया जा रहा है तो क्या तब भारत का संविधान खतरे में नहीं है?. क्या धर्मनिरपेक्षता खतरे में नहीं है और क्या अब लोकतंत्र खतरे में नहीं है.


मनमाने तरीके से कोर्ट के फैसले का करते हैं इस्तेमाल


जब इन्हीं अदालतों में कोई फैसला इनके पक्ष में आता है तो ये उसका सम्मान करने की बात कहते हैं और ये लेक्चर देते हैं कि कोर्ट से ऊपर कोई नहीं होता. किसी लोअर कोर्ट में इनकी विचाराधारा वाले किसी आरोपी को जमानत भी मिल जाती है तो ये उसे अपनी जीत बताते हैं. 


उस फैसले को ऐसा पेश किया जाता है जैसे आरोपी को जमानत नहीं मिली हो बल्कि उसे निर्दोष मान लिया गया हो. लेकिन जब फैसला इनके खिलाफ आता है तो ये उसे एजेंडा बताते हैं और अदालतों की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करते हैं.


उदाहरण के लिए, वर्ष 2018 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने तलाक के एक मामले में बहुत अहम फैसला दिया था. इस मामले में एक महिला, अपने मुस्लिम पति से तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने की मांग कर रही थी. लेकिन कोर्ट ने तब इस मांग को ये कहते हुए खारिज कर दिया था कि उसकी शादी मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत हुई है इसलिए वो हिन्दू मैरिज ऐक्ट के तहत गुज़ारा भत्ता पाने की हकदार नहीं है. तब ये मामला काफ़ी चर्चित रहा था और इस्लामिक संगठनों और विपक्षी नेताओं ने इस फैसले का दिल खोल कर स्वागत किया था.


मुस्लिम नेताओं ने भी फैसले पर उठाए सवाल


Point ये है कि, तब तो इन लोगों के लिए हमारे देश की अदालतें निष्पक्ष और ईमानदार थीं. लेकिन आज यही अदालतें इनके लिए भ्रष्ट हो गई हैं और इन्हें अब अपनी न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं है.


जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने ट्वीट करके इस फैसले को निराशाजनक बताया और कहा कि ये मामला सिर्फ़ धर्म का नहीं बल्कि चुनने की आजादी का भी मामला है.


इसके अलावा उमर अब्दुल्लाह ने ट्वीट करके लिखा, 'ये मामला एक कपड़े का नहीं है, ये मुस्लिम महिलाओं के अधिकार का सवाल है कि वो अपनी पसंद से अपना पहनावा तय कर सकती है या नहीं. अदालत ने इस बुनियादी अधिकार की रक्षा नहीं की, ये एक बहुत बड़ी विडंबना है. ऐसा उमर अब्दुल्लाह अपने ट्वीट में कह रहे हैं.


असदुद्दीन ओवैसी ने भी इस फैसले को संविधान के असली मूल्यों के खिलाफ़ बताया है. ये वो तमाम लोग हैं, जो संविधान को ख़तरे में बताते हैं. लेकिन आज यही लोग इस देश की न्यायिक व्यवस्था पर गम्भीर आरोप लगा रहे हैं.


मुस्लिम छात्रों को संविधान पर नहीं कुरान पर यकीन


हमने आपसे पहले भी कहा था कि ये मांग, केवल हिजाब तक सीमित नहीं रहेगी. अब वैसा ही हो रहा है. पहले इन मुस्लिम छात्राओं ने स्कूलों के आदेश को मानने से इनकार किया. फिर इन्होंने सरकार के आदेश को नहीं माना. अब जब कोर्ट ने भी ये कह दिया है कि स्कूलों में हिजाब पहनना इन छात्राओं का संवैधानिक अधिकार नहीं है, तब ये कोर्ट का आदेश भी नहीं मान रही है. यानी इन मुस्लिम छात्राओं को इस देश की व्यवस्था में विश्वास ही नहीं है. ये देश को संविधान से नहीं, अपने धर्म के हिसाब से चलाना चाहती हैं.


ये बात हम आपको पहले भी कई बार बता चुके हैं कि इस्लाम धर्म में हिजाब को अनिवार्य नहीं माना गया है. कुरान में केवल Modesty का ज़िक्र किया गया है. यानी इस बात पर जोर दिया गया है कि महिला और पुरुष दोनों इस तरह के कपड़े पहनें, जो उनकी गरिमा और लाज को बनाकर रखें. लेकिन इस्लाम धर्म के ठेकेदारों और मुस्लिम नेताओं ने समय समय पर लोगों को इस पर गुमराह करने की कोशिश की है.


अरबों में प्रचलित था हिजाब का पहनावा


प्राचीन काल में अरब, ईरान और रोम में महिलाओं द्वारा अपने सिर और चेहरे को ढक कर रखने की परम्परा थी. इस परम्परा का पालन भी केवल राज परिवार और उच्च वर्ग की महिलाओं तक सीमित था. ये बात उस समय की है, जब इस्लाम धर्म अस्तित्व में भी नहीं आया था. 7वीं शताब्दी में जब अरब में इस्लाम धर्म की उत्पत्ति हुई तो ये पहनावा काफ़ी लोकप्रिय हो गया. इसके अलावा इस्लाम धर्म में जो पांच स्तम्भ बताए गए हैं, उनमें भी हिजाब या किसी दूसरे पर्दे का ज़िक्र नहीं है.


किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था में जब धार्मिक कट्टरवाद का ज़हर घोला जाता है, तब वहां किस तरह की व्यवस्था स्थापित होती है, बांग्लादेश उसका सबसे बड़ा उदाहरण है. बांग्लादेश के एक मेडिकल कॉलेज ने वहां पढ़ने वाली हिन्दू छात्राओं के लिए भी हिजाब को अनिवार्य कर दिया है. इस कॉलेज ने अपने सर्कुलर में कहा है कि जो हिन्दू छात्रा हिजाब पहन कर कॉलेज नहीं आएगा, उसे पढ़ने और परीक्षा देने की इजाज़त नहीं मिलेगी. 


बांग्लादेश में भी चल रही कट्टरवाद की लहर


बड़ी बात ये है कि इस फैसले का विरोध वहां की हिन्दू छात्राएं ही नहीं कर रही, बल्कि कुछ मुस्लिम छात्राओं का भी उन्हें साथ मिल रहा है और वो भी बिना हिजाब के कॉलेज आना चाहती हैं. लेकिन हमारे देश की मुस्लिम छात्राएं पहले हिजाब और फिर किताब की ज़िद पर अड़ी हुई हैं. सोचिए, भारत के मुसलमान इतने कट्टर क्यों होते जा रहे हैं?


वैसे इस धार्मिक कट्टरवाद के आपको कई उदाहरण मिल जाएंगे. अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद पश्चिमी देशों की महिला पत्रकार हिजाब पहन कर रिपोर्टिंग कर रही हैं और उनका कहना है कि वो ऐसा करके स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यताओं का सम्मान कर रही हैं. 


अफगानिस्तान में आज भी बहुत सी मुस्लिम छात्राओं ने इसलिए कॉलेज जाना छोड़ दिया है क्योंकि वो हिजाब नहीं पहनना चाहतीं. लेकिन हमारे देश में इसके बिल्कुल विपरीत हो रहा है. इसलिए आज आपको ये भी सोचना है कि क्या हमारा देश तालिबान की तरह खुद को बनाना चाहते हैं?


कलाम को आदर्श क्यों नहीं मानते मुसलमान


एक बड़ा सवाल ये भी है कि, भारत के मुसलमान डॉक्टर ए.पी.जे अब्दुल कलाम को अपना आदर्श क्यों नहीं मानते. कलाम को भारत का मिसाइल मैन कहा जाता था और वो एक मुसलमान थे. उन्होंने भारत की परमाणु शक्ति में ज़बरदस्त विस्तार किया. सोचिए, अगर वो भी अपने स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई के दौरान अपने धर्म को बीच में ले आते तो क्या हमारा देश आज इस मुकाम पर पहुंच पाता?.. लेकिन दुर्भाग्य देखिए हमारे देश के बहुत सारे मुसलमान कलाम को अपना रोल मॉडल नहीं मानते.


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समान नागरिक संहिता लागू करने का वक्त आ गया


ये विडम्बना ही है कि भारत का संवैधानिक Status तो Secular यानी धर्मनिरपेक्ष है, जो सभी धर्मों में विश्वास और समानता की बात करता है. लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष देश में क़ानूनों को लेकर Uniformity यानी समानता नहीं है. जबकि इस्लामिक देशों में इसे लेकर क़ानून है. यानी जो देश धर्मनिरपेक्ष है, वही समान क़ानून के रास्ते पर आज तक नहीं चल पाया है. इसलिए इस धार्मिक कट्टरवाद की एक ही वैक्सीन है और वो है Uniform Civil Code. हमें लगता है कि जिस तरह से स्कूलों में Uniform को लागू किया गया है, ठीक उसी तरह देश में Uniform Civil Code को लागू करना चाहिए. यानी एक देश एक कानून की व्यवस्था होनी चाहिए.