जुल्म और अत्याचार जैसे शब्द भी छोटे लगने लगेंगे
जब आप कश्मीर से विस्थापित होने वाले कश्मीरी पंडितों की कहानी सुनेंगे तो आपको जुल्म और अत्याचार जैसे शब्द भी छोटे लगने लगेंगे. और आपको इस बात का भी अफसोस होगा कि इन लोगों की कहानी पर वर्षों तक इस देश के बुद्धिजदीवियों, लिबरल्स और विपक्ष के नेताओं ने एक आंसू तक नहीं बहाया. बल्कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर देश में ये धारणा बनाई गई कि जो बहुसंख्यक हैं, वो पीड़ित नहीं हो सकते और जो अल्पसंख्यक हैं, वो कभी कुछ गलत नहीं कर सकते. कश्मीरी पंडित.. कश्मीर के इलाके के एक मात्र मूल हिन्दू निवासी हैं. वर्ष 1947 में जब देश को आजादी मिली थी.. उस समय कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की कुल आबादी लगभग 15 प्रतिशत थी. लेकिन दंगों और अत्याचारों की वजह से वर्ष 1981 तक ये आबादी घट कर 5 प्रतिशत रह गई. और 2015 में सरकार ने बताया था कि कश्मीर में अब 808 परिवारों के 3 हजार 445 कश्मीरी पंडित ही बचे हैं.
कश्मीरी पंडितों को काफिर घोषित कर दिया
दुनिया यही जानती है कि कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार की शुरुआत वर्ष 1990 में हुई थी. लेकिन सच ये है कि अत्याचार का ये दौर वर्ष 1985 के बाद ही शुरू हुआ था. 1990 में कश्मीरी पंडितो को कट्टरपंथी संगठनों ने काफिर घोषित कर दिया गया था. ये वही दौर था, जब कश्मीरी पंडितों के घर की पहचान की जा रही थी, ताकि दंगों के समय उन्हें आसानी से निशाना बनाया जा सके. उस समय पुलिस, प्रशासन, जज, डॉक्टर, प्रोफेसर और Civil Servant की नौकरियों में कश्मीर पंडितों की संख्या ज्यादा होती थी. इसलिए सबसे पहले उन्हें निशाना बनाया गया. इसकी शुरूआत वर्ष 1986 से हुई.
हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर..
वर्ष 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने जीजा फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली थी और वो जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गए थे. उस समय उन्होंने खुद को सही ठहराने के लिए एक खतरनाक निर्णय लिया और ऐलान किया कि जम्मू के New Civil Secretariat Area में एक पुराने मंदिर को गिराकर, भव्य मस्जिद बनवाई जाएगी. उस समय कश्मीरी पंडितों ने इसका विरोध किया तो दक्षिण कश्मीर और सोपोर में दंगे भड़क गए. इस दौरान कश्मीर पंडितों की हत्याएं की गईं. इन दंगों के बाद ही 12 मार्च 1986 को तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा ने गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को बर्खास्त कर दिया था. हालांकि इसके बाद भी कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार नहीं थमे. 14 सितंबर 1989 को कट्टरपंथी जेहादियों ने पंडित टीका लाल टिक्कू को खुलेआम हत्या कर दी. ये कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगाने के लिए की गई पहली हत्या थी. उस समय कश्मीर में अलग-अलग तरह के नारे लगाए जाते थे. जैसे.. 'जागो जागो, सुबह हुई, रूस ने बाजी हारी है, हिंद पर लर्जन तारे हैं, अब कश्मीर की बारी है'. तब सोवियत रूस की सेना अफगानिस्तान से वापस जा रही थी. इसलिए मुजाहिद्दीन कह रहे थे कि अफगानिस्तान के बाद अब कश्मीर की बारी है. एक और नारा लगाया जाता था.. 'हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर, पर उनकी घर की महिलाओं के साथ'. इसके अलावा मस्जिदों से भी एक नारा लगाया जाता था. 'कश्मीर में रहना होगा तो अल्ला-हू-अकबर कहना होगा'.
टीका लाल टिक्कू की हत्या
टीका लाल टिक्कू की हत्या और इन नारों का कश्मीरी पंडितों में कितना खौफ था, इसका अन्दाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि तब टीका लाल टिक्कू के पुत्र मोहन लाल टिक्कू ने एक स्थानीय अखबार में आतंकवादियों से उन्हें हरिद्वार जाकर अपने पिता की अस्थियां विसर्जित करने देने की अपील की थी. उस समय के अखबार में मोहन लाल की अपील प्रकाशित हुई थी. टीका लाल टिक्कू की हत्या के डेढ़ महीने बाद रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की भी हत्या कर दी गई थी. क्योंकि उन्होंने आतंकवादी मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी. इसके बाद उन्हें मार दिया गया और उनकी पत्नी को भी अगवा कर लिया गया. उनकी पत्नी के बारे में आज तक किसी को कुछ पता नहीं चल पाया है. वर्ष 1989 में जुलाई से नवंबर के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किये गये थे. इन्हें क्यों रिहा किया गया था? इसका जवाब उस समय की नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने आज तक नहीं दिया है.
1947 के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा पलायन
वर्ष 1990 के फरवरी और मार्च महीने में एक लाख 60 हजार कश्मीरी पंडित अपना सबकुछ पीछे छोड़कर दूसरे राज्यों में चले गए थे. इसके अलावा एक रिपोर्ट ये कहती है कि कुल चार लाख कश्मीरी पंडितों ने उस समय कश्मीर से पलायन किया. ये 1947 के बाद देश में हुआ दूसरा सबसे बड़ा पलायन था, लेकिन उस समय के नेताओं ने इस पर कुछ भी कहना जरूरी नहीं समझा. उस समय आतंकवादी कश्मीरी पंडितों को नोट के जरिये धमकी देते थे. तब इस तरह से कागज पर जान से मारने की धमकियां लिखी जाती थीं और कश्मीरी पंडितों को कहा जाता था कि वो और उनका परिवार नहीं बचेगा. इस विस्थापन के कुछ महीनों बाद कांग्रेस और दूसरी पार्टियों ने ये माहौल बनाया कि कश्मीर में अब सब सही हो चुका है. जबकि ये सच नहीं था.
कभी गिरिजा टिक्कू की बात नहीं की
जून 1990 को कश्मीर में एक ऐसी घटना हुई, जिसने सबको दहलाकर रख दिया. उस समय गिरिजा टिक्कू नाम की एक महिला, कश्मीर की एक यूनिवर्सिटी में Librarian के पद पर काम करती थी. लेकिन पलायन की वजह से उन्हें कश्मीर छोड़ना पड़ा था. लेकिन एक दिन, उनके एक सहयोगी ने उन्हें फोन करके कहा कि उनकी सैलरी आ गई है और अब यहां माहौल भी शांत हो गया इसलिए वो वहां आकर अपनी सैलरी ले सकती हैं. गिरिजा जब कश्मीर पहुंची तो उन्हें बस से दिनदहाड़े पांच कट्टरपंथियों ने अगवा कर लिया, उनका गैंगरेप किया और आरी से उनके शरीर के दो हिस्से कर दिए गए. 2018 के कठुआ गैंगरेप को मुद्दा बनाने वाले गैंग ने कभी गिरिजा टिक्कू की बात नहीं की. आज तक किसी ने उनके साथ हुए इस अन्याय को आवाज नहीं दी. 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर में जब दो आंतकवादी मारे गए थे, तब सोनिया गांधी की आंखों में आंसू थे. लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए उनकी आंखों में आंसू नहीं आए.