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बुंदेलखंड के सागर में 200 साल बाद भी पुतरियों के मेले का दीवानापन, देखने पहुंचते हैं हजारों लोग

Putriyon Ka Mela Sagar: बुंदेलखंड के सागर जिले के एक छोटे से गांव काछी पिपरिया में 200 साल से भी ज्यादा समय से पुतरियों का मेला लगता आ रहा है. इस मेले में हजारों पुतरियों को सजाया जाता है जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती हैं. यह मेला एक परिवार द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी आयोजित किया जाता है.आज 200 साल बाद भी इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती है.

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सागर के काछी पिपरिया गांव में लगने वाले पुतरियों के मेले का नजारा कुछ अलग ही होता है. यहां हजारों की संख्या में गुड़िया सजाई जाती हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में 'पुतरिया' कहा जाता है. इन गुड़ियों में 200 साल पुरानी गुड़िया से लेकर इस साल की गुड़िया भी शामिल होती हैं. हर साल नई गुड़िया बनाई जाती हैं और उन्हें पुरानी गुड़ियों के साथ जोड़कर लोगों के देखने यानी प्रदर्शन के लिए सजाया जाता है.

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इस मेले में आने वाला कोई भी व्यक्ति कला की बारीकियों को करीब से देखकर हैरान रह जाता है. ये गुड़िया कपड़े, कागज और मिट्टी से बनाई जाती हैं. खास बात ये है कि ये हजारों गुड़िया एक ही परिवार पीढ़ियों से बनाता आ रहा है. पहले सात दिन, फिर तीन दिन और अब साल में एक दिन के लिए ये गुड़िया लोगों को देखने के लिए रखी जाती हैं और फिर ये परिवार इन्हें संभाल कर रखता है.

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दरअसल, इस पूरे मेले के पीछे की वजह कला और धार्मिक मान्यताओं के प्रति समर्पण है, जिसमें कला के ज़रिए भक्ति और साधना शामिल है. इस मेले की शुरुआत 207 साल पहले इस गांव काछी पिपरिया के एक पंडित ने की थी. 

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पंडित मूर्तिकला और चित्रकला के विशेषज्ञ कलाकार होने के साथ-साथ धार्मिक विद्वान भी थे. परिवार के लोग बताते हैं कि वे कला को ईश्वर की आराधना का ही एक हिस्सा मानते थे.

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उस समय शिक्षा का अभाव था, लोग पढ़े-लिखे नहीं थे और मनोरंजन के साधन भी नहीं थे. उन्होंने कला के माध्यम से लोगों को धर्म से जोड़ने का तरीका खोज निकाला. जिसके बाद इस गांव के लोग बड़ी संख्या में अपनी कला का हुनर ​​दिखाने लगे. इन मूर्तियों के माध्यम से धर्म का प्रसार हुआ. 

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पंडित दुर्गा प्रसाद पांडेय की पहल ने लोगों को खेती के साथ-साथ कला के क्षेत्र में भी सक्रिय किया. इसलिए इस मुहिम को और विस्तार देने के लिए 207 साल पहले गांव में मेले का आयोजन किया गया. खबर आस-पास के गांवों में फैली और कई गांवों से लोग इस मेले को देखने आए और तब से यह मेला एक परंपरा बन गया. 

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पांडेय परिवार इस परंपरा को आगे बढ़ा रहा है. बता दें कि हर साल बड़ी संख्या में इस कला से जुड़े लोग देश के अलग-अलग हिस्सों से मेले में हिस्सा लेने आते हैं. 

रिपोर्ट- महेंद्र दुबे