Gariaband Devbhog Jagannath Temple: गरियाबंद जिले के देवभोग गांव में स्थित 123 साल पुराने भगवान जगन्नाथ मंदिर में एक अनोखी परंपरा है. यहां भगवान जगन्नाथ खुद लगान वसूलते हैं. पुजारी और चाकर गांव में घूमकर झोलियो में अनाज इकट्ठा करते हैं. इस परंपरा की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई थी जब रामचंद्र बेहेरा नामक व्यक्ति पुरी से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति लाए थे.
गरियाबंद के देवभोग में भगवान जगन्नाथ लगान वसूली कराते हैं. इस मंदिर में पुजारी के अलावा भगवान की सेवा के लिए चाकर की भी नियुक्ति हुई है. बता दें कि 123 साल पुराने इस मंदिर का ओडिशा के पुरी से गहरा नाता है. देवभोग के इस ऐतिहासिक मंदिर का बहुती ही रोचक इतिहास है.
गांव में घूम-घूम कर झोलियों में अनाज ले रहे ये लोग देवभोग के भगवान जगन्नाथ मंदिर के चाकर और पुजारी हैं. ये भगवान जगन्नाथ के आदेश पर फसल कटाई के बाद इसी तरह गांव में जाकर अनाज को लगान के रूप में वसूलते हैं.
प्रति वर्ष वसूले गए लगान से ही मंदिर का संचालन और भोग लगाया जाता है. इतना ही नहीं, प्रति वर्ष रथ यात्रा से पहले लगान वसूली का एक भाग पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भोग लगाने भेजा जाता है. तब से इस स्थान का नाम देवभोग पड़ गया.
मंदिर में सेवादार के रूप में झराबहाल के यादव परिवार को सालों पहले जिम्मेदारी दी गई थी, जो पिछले 4 पीढ़ियों से मंदिर में सेवा दे रहे हैं.
हालांकि, आप सोच रहे होंगे कि इस मंदिर में विराजे भगवान को लगान वसूलने की जरूरत क्यों पड़ी. बात 18वीं शताब्दी की है. टेमरा ग्राम निवासी रामचंद्र बेहेरा तीर्थ से लौटे तो भगवान की मूर्ति पुरी से साथ ले आए, जिसे झराबहाल के पेड़ के नीचे रखकर पूजा करते रहे.
जिसके बाद तत्कालीन जमींदारों ने भरी सभा में मूर्ति की शक्ति का परीक्षण कर दिया. परिणाम चौंकाने वाले थे, इसलिए तत्काल ही जमींदारों ने मंदिर निर्माण के लिए स्थान का चयन कर दिया. यह भी एलान किया कि इसका निर्माण जन भागीदारी से होगा.
जिसके बाद 1854 में निर्माण शुरू हुआ जो 1901 में पूरा हुआ. निर्माण होते ही संचालन के लिए भी भागीदारी तय हुई.ग्रामीणों ने संचालन के लिए अपना हिस्सा अनाज देने की शपथ ली.
फिर इस शपथ को जीवंत रखने मूर्ति के पुराने स्थान पर शपथ शिला गाड़ दिया गया. यह शिला पीढ़ी दर पीढ़ी मंदिर संचालन के लिए भगवान को दिए जाने वाले लगान की याद दिलाती है.
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