रतलाम जिले का रूपाखेड़ा गांव है जो रतलाम से 15 किमी दूर है. 1955 से इस गांव में संकल्प के साथ खादी को अपनाया गया.
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रतलाम/चन्द्रशेखर सोलंकी: मां खादी की चादर दे दे में गांधी (gandhi) बन जाऊँगा, सब मित्रों के बीच बैठ कर रघुपति राघव गाऊंगा. यह पंक्तियां बचपन में किताब में पढ़ी थी. जो महात्मा गांधी की खादी (khaadi) जो सम्मान, समर्पण और त्याग का प्रतीक है. ऐसा ही एक गांव मध्यप्रदेश के रतलाम जिले में भी है. जहां की एक पूरी पीढ़ी ने सिर्फ खादी पहनी. खादी की शान में, पूरी उम्र दूसरे कपड़ों को हाथ तक नहीं लगाया. इस गांव में एक बुजर्ग ऐसे भी है जो बापू के आश्रम वर्धा से खादी बनाना सीख कर आये और गांव की स्कूल में खादी की शिक्षा भी दी.
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दरअसल यह गांव रतलाम जिले का रूपाखेड़ा गांव है जो रतलाम से 15 किमी दूर है. 1955 से इस गांव में संकल्प के साथ खादी को अपनाया गया. उनमें से आजतक खादी पहनने वाले अब सिर्फ 4 बुजुर्ग बचे है जो आज भी सिर्फ खादी के कुर्ते पजामें धोती पहनते है.
वर्धा जाकर खादी का प्रशिक्षण लिया
गांव की चौपाल पर बैठे 4 बुजुर्ग जो इनके साथ कि पूरी पीढ़ी की कहानी को खुद बताते है. इनमे एक बुजुर्ग ने तो 1955 में बापू के आश्रम वर्धा में जाकर चरखा चलाने और खादी के कपड़े बनाने का प्रशिक्षण लिया और फिर रतलाम में शिक्षक रहते हुए अपने गांव के स्कूल में शिक्षा के साथ खादी के कपड़े बनाने की शिक्षा भी स्कूल में 1977 तक दी.
पढ़ाई के साथ खादी बुनाई
इस गांव के 85 साल के बुजुर्ग गेंदालाल बताते हैं कि 5 जुलाई 1955 को सर्वोदय संस्था ने गांव में एक स्कूल खोला था. इस स्कूल में कपड़े बनाने वाला शिक्षक भी था. उस समय स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को सूत काटने के लिए बकायदा चरखा मिला. स्कूल की पढ़ाई लिखाई के साथ रोज स्कूल में 1 घण्टा सूत की कटाई की कक्षा लगाई जाती थी. 1959 से 1969 तक यहां बच्चे चरखा चलाते थे. जिससे तैयार धागा बेचते भी थे और उससे अपने कपड़े भी बनवाते थे.
पैसा मिल मालिकों की जेब में जाता था
गांव के 81 साल के बुजुर्ग मोहनलाल का कहना हैं कि बापू के खादी को बढ़ावा देने का उद्देश्य यही था कि इससे ज्यादा लोगों को काम मिलेगा. क्योंकि मिल में बने कपड़े का पूरा पैसा मिल मालिकों की जेब में पहुंचता था. लेकिन खादी के काम को घर-घर तक ले जाकर रोजगार मिलता था. आज भी खादी दूसरे कपड़ो से महंगा है. खादी का बना सामान्य कुर्ता 1 हजार से 15 सौ रुपये तक आता है जबकि इस प्रकार का सादा कुर्ता अन्य कपड़ो में 300 से 500 में ही आ जाता है. इसी सोच से आज भी बुजुर्ग खादी पहनते है.
स्वदेशी की पहचान है खादी
गांव के 59 वर्षीय अशोक पाटीदार ने बताया कि आज तो गांव में कुछ ही लोग है जो खादी पहनते है. कुछ सालों पहले तक काफी लोग थे, जो सालों से सिर्फ खादी ही पहनते थे. अशोक कहते हैं 1960 में उन्होंने सर्वोदय संस्था से जुड़कर जीवन भर खादी पहनने का संकल्प लिया था. खादी के कपड़ो का मिज़ाज़ भी विदेशी व अन्य कपड़ो से अलग होता है, यह कपड़ा ठंड में गर्मी देता है और गर्मी में ठंडा रहता है. वहीं इस कपड़े की एक एक बुनाई हाथ से होती है इसलिए इसे पहनने के बाद स्वदेशी होने का अहसास तो होता है.
मार्केट में खादी की शौकीन बहुत कम
जिले की 1 शासकीय खादी कपड़े की दुकान रतलाम शहर में है. इस दुकान के व्यापारी केशव सिंह का कहना हैं कि अब खादी कपड़ो के शौकीन भी बहुत कम ही लोग बचे है. वहीं इस कपड़े को बड़ी मेहनत से हाथ से तैयार किया जाता है इसलिए यह महंगा भी होता है. दुकानदार ने बताया कि एक समय था, जब रूपाखेड़ा गांव के लोग 50 हजार की खादी खरीदकर ले जाते थे.
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अब वक्त है खादी अपनाने का
बता दें कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी खुद मन की बात में कई बार खादी के महत्व को बता चुके हैं. ऐसे में अब जरूरत है देश के युवाओं को आगे बढ़कर खादी को ट्रेंड में लाने और देश विदेश में खादी का डंका बजाने की.
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