जब नेताजी ने कहा था `वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पाएंगे?, फिर एक झटके में दे दिया था ICS से इस्तीफा
नेताजी में देश के लिए त्याग की भावन किस कदर कूट-कूट कर भरी हुई थी, जानने के लिए पढ़िए पूरी खबर...
भोपाल: अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को जब-जब याद किया जाएगा एक नाम जरूर सबकी जुबां पर होगी. वह नाम है नेताजी सुभाष चंद्र बोस का नाम. वही सुभाष चंद्र बोस जिन्होंने 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा' का नारा बुलंद किया था. जिन्होंने देशवासियों से कहा था कि याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है. जिन्होंने कहा था कि सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी है. उनकी बातें, उनका संघर्ष और उनकी जिंदगी आज भी प्रेरणा देती हैं.
ये भी पढ़ें: इन 12 विचारों में झलकती है सुभाष चंद्र बोस की शख्सियत, पढ़कर जोश-जुनून से भर जाएंगे आप
देश आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती मना रहा है. भारत को आजादी दिलाने वाले महान नायकों में से एक नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक (ओडिशा) में हुआ था. नेताजी के आदर्शों और उनके कार्यों की देश में इतनी चर्चा नहीं हुई जितनी कि उनकी रहस्यमय मृत्यु और तथाकथित मृत्यु के बाद भी जीवित रहने के किस्सों की होती है. आखिर ऐसा क्या था, जिसकी वजह से नेताजी को इतना याद किया जाता है, इन वजहों में त्याग भी एक वजह है.
देश के लिए त्याग की भावना
नेताजी में देश के लिए त्याग की भावन किस कदर कूट-कूट कर भरी हुई थी, इस बात को ऐसे समझ सकते हैं कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिए 22 अप्रैल, 1921 को भारतीय सिविल सेवा से इस्तीफा दे दिया था. साल 1921 में नेताजी सिर्फ 24 साल के थे. खास बात ये है कि उस वक्त भारतीय सिविल सेवा में सिलेक्ट होने इतना आसान नहीं था, लेकिन कड़ी मेहतन के दम पर 1920 में नेताजी ने चौथा स्थान प्राप्त करते हुए आईसीएस की परीक्षा पास कर ली थी.
जब नेताजी ने कहा था- वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पाएंगे?
आईसीएस की परीक्षा पास करने के बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखा और पूछा कि उनके दिलो-दिमाग पर स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रखा है. ऐसे में आईसीएस बनकर, वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पाएंगे? नेताजी के इस पत्र के जवाब में उनकी मां प्रभावती ने एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा था कि पिता और परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है.
बताजा जाता है कि इसके बाद नेताजी ने 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ईएस मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा. बाद में वह जून 1921 में इंग्लैंड से मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ऑनर्स की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आए और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. इसके बाद उन्होंने कहा था कि याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है.
ये भी पढ़ें: नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती कार्यक्रम में उन्हीं को भूले BJP सांसद, याद आने लगे चंद्र शेखर आजाद
ये भी पढ़ें: सफाईकर्मी की दहलीज पर जाकर शिवराज के मंत्री बोले- अम्मा सुबह से निकला हूं, कुछ खाने को मिलेगा?
WATCH LIVE TV