केंद्र सरकार की नीति के अनुसार अफीम के उत्पादन को मंजूरी के बाद यहां के किसान राजस्थान के चित्तौड़गढ़ किले पर विराजित काली मां को अफीम का भोग बनाकर प्रसादी चढ़ाते हैं.
अफीम की खेती करने वाले किसान अपनी फसल को मां काली का रूप समझ कर पूजते हैं. किसानों ने अपने खेतों में पहले ही मां काली की स्थापना कर रखी है. किसान खेत में काली मां की पूजा के बाद अफीम के डोडो में चिराई का काम करते हैं. फसल लगाने से पहले और काटने से पहले के दो दिन किसानों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं.
सरकार से अफीम उगाने का लाइसेंस मिलने के बाद से ही यहां के किसान चार महिनों तक फसल को अपने बच्चे की तरह पालते हैं. अफीम का चार महीने तक ख्याल रखने के बाद वह बड़े होकर डोडे का रूप ले लेती है. इस वक्त भी फसल काटने का ही समय है और लोगों ने अपने खेतों में पूजा करना शुरू कर दिया है.
अफीम के लिए पूजा सिर्फ खेतों तक ही सीमित नहीं रहती. लोग राजस्थान में स्थित मालवा-मेवाड़ के प्रसिद्ध मां कालका के चित्तौड़गढ़ किले में भी पूजा करते हैं. यहां के मंदिर में किसान अपने पूरे परिवार के साथ फसल कटाई के लिए अफीम की प्रसादी लेकर जाते हैं. यहां मंदिर में मां कालका की पूजा के बाद ही खेतों में अफीम निकालने की शुरुआत होती है.
किसानों का मानना है कि मां कालका की पूजा करने से अफीम की फसल अच्छी होती है. मां काली तस्कर और लुटेरों से भी अफीम की रक्षा करती हैं. अफीम की फसल किसानों को समाज में एक अलग पहचान और सम्मान भी दिलाती है. लोगों का कहना है कि जिन किसानों के पास अफीम का लाइसेंस रहता है, उन्हें बच्चों की शादी में किसी भी तरह की परेशानी नहीं होती.
डीएनसी प्रमोद सिंह ने बताया कि केंद्र सरकार की अफीम नीति में मॉर्फिन की मात्रा के आधार पर अफीम के लाइसेंस किसानों को दिए जाते हैं. 4.2-5.4 से कम मॉर्फिन वाले किसानों को 6 आरी के लाइसेंस, 5.4-5.9 से कम मॉर्फिन वाले किसानों को 10 आरी के लाइसेंस और 5.9 से ऊपर मॉर्फिन वाले किसानों को 12 आरी के लाइसेंस दिए जाते हैं. मालवा के नीमच में करीब 15 हजार से ज्यादा अफीम काश्तकार है, जो अफीम उत्पादन के लिए खेती करते हैं.
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