नई दिल्लीः भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज 121वीं जयंती है. 23 जनवरी 1897 को कटक (वर्तमान में ओडिशा) में एक बंगाली परिवार में हुआ. उस समय कटक बंगाल प्रांत का हिस्सा था. सुभाष बाबू जानकीनाथ बोस और प्रभावती देवी के 14 बच्चों में से 9वीं संतान थे. नेताजी के पिता कटक शहर के मशहूर वकील थे.


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साल 1934 में जब ब्रिटिश सरकार ने नेताजी को भारत से निर्वासित किया तो वह यूरोप चले गए थे. वहां रहकर नेताजी आजादी की लड़ाई से जुड़े अपने साथियों को पत्र लिखते रहते थे.'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा' का नारा देने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए  21 अक्टूबर 1943 को 'आजाद हिंद फ़ौज' का गठन किया. नेताजी अपनी आजाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुंचे. यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा, 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' दिया.


म्यांमार को बनाया अपनी कर्मभूमि 
दूसरे World War में जब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमला किया तो सारी दुनिया अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ की ताकत के सामने झुकने पर मजबूर हो गई थी . लेकिन तब भी एक व्यक्ति था जिसने अंग्रेजों के सामने झुकने से इनकार कर दिया और डट कर खड़ा रहा. उस व्यक्ति का नाम था सुभाष चंद्र बोस. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों के खिलाफ हुए युद्ध में बर्मा को अपना Military Base बनाया था . नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने म्यांमार को अपनी कर्मभूमि बनाया था. 



आजादी के ललक ने उन्हें लोगों के दिलों में एक नायक बना दिया था. उनके भाषणों को सुनकर युवा वर्ग देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए निकल पड़े. सुभाष बाबू एक युवा नेता थे. साल 1938-39 तक उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार संभाला था. सुभाष बाबू की विचारधारा कांग्रेस पार्टी से अलग थी, इसी कारण नेताजी बाद में वे कांग्रेस से अलग हो गए. 


पीएम मोदी ने किया याद, जारी किया वीडियो
आज (23 जनवरी) को उनकी जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विटर पर एक वीडियो शेयर करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी. उन्होंने लिखा- नेताजी सुभाष चंद्र बोस की वीरता हर भारतीय को गौरान्वित करती है. उनकी जयंती के मौके पर आज हम उन्हें नमन करते हैं. मोदी ने जिस वीडियो को शेयर किया है उसमें नेताजी के भाषण शामिल हैं. बता दें कि नेताजी ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी. इसमें शामिल नौजवान देश की आजादी के लिए मर-मिटने को तैयार थे.



सुभाष चंद्र की जिंदगी से जुड़े कई रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए भारत सरकार ने उनसे जुड़ी फाइलों को पब्लिक कर दिया था. हालांकि एक सवाल जिसका जवाब आज तक नहीं मिला है वो है कि क्या वाकई हवाई दुर्घटना में नेताजी की मौत हो गई थी या वे वेश बदलकर रह रहे थे. उनका नारा तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा आज भी युवाओं की रगों में जोश पैदा कर देता है.


पश्चिम बंगाल सरकार ने सार्वजनिक की फाइलें 
साल 2015 में पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से बीते दिनों सार्वजनिक किए गए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से जुड़े कुछ गोपनीय दस्तावेजों के अनुसार, स्‍वतंत्रात सेनानी नेताजी सुभाषचंद्र बोस साल 1948 में चीन के मनचूरिया में 'एक जगह' पर 'जीवित' थे. उनके विश्वस्त सहयोगियों में से एक देबनाथ दास ने उस समय दावा किया था.



जारी किए गए इन दस्‍तावेजों के अनुसार, फाइल नंबर 22 में देबनाथ दास समेत आईएनए के नेताओं के बारे में बंगाल सरकार (डिप्‍टी कमिश्‍नर ऑफ पुलिस का कार्यालय) की ओर से जुटाई गई खुफिया सूचनाओं में इस बात पर रोशनी डाली गई है. गौर हो कि करीब 13,000 पन्नों से लैस नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी 64 फाइलें बीते दिनों सार्वजनिक की गईं जिनकी पड़ताल से पता चलता है कि आजाद भारत में उनके परिवार के कुछ सदस्यों की जासूसी कराई गई. हालांकि, फाइलों के अध्ययन से अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका कि क्या वाकई उनकी मौत 1945 में हुए एक विमान हादसे में हुई थी.


नेताजी सुभाषचंद्र बोस जीवित हैं !
इसमें से 9 अगस्‍त, 1948 के एक दस्‍तावेज में कहा गया है कि देबनाथ दास (एंटी कांग्रेस प्रचार में काफी सक्रियता से शामिल एक पूर्व आईएनए नेता) राजनीतिक और पार्टी के सर्किल में इस बात का प्रचार कर रहा है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस जीवित हैं और वे मनचूरिया में किसी जगह पर हैं, जो वर्तमान में चीन में है. इस जिज्ञास को बढ़ाने और लोगों के भरोसे को पुख्‍ता करने के लिए दास ने कहा कि नेताजी ने प्‍लेन क्रैश से पहले उससे कहा था कि दूसरे विश्‍व युद्द के परिप्रेक्ष्‍य में तीसरा विश्‍व युद्ध होने की संभावना बनी हुई है.


22 अगस्‍त, 1945 को टोकियो रेडियो ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के फोरमोसा (अभी ताइवान) में 18 अगस्‍त, 1945 को जापान जाते समय एक प्‍लेन क्रैश में मारे जाने की घोषणा की थी. लेकिन इस प्‍लेन क्रैश में नेताजी की मौत की खबर को उनके समर्थकों और प्रशंसकों ने खारिज कर दिया था. उसके बाद नेताजी के सामने आते रहने की कई बार दावे किए गए. इस विवाद को और आगे बढ़ाते हुए दास ने इन दस्‍तावेजों में इस बात पर जोर दिया है कि साल 1948 में नेताजी राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय परिदृश्‍य पर नजर बनाए हुए थे. दास ने इसमें उल्‍लेख किया है कि इसके पीछे नेताजी का मकसद यह जानना था कि विदेशी शक्तियों में कौन उनका दोस्‍त है और कौन उनका दुश्‍मन.


हालांकि, फाइलों के अध्ययन से अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका कि क्या वाकई उनकी मौत 1945 में हुए एक विमान हादसे में हुई थी. वर्षों तक पुलिसिया और सरकारी लॉकरों में छिपाकर रखी गईं 12,744 पन्नों वाली 64 फाइलें बोस के परिवार के सदस्यों की मौजूदगी में प्रदर्शित की गईं. करीब 70 साल पहले रहस्यमय परिस्थितियों में लापता हुए बोस के परिजन यह मांग करते रहे हैं कि आजाद हिंद फौज के नेता से जुड़ी जानकारी को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. सार्वजनिक की गई एक फाइल में नेताजी के भतीजे शिशिर कुमार बोस की ओर से 1949 में अपने पिता और नेताजी के बड़े भाई शरत चंद्र बोस को लिखा गया एक पत्र है, जिसमें उन्होंने लिखा कि उनके पास नेताजी के एक रेडियो चैनल पर आने की सूचना है. बारह दिसंबर 1949 को शिशिर ने लंदन से अपने पिता को लिखा था कि पीकिंग रेडियो ने घोषणा की कि सुभाष चंद्र बोस का बयान प्रसारित किया जाएंगा. रेडियो ने प्रसारण के समय और तरंगदैघ्र्य के बारे में भी बताया. 


गुमनामी बाबा ही थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस? 
पिछले साल आई एक खबर के मुताबिक फैजाबाद के गुमनामी बाबा की असल पहचान के लिए गठित जस्टिस (रिटायर्ड) विष्‍णु सहाय ने अपनी रिपोर्ट 19 सितंबर 2017 को राज्‍यपाल राम नाइक को सौंपी थी. इस संबंध में टाइम्‍स ऑफ इंडिया से बातचीत करते हुए उन्‍होंने कहा कि उनके जांच कमीशन के समक्ष जो लोग उपस्थित हुए, उनमें से ज्‍यादातर लोगों ने कहा कि गुमनामी बाबा ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे. 


साल 2016 के जून में तत्‍कालीन सपा सरकार ने जस्टिस सहाय आयोग का गठन किया था. इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्देशानुसार इसका गठन किया गया था. दरअसल इस संबंध में एक जनहित याचिका दायर की गई थी. उसमें कहा गया था कि गुमनामी बाबा ही सुभाष चंद्र बोस हैं. उसके बाद हाई कोर्ट ने राज्‍य सरकार को इस संबंध में जांच आयोग का गठन करने का निर्देश दिया था. 


इस संबंध में टाइम्‍स ऑफ इंडिया से खास बातचीत में जस्टिस सहाय ने कहा, ''इस संबंध में कमीशन के समक्ष प्राथमिक रूप से प्रमाण लोगों की गवाही थी. ये गवाह कमीशन के समक्ष उपस्थित हुए या जिन्‍होंने हलफनामा दिया. इनमें से ज्‍यादातर गवाहों ने कहा कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे या वो हो सकते हैं. हालांकि कुछ गवाहों ने कहा कि वह नहीं थे.''


हालांकि जस्टिस सहाय ने रिपोर्ट के निष्‍कर्षों को साझा नहीं किया. कमीशन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के बारे में उन्‍होंने कहा कि गुमनामी बाबा की मृत्‍यु और उसके लंबे अंतराल के बाद गवाहों का बयान बड़ी चुनौती रहा. उन्‍होंने कहा कि गुमनामी बाबा की मृत्‍यु 1985 में हुई थी और गवाहों के बयान 2016-17 में दर्ज हुए. स्‍वाभाविक है कि तीन दशक से भी अधिक समय बीतने के कारण उनकी याददाश्‍त भी अब धुंधली हो गई हैं.


(एजेंसी इनपुट के साथ)