प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर उनकी लिखी 5 कविताएं: `जलते गए, जलाते गए`
हमारे दौर के सर्वाधिक लोकप्रिय और चर्चित व्यक्ति प्रधानमंत्री मोदी को समझने के लिए उनकी लिखी कविताओं से बेहतर और क्या हो सकता है. और इन कविताओं को पढ़ने के लिए उनके जन्मदिन से बेहतर दिन और कौन सा हो सकता है.
नई दिल्ली: कविताएं मन की गहराइयों से निकलती हैं और मन की गहराइयों को छू जाती हैं. ऐसे में हमारे दौर के सर्वाधिक लोकप्रिय और चर्चित व्यक्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझने के लिए उनकी लिखी कविताओं से बेहतर और क्या हो सकता है. और इन कविताओं को पढ़ने के लिए उनके जन्मदिन से बेहतर दिन और कौन सा हो सकता है. आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन के दिन प्रस्तु हैं उनके द्वारा लिखी गईं कुछ कविताएं. ये कविताएं मूल रूप से गुजराती में लिखी गईं हैं. यहां उनका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की कविताएं रहस्यवादी लगती हैं. इसकी वजह ये है कि पीएम मोदी की कविताओं की विषय-वस्तु में अधिकार और वैराग्य एक साथ मिलते हैं. इन कविताओं को पढ़कर एक पल ऐसा लगता है कि वो सारे संसार को मुट्ठी में कर लेने का साहस और इरादा रखते हैं और कविता की अगली ही पंक्ति परम वीतरागी सन्यासी की होती है. उनको सबकुछ चाहिए, लेकिन किसी भी चीज से उन्हें मोह नहीं. यही उनकी कविता की खूबसूरती है. आइए उनकी कुछ चुनिंदा कविताओं की गहराइयों में चलें-
1. 'जलते गए, जलाते गए'
यह कविता पीएम मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के लिए लिखी थी और मूल रूप से उनकी पुस्तक ज्योतिपुंज में प्रकाशित हुई थी. ज्योतिपुंज में उन्होंने आरएसएस के समर्पित कार्यकर्ताओं के बारे में लिखा है कि उनका जीवन कैसा था, और संगठन तथा देश के लिए उन्होंने कैसे त्याग किए.
आंधियों के बीच
जल चुके
कभी
बुझ चुके कुछ दीप थे.
और भी कुछ दीप थे
तिमिर से लोहा लिए थे
बहाते-बहाते
प्रकाश
यों तो अंधकार में समा गए थे,
पर एक दीप
जो आप थे
जलते गए,
जलाते-जलाते.
आंधी आए
तिमिर छाए
फिर भी जले,
जलाते-जलाते.
अंधकार से जूझता था
संकल्प जो उर में भरा था
सूरज आने तक जलना था
बस, जलते गए,
जलाते-जलाते.
जो जले थे
जो जले हैं
जो जल रहे हैं
बन किरण फहरा रहे हैं
रोशनी बरसा रहे हैं
तभी तो
सिद्धियों का सूरज निकल पड़ा है
चहुंओर रोशनी-ही-रोशनी
समाया वह दीप जो.
2. वसंत का आगमन
पीएम मोदी की एक अन्य कविता है - वसंत का आगमन. इसमें उन्होंने जीवन को बदलते मौसम-चक्र के रूप में चित्रित किया है-
अंत में आरंभ है, आरंभ में है अंत,
हिय में पतझर के कूजता वसंत.
सोलह बरस की वय, कहीं कोयल की लय,
किस पर है उछल रहा पलाश का प्रणय?
लगता हो रंक भले, भीतर श्रीमंत
हिय में पतझर के कूजता वसंत.
किसकी शादी है, आज यहाँ बन में?
खिल रहे, रस-रंग वृक्षों के तन में
देने को आशीष आते हैं संत,
हिय में पतझर के कूजता वसंत.
3. पतंग
प्रधानमंत्री मोदी को यह कविता बेहद पसंद है. वो इसे एक बार मकर संक्रांति के अवसर पर ट्वीट करके शेयर भी कर चुके हैं-
पतंग...
मेरे लिए उर्ध्यगति का उत्सव,
मेरा सूर्य की ओर प्रयाण.
पतंग...
मेरे जन्म-जन्मांतर का वैभव,
मेरी डोर मेरे हाथ में
पदचिन्ह पृथ्वी पर,
आकाश में,
विहंगम दृश्य ऐसा.
मेरी पतंग...
अनेक पतंगों के बीच,
मेरी पतंग उलझती नहीं,
वृक्षों की डालियों में फंसती नहीं.
पतंग...
मानो मेरा गायत्री मंत्र,
धनवान हो या रंक,
सभी को,
कटी पतंग एकत्र करने का आनंद होता है,
बहुत ही अनोखा आनंद.
कटी पतंग के पास,
आकाश का अनुभव है,
हवा की गति और दिशा का ज्ञान है.
स्वयं एक बार ऊंचाई तक गई है,
वहां कुछ क्षण रुकी है,
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है.
पतंग...
मेरा सूर्य की ओर प्रयाण,
पतंग का जीवन उसकी डोर में है.
पतंग का आराध्य (शिव) व्योम (आकाश) में है,
पतंग की डोर मेरे हाथ में है,
मेरी डोर शिव जी के हाथ में है.
जीवन रूपी पतंग के लिए
शिव जी हिमालय में बैठे हैं.
पतंग (जीवन) के सपने
मानव से ऊंचे.
पतंग उड़ती है, शिव जी के आसपास,
मनुष्य जीवन में बैठा-बैठा,
उसको (डोर) सुलझाने में लगा रहता है.
4. सनातन मौसम
ये कविता पीएम मोदी के कविता संग्रह 'आंख आ धन्य छे' से ली गई है. इस कविता संग्रह में उन्होंने अपने जीवन-दर्शन और जयवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं.
अभी तो मुझे आश्चर्य होता है
कि कहाँ से फूटता है यह शब्दों का झरना
कभी अन्याय के सामने
मेरी आवाज की आँख ऊँची होती है
तो कभी शब्दों की शांत नदी
शांति से बहती है .
इतने सारे शब्दों के बीच
मैं बचाता हूँ अपना एकांत
तथा मौन के गर्भ में प्रवेश कर
लेता हूँ आनंद किसी सनातन मौसम का.
5. तस्वीर के उस पार
ये कविता भी पीएम मोदी के कविता संग्रह 'आंख आ धन्य छे' से ली गई है.
तुम मुझे मेरी तस्वीर या पोस्टर में
ढूढ़ने की व्यर्थ कोशिश मत करो
मैं तो पद्मासन की मुद्रा में बैठा हूँ
अपने आत्मविश्वास में
अपनी वाणी और कर्मक्षेत्र में।
तुम मुझे मेरे काम से ही जानो
तुम मुझे छवि में नहीं
लेकिन पसीने की महक में पाओ
योजना के विस्तार की महक में ठहरो
मेरी आवाज की गूँज से पहचानो
मेरी आँख में तुम्हारा ही प्रतिबिम्ब है