भारत में मेले का एक विशेष महत्व है. 21वीं सदी में लोगों को भले ही जरूरतें की चीजें घरों तक पहुंच जा रही है, लेकिन मेले की महिला आज भी है. मेले देखने के लिए दूर दूर से लोग आते हैं. दौसा में भी हजारों साल से लग रहे मेले की पहचान आज भी बरकरार है. .
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दौसा: मेले प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति की पहचान रहे हैं. राजा महाराजाओं के शासनकाल में मेलों का बड़ा महत्व होता था. उस जमाने में ना तो अधिक संसाधन होते थे ना ही कोई बड़े बाजार हुआ करते थे ऐसे में मेले जब लगते थे तो लोग अपनी जरूरत का सारा सामान मेलों में ही खरीदते थे.
राजा महाराजाओं के यहां से ढोल नगाड़ों के साथ मेले के आयोजन को लेकर अनाउंस भी किया जाता था उसकी वजह थी कि लोगों को पता लग जाए कि यहां मेले का आयोजन होने वाला है ताकि वह अपनी जरूरत की चीजें मेले में पहुंचकर खरीद सके साथ ही जब मेले आयोजित होते थे तो लोग एक दूसरे से मिल भी लेते थे संसाधनों के अभाव में दूरियां अधिक थी रिश्तेदारों का आपस में ऐसे ही आयोजनों पर मिलना जुलना होता था आज भले ही आधुनिकता ने सब कुछ बदल दिया हो लेकिन अब भी प्राचीन काल में लगने वाले मेलो का महत्व कम नहीं हुआ है.
मेले में फर्नीचर के सामानों की ज्यादा मांग
दौसा जिला मुख्यालय पर लगने वाले बसंत पंचमी के मेले का आज भी लोगो में बड़ा चार्म है. बाजारों में बड़े बड़े शोरूम खुले हुए है, लेकिन दौसा में लगने वाले बसंत पंचमी के मेले में आज भी लोग घर के जरूरत के सामानों की खरीददारी करने पहुचते हैं. खासकर मिर्च मसाले लोहे ओर लकड़ी के सामान की दुकानें बड़ी तादाद में यहां लगती है हालांकि पूर्व में बसंत पंचमी के मेले में घुड़ दौड़ , ऊंट दौड़ नृत्य आकर्षण ओर मनोरंज का केंद्र रहते थे लेकिन समय के बदलाव के चलते अब ये बंद हो गए लेकिन फिर भी बसंत पंचमी के मेले में अभी शहरी ओर ग्रामीण लोग बड़ी तादाद में पहुचते है.
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1000 साल से लग रहा है मेला
स्थानीय लोगों की माने तो दौसा में लगने वाला बसंत पंचमी का मेला 1000 वर्ष से भी अधिक समय से पहले से लगता आ रहा है और तब से अभी तक यह प्रक्रिया निरंतर जारी है पूर्व में मेले का आयोजन राजा महाराजाओं के द्वारा किया जाता था अब नगर परिषद द्वारा मेले का पूरा प्रबंध किया जाता है दूर दराज से दुकानदार मेले में पहुंचकर अपनी दुकान जमाते हैं. वहीं शहरी और ग्रामीण लोग मेले में पहुंचकर अपनी जरूरत का सामान खरीदते हैं मेले में दुकान लगाने वाले दुकानदार दौसा जिले के नहीं बल्कि प्रदेश सहित कई राज्यों से आते हैं जहा अपनी दुकान लगाकर साल भर की रोजी-रोटी कमाते हैं और यह दुकानदार पीढ़ी दर पीढ़ी बसंत पंचमी के मेले में आ रहे हैं.
माघ सुदी प्रतिपदा से होती है मेले की शुरुआत
दौसा जिला मुख्यालय पर लगने वाले बसंत पंचमी के मेले की शुरुआत माघ सुदी प्रतिपदा से होती है जहां रघुनाथ जी के मंदिर से रथ में सवार होकर ठाकुर जी गाजे-बाजे के साथ मेला स्थल पर पहुंचते हैं और छट तक मेले में ही विराजमान रहते हैं इस दौरान राजाओं के शासनकाल से राज मिश्र परिवार द्वारा माघ महत्तम कथा की जाती है तो वही छट को ठाकुर जी रथ में सवार होकर वापस रघुनाथ जी के मंदिर लौट जाते हैं और सप्तमी के दिन रथ में सवार होकर सूर्य नारायण भगवान मेले में विहार के लिए पहुंचते हैं और सूर्यास्त से पहले वह भी फिर से मंदिर को लौट जाते हैं.
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पहले सात दिन के लिए लगता था मेला
पूर्व में यह मेला सात दिवस का होता था लेकिन अब करीब एक माह तक यह मेला लगता है. बसंत पंचमी के मेले में वैसे तो करीब करीब घर की जरूरत के सभी तरह के सामानों की दुकानें लगती है लेकिन मिर्च मसाले लोहे के बर्तन लकड़ी के सामान की खरीदारी लोग बहुतायत में करते हैं तो वही चकरी , झूले बच्चों के आकर्षण का मुख्य केंद्र रहते हैं.