Sawai Madhopur: आसमान छूती मंहगाई का असर अब त्यौहारों पर भी साफ नजर आने लगा है. मुंह फाड़ती मंहगाई के कारण त्यौहारों पर अब लोग सदियों पुराने रिती रिवाजों से दूर होते नजर आने लगें हैं और मंहगाई की मार दीपावली पर घर-घर में जलनें वाले मिट्टी के दीपकों पर नजर आने लगी है. दीपावली के त्यौहार पर सदीयों से महिलाऐं घर-घर जाकर दीपक जलानें के बाद आपस में दीपावली के पर्व की बधाईयां और खुषीयां बांटता थी, लेकिन अब बाजारों में तरह-तरह की लाईटों की भरमार से लोग दीपावली के पर्व पर भी घरों तक ही सीमट कर रह गए हैं. बाजार में इलेक्ट्रानिक दीपक और लाईटें आने से दीपक बनानें वाले कुम्हारों के सामनें रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है.


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दिपावली जैसे त्यौहार पर बाजारों में तरह-तरह की लाईटों की भरमार के चलते मिट्टी के दीपकों का काम करने वाले कुम्हार परिवारों ने भी मंहगाई और कम मांग के चलते पुष्तैनी व्यवसाय से तौबा करना शुरु कर दिया है. दीपावली के त्यौहार पर कुछ सालों पहले रौषनी की सजावट के लिए मिट्टी के दीपकों की काफी मांग रहती थी, लेकिन इस आधुनिक दौर में बाजार में सजावट के लिये इलेक्ट्रॉनिक आयटमों की भरमार होने से लोगों का मिट्टी के दिपकों के प्रति रुझान कम होता जा रहा है. खास बात ये है कि बाजारों में ईलेक्ट्रानिक दीपक भी उपलब्ध होने लगे हैं और आज कल लोग मिट्टी के दिपकों की जगह पर ईलेक्ट्रानिक दिपक खरिदना अधिक पंसद करते हैं. 


विज्ञान और हाईटैक युग का असर दीपक बनानें की कला पर भी पड़ा है. समय के साथ इन में बदलाव भी हुआ है और अब सामान्य दीपकों की जगह पर लोग डिजाइनदार दिए पसन्द करने लगे हैं. महिलाऐं खास तौर पर फलपत्ति उकेरे हुए दीपक सहित एकल दीपक पंचदीप और दीपमाला अधिक पसन्द करती हैं पर इस भागदोड़ भरी जिन्दगी में अब दीपको की जगह इलेक्ट्रॉनिक लाईटों ने ले ली है. इलेक्ट्रानिक दीपकों में ना तो तेल की जरुरत है और ना ही बाती की जरुरत पड़ती है. इन्हे बिजली की सहायता से सरलता से जोड़ दिया जाता है. इस मंहगाई में लोग मिट्टी के दिए जलानें के लिए दीपक और तेल खरिदनें की बजाऐ इलेक्ट्रॉनिक दीपकों के ही अपने घरों को रोषन करनें में लगे हैं, जिसके कारण लोगों का अब मिट्टी के दिपों से मोहभंग होने लगा है और दीपकव मटके बनानें वाले कुम्हार परिवारों के सामने अब रोजी रोटी का संकट खड़ा होने लगा है.


दिपावली के त्यौहार पर मिट्टी के दिपक अब महज औपचारिकता तक ही सिमित होकर रह गए हैं. दीपावली के त्यौहार पर लोग मिट्टी के दिपक खरिदते तो हैं, लेकिन इनकी संख्या कम ही होती है जबकी लोगों द्वारा पहले दर्जनों की तादाद में मिट्टी के दिपक खरीदे जाते थे. बुजुर्गों के अनुसार दिपावली के त्यौहार भले ही बाजारों में ईलेक्ट्रानिक आयटमों की भरमार हो, लेकिन मिट्टी के दिपकों के बिना दिपावली का त्यौहार अधुरा ही माना जाता है. दिपावली ही नहीं अन्य षुभ अवसरों पर भी मिट्टी के दिपकों की महत्वता है. मिट्टी के बर्तनों के प्रति लोगों की रुचि कम होने से अब कुम्हार परिवारों का भी अपने इस पुष्तैनी कामधंधे में रुझान कम होता जा रहा है. षहर के कुम्हार मोहल्ले में इस व्यवसाय से जुड़े एक दर्जन परिवार है जो वर्सों से मिट्टी के दिपक और बर्तनों सहित अन्य आयटम बनाते आ रहे है, लेकिन अब बाजारों में ईलेक्ट्रानिक आयटमों के आने से मिट्टी के दीपों और बर्तनों की कम मांग और मंहगाई के कारण कुम्हार अपना पुष्तैनी काम छोडकर अन्य व्यवसाय से जुड़ने लगे हैं. दीपों के साथ ही लोग अब मिट्टी के कलष की जगह पर पितल या स्टील के कलष का उपयोग करने लगे हैं.


बाजार में इलेक्ट्रीक लाईटों के साथ चाईनिज लाईटों और दिपको की भर मार है मगर कुछ लोग आज भी दिपावली पर मिट्टी के ही दीपकों का उपयोग करते है. कुछ लोगों ने आज इस आधुनीक युग में भी अपनी भारतिय संस्क्रति और परम्पराओं को नही छोड़ा है वो आज भी कोई भी षुभ काम करनें से पहले वो लोग मिट्टी के बर्तनों का ही उपयोग करते है. रोषनी और दीपों के त्यौहार दीपावली के निकट आते ही षहर में दीपकों की रौनक नजर आने लगी है. कुम्हार दीपक बनानें में जुटे हुए है, तो बाजारों में भी दीपकों की दुकानें सजने लगी है. पांच दिवसीय दीपोउत्सव पर आज भी मिट्टी के दिपक रोषनी बिखेरते हैं. थोड़ा ही सही मगर मिट्टी के दीपों का जादू आज भी कायम है और दीपदान करनें के लिये लोग आज कम ही सही मगर आज भी मिटटी के दीपक खरीदते हैं. मिट्टी के दीपक और अन्य बर्तन बनानें के व्यवसाय से सवाई माधोपुर में करिब 250 परिवार इस व्यवसाय से जुड़े हुए है मगर मिटटी के दीपों और बर्जनों की कम खपत के कारण अब इन परिवारों के लोग धिरे-धिरे करके अन्य व्यवसायों से जुड़ने लगे हैं. देखा जाऐ तो अब दीपोउत्सव जैसे दीपों के त्यौहार दिपावली पर भी मिटटी के दीपक अपनी पहचान खोने लगे हैं और इनकी जग अब इलेक्ट्रॉनिक लाईट और दिपों ने ले ली है. वहीं मिट्टी के दीपों पर मंहगाई की मार भी भारी पड़ रही है, जिसके चलते लोग इन्हे कम ही खरिदना पसन्द कर रहे हैं और धीरे-धीर कर के इन मिट्टी के दीपों की पहचान धुंधली होती जा रही है.


Reporter: Arvind Singh


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