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प्रयागराज: मशहूर शायर और आलोचक शम्सुर्रहमान फारूकी (Shamsur Rahman Faruqi) का 85 साल की उम्र में निधन हो गया. शुक्रवार 25 दिसंबर की सुबह करीब 11 बजे उन्होंने प्रयागराज स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली. उनकी मौत की खबर सुनकर साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई. बता दें कि बीते 23 नवंबर को ही वो कोरोना को मात देकर वापस घर लौटे थे. शम्सुर्रहमान फारूकी को उर्दू आलोचना के 'टी.एस.एलियट' के रूप में भी माना जाता है.
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प्रमुख रचना
शम्सुर्रहमान फारूकी को शुरुआत से ही लिखने में दिलचस्पी थी. 'गालिब अफसाने के हिमायत में', 'उर्दू का इब्तिदाई', 'कई चांद थे सरे आसमां' उनकी प्रमुख रचनाएं हैं. 'कई चांद थे सरे आसमां' हिंदुस्तानी साहित्य की दुनिया में मील का पत्थर मानी जाती है. इस किताब का इंग्लिश संस्करण 2013 में 'मिरर ऑफ ब्यूटी' नाम से प्रकाशित हुआ. बता दें कि फारूकी साहित्यिक पत्रिका 'शबखून' के संपादक रहे.
इनके द्वारा रचित समालोचना 'तनकीदी अफकार' के लिए 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार (उर्दू) से सम्मानित किया गया. उनकी रचनाओं में शेर, ग़ैर शेर और नस्र (1973), गंजे-सोख़्ता (कविता संग्रह), सवार और दूसरे अफ़साने (फ़िक्शन) और 'जदीदियत कल और आज' (2007) भी शामिल हैं. उन्होंने उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर मीर तक़ी 'मीर' के कलाम पर आलोचना लिखी, जो 'शेर-शोर-अंगेज़' के नाम से तीन भागों में प्रकाशित हुई.
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कई सम्मान से नवाजे जा चुके
फारूकी को उर्दू साहित्य में दिए गए योगदान के लिए कई सम्मानों से सम्मानित किया गया है. साल 1986 में समालोचना 'तनक़ीदी अफकार' लिखने के लिए फारूकी को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था. इसके बाद साल 1996 में उन्हें 18वीं शताब्दी के प्रमुख कवि मीर तकी मीर पर किए गए अध्ययन के लिए सरस्वती सम्मान से सम्मानित किया गया. इसके साथ ही उन्हें साल 2009 में देश के सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है.
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फारूकी का जीवनकाल
शम्सुर्रहमान का जन्म सन 1935 में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (प्रयागराज) में हुआ था. उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में मास्टर्स (MA) किया. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत पोस्टल सर्विस में नौकरी करते हुए की. उन्होंने कुछ समय के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वेनिया में बच्चों को पढ़ाया, लेकिन बाद में उन्होंने उर्दू साहित्य पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित कर लिया. 16वीं सदी में विकसित हुई उर्दू “दास्तानगोई” यानी उर्दू में कहानी सुनाने की कला को एक बार फिर से जीवित करने के लिए भी फारूकी को जाना जाता है.
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