पराधियों का नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट होना आम बात है, लेकिन यूपी में यह पहला मौका जब पुलिस और प्रशासन के लोग इस परीक्षण से गुजरेंगे. अब आपके मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि यह नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट होता क्या है? यह टेस्ट क्यों किया जाता है और कैसे होता है? हम आपके इन सवालों के जवाब नीचे दे रहे हैं...
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लखनऊ: हाथरस कांड में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शुक्रवार रात बड़ी कार्रवाई करते हुए जिले के पुलिस अधीक्षक विक्रांत वीर, तत्कालीन क्षेत्राधिकारी राम शब्द, तत्कालीन प्रभारी निरीक्षक दिनेश कुमार वर्मा, वरिष्ठ उप निरीक्षक जगवीर सिंह व हेड कांस्टेबल महेश पाल को निलंबित कर दिया. मामले की जांच कर रही तीन सदस्यीय एसआईटी की प्राथमिक रिपोर्ट के आधार पर सीएम ने पुलिसकर्मियों के खिलाफ यह एक्शन लिया.
मुख्यमंत्री योगी ने साथ ही इस मामले में वादी-प्रतिवादी और पुलिस प्रशासन का नार्को व पॉलीग्राफ टेस्ट कराए जाने का आदेश भी दिया है. अपराधियों का नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट होना आम बात है, लेकिन यूपी में यह पहला मौका जब पुलिस और प्रशासन के लोग इस परीक्षण से गुजरेंगे. अब आपके मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि यह नार्को और पॉलीग्राफ टेस्ट होता क्या है? यह टेस्ट क्यों किया जाता है और कैसे होता है? हम आपके इन सवालों के जवाब नीचे दे रहे हैं...
जानिए क्या होता है नार्को टेस्ट?
नार्को टेस्ट अपराधी या आरोपी से सच उगलवाने के लिए किया जाता है. इस टेस्ट को फॉरेंसिक एक्सपर्ट, जांच अधिकारी, डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक की मौजूदगी में किया जाता है. टेस्ट से पहले कोर्ट की मंजूरी लेनी पड़ती है. किसी भी अपराधी/आरोपी का नार्को टेस्ट करने से पहले उसका शारीरिक परीक्षण किया जाता है. यह चेक किया जाता है कि व्यक्ति की मेडिकल कंडीशन इस टेस्ट के लायक है या नहीं. यदि अपराधी/आरोपी बीमार है, उसकी उम्र अधिक है या वह शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर है तो उसे नार्को टेस्ट के लिए अनफिट माना जाता है. ऐसा इस लिए करना पड़ता है क्योंकि टेस्ट के दौरान अपराधी/आरोपी को कई तरह की दवाइयां दी जाती हैं, जिनका असर खतरनाक भी हो सकता है और व्यक्ति कोमा में जा सकता है.
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नार्को टेस्ट कैसे होता है, यह कितना विश्वसनीय है?
इस टेस्ट में अपराधी या किसी व्यक्ति को "ट्रुथ ड्रग" नाम की एक साइकोएक्टिव दवा दी जाती है या फिर "सोडियम पेंटोथल या सोडियम अमाइटल" का इंजेक्शन लगाया जाता है. दवा का असर होते ही व्यक्ति ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है, जहां वह पूरी तरह बेहोश भी नहीं होता और पूरी तरह होश में भी नहीं रहता है. अर्थात व्यक्ति की तार्किक सामर्थ्य कमजोर कर दी जाती है, जिससे वह बहुत ज्यादा सोच नहीं पाता और न ही तेजी से बोल पाता है. आसान शब्दों में कहें तो नार्को टेस्ट के दौरान दी जाने वाली दवाइयों के असर से व्यक्ति के सोचने समझने की क्षमता कुछ समय के लिए खत्म हो जाती है. इस स्थिति में उस व्यक्ति से किसी केस से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं. चूंकि टेस्ट के दौरान व्यक्ति की तार्किक क्षमता कमजोर होती है, उससे विशेषज्ञों की टीम घूमा-फिराकर प्रश्न करती है, इसलिए संभावना बढ़ जाती कि इस अवस्था में व्यक्ति जो कुछ बोलेगा सच बोलेगा. हालांकि नार्को टेस्ट में व्यक्ति सब कुछ सच बोलता है यह प्रमाणित नहीं है.
जानें क्या होता है पॉलीग्राफी या लाई डिटेक्टर टेस्ट?
अब पॉलीग्राफी या लाई डिटेक्टर टेस्ट की बात करते हैं. किसी केस की जांच में सच का पता लगाने के लिए आरोपी का कई बार लाई डिटेक्टर टेस्ट या पॉलीग्राफ टेस्ट किया जाता है. इस टेस्ट का मकसद यह जानना होता है कि व्यक्ति सच बोल रहा है या झूठ. इसके लिए भी कोर्ट की अनुमति जरूरी है. पॉलीग्राफ एक मशीन है जिसमें व्यक्ति (जिसका पॉलीग्राफी टेस्ट किया जा रहा हो) से अटैच किए गए सेंसर्स से आ रहे सिग्नल (तरंगों) को एक मूविंग पेपर (ग्राफ) पर रिकॉर्ड किया जाता है. इस प्रक्रिया को पॉलीग्राफी टेस्ट कहते हैं. पॉलीग्राफ मशीन का इन्वेंशन 1921 में जॉन अगस्तस लार्सन (John Augustus Larson) ने किया था. जॉन ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से मेडिकल की पढ़ाई की थी और वे कैलिफोर्निया के बर्कले पुलिस स्टेशन में कार्यरत थे.
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कैसे काम करती है पॉलीग्राफ (लाई डिटेक्टर) मशीन
जब किसी व्यक्ति का लाई डिटेक्शन (पॉलीग्राफी) टेस्ट किया जाता है तो उसके साथ 6 सेंसर अटैच किए जाते हैं. पॉलीग्राफ टेस्ट में स्फिग्मोमैनोमीटर, न्युमोग्राफ और इलेक्ट्रोड मशीनों का उपयोग किया जाता है. इन मशीनों के जरिए टेस्ट से गुजर रहे व्यक्ति के शारीरिक क्रियाओं जैसे ब्लड प्रेशर, सांस लेने की गति, पल्स रेट, शरीर से निकल रहे पसीने का डेटा रिकॉर्ड किया जाता है. कभी-कभी पॉलीग्राफ मशीन व्यक्ति के हाथ और पैरों की मूवमेंट को भी रिकॉर्ड करती है.
सबसे पहले जांचकर्ता व्यक्ति से सामान्य प्रश्न पूछते हैं, आमतौर पर आदमी इन प्रश्नों के उत्तर सच ही देता है. इस दौरान व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं को रिकॉर्ड किया जाता है. फिर मुद्दे से जुड़े कड़े सवाल पूछे जाते हैं और पॉलीग्राफ मशीनों के जरिए शारीरिक क्रियाओं को रिकॉर्ड किया जाता है. आमतौर पर अगर व्यक्ति किसी प्रश्न का उत्तर गलत दे रहा है या झूठ बोल रहा है तो उस दौरान उसका ब्लड प्रेशर, सांस लेने की गति, पल्स रेट हाई रहता है. विशेषज्ञ सामान्य प्रश्नों के दौरान व्यक्ति की शारीरिक क्रियाओं और मुद्दे से जुड़े प्रश्नों के दौरान की शारीरिक क्रियाओं के पॉलीग्राफ मशीन में रिकॉर्ड डेटा का परीक्षण कर रिजल्ट देते हैं.
पॉलीग्राफ/लाई डिटेक्शन टेस्ट कितना विश्वसनीय है?
पॉलीग्राफ टेस्ट की बहुत आलोचना की जाती रही है. क्योंकि जिन शारीरिक क्रियाओं के निरिक्षण पर यह परीक्षण आधारित है उनमें सच बोलते समय भी मनोवैज्ञानिक कारणों से वृद्धि हो सकती है. टेस्ट के दौरान व्यक्ति पर काफी मनोवैज्ञानिक दवाब होता है. इसका एक दूसरा पहलू भी है कि पेशेवर मुजरिम नियमित अभ्यास और दृढ इरादों के बल पर इस प्रकार के टेस्ट से आराम से बच सकते हैं. क्योंकि अपराधी मानसिक रूप से मजबूत होते हैं और कोई जरूरी नहीं कि सामान्य सवालों की तुलना में कठिन सवालों का जवाब देने के दौरान उनकी शारीरिक क्रियाओं में ज्यादा फर्क आए. इसलिए अदालतें पॉलीग्राफ टेस्ट को बहुत विश्वसनीय नहीं मानती हैं. यह टेस्ट अपराधिक जांच में सहायक तो हो सकता है, लेकिन पॉलीग्राफ टेस्ट को आधार मानकर किसी केस के नतीजे तक नहीं पहुंचा सकता है.
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