पुष्पा 2 से 114 साल पहले आई थी भारत की पहली सुपरहिट फिल्म, बैलगाड़ी में भर-भर कर मिले थे नोट
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पुष्पा 2 से 114 साल पहले आई थी भारत की पहली सुपरहिट फिल्म, बैलगाड़ी में भर-भर कर मिले थे नोट

pushpa 2 the rule relaese date: अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा 2 गुरुवार को रिलीज हो रही है, लेकिन रिलीज के पहले ही वो नए इतिहास बना रही है, लेकिन क्या आपको पता है कि भारत की पहली सुपरहिट फिल्म कौन थी और उसका बनारस से क्या कनेक्शन था.

 

 

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pushpa 2 the rule promo teaser: अल्लू अर्जुन की पुष्पा 2.0  गुरुवार 5 दिसंबर को देश-विदेश में रिलीज हो रही है. रिलीज के पहले ही करोड़ों कमाने वाली पुष्पा 2 का क्रेज ही है कि उसने म्यूजिक औऱ तमाम राइट्स बेचकर ही करोड़ों कमा लिए हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि भारत की पहली सुपर डुपर हिट फिल्म कौन थी और कब रिलीज हुई थी. हम आपको बताते हैं कि भारत की पहली सुपरहिट फिल्म कौन थी और वो किसने बनाई थी. 

वो देश की भी पहली फिल्म थी. इसे भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के ने 3 मई 1913 को रिलीज किया था और इसका नाम था राजा हरिश्चचंद्र. लेकिन इस फिल्म बनने की कहानी कम फिल्मी नहीं है. उन्होंने कैसे अपनी पूरी पूंजी दांव पर लगाकर ये फिल्म बनाई. 

भारत से थोड़ा और पीछे चलते हैं, दुनिया की पहली फिल्म 28 दिसंबर 1895 को पेरिस में दिखाई गई. लूमियर ब्रदर्स की ये फिल्म महज 45 सेकेंड की थी. 1896 में ये फिल्म भारत में भी प्रदर्शित हुई.  1911 में बांबे यानी आज के मुंबई में अमेरिका-इंडिया पिक्चर पैलेस में एक फिल्म रिलीज हुई जिसका नाम था द लाइफ ऑफ क्राइस्ट (The Life of Jesus Christ),जिसे देखने धुंडिराज भी गए थे. इस फिल्म ने उनकी तकदीर ही बदल दी. ये फिल्मों की दीवानगी ही थी कि दो साल के भीतर तीन मई 1913 को धुंडिराज गोविंद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के ने अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र रिलीज कर दी. राजा हरिश्चंद्र भारत की पहली फिल्म के साथ पहली सुपरहिट फिल्म थी. जब हम पुष्पा 2 को लेकर धूम मचा रहे हैं तो उस फिल्म के 114 साल पूरे हो रहे हैं. 

15 हजार में बनी पहली फिल्म
महाराष्ट्र के नाशिक जिले में ब्राह्मण घर में धुंडिराज का जन्म 30 अप्रैल 1870 को हुआ था. कला के प्रति गहरे लगाव से जेजे स्कूल ऑफ ऑर्ट्स से उनकी शिक्षा हुई. बड़ौदा के कला भवन से भी उन्हें संगीत और अभियन की शिक्षा दीक्षा ली. तब के प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा ने उनके मन मस्तिष्क पर असर डाला ओर वो प्रिंटिंग प्रेस से जुड़ गए. उन्होंने बाद में लक्ष्मी आर्ट प्रिंटिंग वर्क्स नाम से अपना प्रेस भी चलाया. फिर वो 1909 में जर्मनी तक गए लेकिन व्यावसायिक साझेदार से विवाद में सब ठंडा पड़ गया.

लगातार नाकामी से परेशान फाल्के का मन विचलित हो गया और वो मोक्ष नगरी वाराणसी पहुंच गए. लेकिन उनका मन धर्म-वैराग्य में भी नहीं लगा.  दादा साहब 1909 में मुंबई में अमेरिका-इंडिया पिक्चर पैलेस में एमेजिंग एनिमल्स फिल्म देखने गए. स्क्रीन पर पशुओं को दौड़ता देख उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं. अगले दिन वो अपनी पूरी फैमिली को लेकर वही फिल्म देखने गए मगर ईस्टर के कारण उस दिन वहां ईसा मसीह की जीवनी पर बनी 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' फिल्म दिखाई गई. 

फाल्के ने द लाइफ ऑफ क्राइस्ट देखकर खुद ऐसी ही फिल्म बनाने की ठान ली. उन्होंने भारतीय धर्म आध्यात्म से जुड़े महापुरुषों पर ऐसी ही फिल्म बनाने के लिए फिल्मी किताबें, शोधपत्र और अन्य सामग्री जुटाई. लेकिन दिन भर पढ़ाई और 5-6 घंटे फिल्म देखने की वजह से उन्हें आंखों से दिखना ही बंद हो गया. लेकिन लंबे इलाज से वो ठीक हो पाए. लेकिन फिल्म का जुनून वो नहीं भूले. फिल्म के लिए पैसा नहीं था तो उन्होंने अपनी बीमा पॉलिसी गिरवी रखी और 10 हजार रुपये का लोन हासिल किया. फिर फरवरी 1912 में लंदन पहुंच गए. 

लंदन यात्रा
लंदन में बायोस्कोप सिने वीकली (Bioscope Cine Weekly) वीकली मैग्जीन के एडिटर मिस्टर कैबर्न से मिले. कैबर्न को फाल्के की जिद के आगे फिल्म बनाने में उनकी मदद को राजी होना पड़ा. फाल्के ब्रिटिश निर्माता निर्देशक सेसिल हेपवर्थ से मिलकर उनसे फिल्में बनाने की कला सीखी. फिर कैमरा और फिल्म निर्माण संबंधी अन्य उपकरण लेकर भारत आ गए. उन्होंने प्रोड्यूसर्स यानी फिल्म के लिए पैसा जुटाने के लिए 'मटर के पौधे' पर एक मिनट की लघु फिल्म बनाई. इससे उन्हें कर्ज के तौर पर फाइनेंसरों से रकम मिली. 

पैसे के बाद कलाकारों का टोटा
दादा साहेब फाल्के ने पैसा तो जुटा लिया लेकिन कोई भी महिला फिल्म में अभिनय को राजी नहीं हुई. फाल्के बांबे के रेड लाइट एरिया में भी घूमे लेकिन वेश्याओं ने भी इनकार कर दिया तो वो निराश हो गए. अचानक एक ईरानी रेस्तरां में चाय पीने के दौरान एक दुबले से रसोइये अन्ना हरी सालुंके को देखकर उन्हें नया आइडिया आया. दादा साहेब फाल्के ने उसे फिल्म में महिला की रोल दिया. सालुंके भारतीय फिल्म जगत की पहली अभिनेत्री थे.

फाल्के की पत्नी सरस्वती बाई ने भी गहने बेचकर उनकी मदद की.फिल्म शूटिंग में वो 500 कलाकारों का भोजन बनातीं और कलाकारों के कपड़े भी वो धुलतीं. बैकग्राउंड के लिए घंटों सफेद धोती लेकर वो खड़ी रहतीं. आखिरकार दो साल की मेहनत के बाद करीब 7 महीनों में राजा हरिश्चंद्र की शूटिंग पूरी हुई. इस पर 15 हजार रुपये खर्च हुए और फाल्के कंगाली की कगार पर थे फिर वो दिन आया और 21 अप्रैल 1913 को मुंबई के ओलंपिया थियेटर में फिल्म स्क्रीनिंग हुई. जबरदस्त रिस्पांस के बाद फिल्म रिलीज की गई और वहीं से फाल्के की जिंदगी बदल गई. राजा हरिश्चंद्र 3 मई 1913 को बांबे के कॉरोनेशन सिनेमा हॉल में रिलीज हुई. 

फिल्म इतनी जोरदार हिट थी कि फल्के बैलगाड़ी में भरकर पैसा ले जाते थे. दादा साहेब फाल्के ने फिर कुछ माह में दो फिल्में मोहिनी भस्मासुर और सत्यवान सावित्री भी बना डालीं. मोहिनी भस्मासुर में कमला गोखले पहली महिला अभिनेत्री के तौर पर स्थापित हुईं. राजा हरिश्चंद्र की तरह ही सत्यवान सावित्री और मोहिनी भस्मासुर सुपरहिट रहीं.

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