क्रांतिकारियों ने नौ अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जा रही नंबर 8 डाउन ट्रेन को काकोरी कस्बे के पास लूट लिया.
Trending Photos
नई दिल्ली: आजादी की लड़ाई में 1920 में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन 1922 तक आते-आते पूरे शबाब पर था लेकिन उसी दौरान पांच फरवरी को गोरखपुर के निकट 'चौरी-चौरा' कांड के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया. इससे पूरे देश में निराशा का माहौल पैदा हो गया. उसी दौर में 1925 में लखनऊ के निकट काकोरी कांड की महत्वपूर्ण घटना घटित हुई. उस घटना ने देश के मूड को बदल दिया. आजादी के दीवाने एक बार फिर अपना सर्वस्व झोंकने के लिए कूद पड़े.
काकोरी कांड
क्रांतिकारियों ने नौ अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जा रही नंबर 8 डाउन ट्रेन को काकोरी कस्बे के पास लूट लिया. चलती ट्रेन में इमरजेंसी चेन पुलिंग कर ट्रेन को रोका गया और उसको लूट लिया गया. कहा जाता है कि क्रांतिकारियों ने इस खास ट्रेन को इसलिए लूटा क्योंकि उनके पास सूचना थी कि गार्ड के केबिन में कई बैगों में सरकारी धन रखा गया है और इसे ब्रिटिश सरकार के खजाने में पहुंचाया जाना है. क्रांतिकारियों का मकसद उस सरकारी पैसे से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों से मजबूती के साथ मोर्चा लिया जा सके.
उस खजाने को क्रांतिकारी संगठन 'हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन' (एचआरए) के सदस्यों ने अंजाम दिया था. एचआरए की स्थापना क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल ने की थी. राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां, चंद्रशेखर आजाद, रोशन सिंह जैसे क्रांतिकारी इसके सदस्य थे.
इस ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे. घटना के बाद देश में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. हालांकि इस घटना को 10 क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया था. इस कांड का मुकदमा लखनऊ की अदालत में 10 महीने तक चला. छह अप्रैल, 1927 को इस मुकदमे का फैसला सुनाया गया.
इसमें राम प्रसाद 'बिस्मिल', राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह खान को फांसी की सजा सुनाई गई. 17 दिसंबर, 1927 को गोंडा जेल में राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फांसी दी गई. उसके दो दिन बाद 19 दिसंबर को पंडित राम प्रसाद 'बिस्मिल' को गोरखपुर, अशफाक उल्लाह खां को फैजाबाद और रोशन सिंह को इलाहाबाद में फांसी दी गई.
कहा जाता है कि जब राम प्रसाद बिस्मिल फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो उन्होंने कहा, 'मैं ब्रिटिश शासन का खात्मा चाहता हूं.' काकोरी केस में चंद्रशेखर आजाद का नाम भी था लेकिन उनको अंग्रेज कभी पकड़ नहीं पाए. वे अपना हुलिया बदलने में माहिर थे. 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में जब वह चारों तरफ से घिर गए तो उन्होंने खुद को गोली मार ली.